भीतर डूबते हुए

bhitar Dubte hue

मोना गुलाटी

मोना गुलाटी

भीतर डूबते हुए

मोना गुलाटी

और अधिकमोना गुलाटी

    वह एक उदास दिन है

    जिसकी शाम भीतर डूब जाती है खुली

    हथेलियाँ लिए;

    आभ्यंतर में कोई चिल्लाहट नहीं

    उठती

    मात्र स्तब्ध सन्नाटा गूँजता है और कहीं

    पहाड़ की चोटियों से कोई अर्राकर नीचे गिरता है

    तलहटियों में!

    देश में रोज़ ही कितने ख़ून,

    कितने बलात्कार

    होते हैं और हर चौराहे के जिस्म पर नोंच-खसोट के

    निशान बने हुए हैं!

    निशानों में उभर रहे हैं पंजों के चिह्न : देश में घूम

    रहा है अंधड़ की तरह कोई भयावह दैत्य :

    मात्र मुझे थामे है काला अंधकार और एकदम गुम सन्नाटा।

    चुप्पी की चीख़ मेरे भीतर धँस गई है :

    अब ऊपर आने की कोई गुजांइश नहीं बची है :

    मौत से पहले

    अलविदा : जय हिंद!

    *

    स्तब्ध स्तंभन में धँसे इस सन्नाटे को तोड़ते हुए

    हम इस प्रगाढ़ उदास अंधकार की

    पकड़ से छूटने के लिए

    तुम्हारी तरफ़ हाथ कैसे बढ़ा सकते हैं।

    क्या हमें मालूम नहीं : तुम

    रौशनी नहीं मृगतृष्णा

    हो और हो :

    उतना ही प्रगाढ़ उदास अंधकार

    जितने कि हम।

    इस देश के चौराहों के ज़ख़्म कभी नहीं भर सकते।

    कभी नहीं लौट सकता

    उदास शाम में डूबी हुई लालिमा का

    हरापन :

    हर कफ़न का अपना विश्वास होता है;

    वह विश्वास

    पहाड़ी पगडंडियों में बह रहा है :

    उसे छूने के लिए

    दौड़ते होगें पाँव किसी हिममानव के!

    यहाँ टूटते जिस्म;

    थिरकते पाँवों और उदास हिचकियों के

    सिवाय कुछ नहीं!

    *

    संबंधों को जिज्ञासाओं में बदल देने से...

    सब कितना गिजगिजाहट भरा हो जाता है :

    चेहरे पर दस्तक देते

    हाथ अपना अर्थ बदल देते हैं :

    और परिचित आहट

    दिनचर्या बनकर सरक जाती है :

    धूप के साथ

    रौशनी और रौशनी के साथ हवा

    और हवा के साथ आवाज़

    सब जोड़ देने से भी

    नहीं बचता आत्मीय संलाप :

    संबंधों के अनचीन्हे ही खिसक जाता है

    रौशनी का विस्तार

    और लौटता है वही सूखा हाथ

    जो चेहरे पर दस्तक देने

    उठा था बचपन में; शहर से!

    निपट सूनी और

    एकांत गलियों में घूमता रहा था अमरूद के पेड़ ढूँढ़ने

    और निंबोली इकट्ठी कर सोचता था; मेरे घर भी नीम

    के पेड़ की घनी छाया होगी सुस्ताने के लिए : इस

    बस्ती के कुहासे में सब लिपटता है

    अतीत में दबी दुर्गंध को लिए;

    दर्द : कितनी बार गली की

    नुक्कड़ बन गया है; अब उस तिलमिलाहट की याद

    उदास आँख बनकर आकाश को समेटने लगती है और

    टूटता हुआ गिरता है जिस्म : बेजान।

    थकान के सभी पर्याय नसों से गुज़रते हैं

    और चुपचाप

    सर्दियो की नंगी चुभन में बदल जाते हैं!

    थकान के कितने रंग बन गए हैं अब

    उम्र के साथ!

    एक थकान कंधों पर आई है

    और कंधों पर रखे हाथ की

    भाषा झरने लगी है

    फूलों-सी!

    फूलों में

    थकान होती है

    इतनी भयंकर टूटन लिए! यह

    बात भी किसी दिन उसके ज़ेहन में आनी थी :

    थकान का संबंध मात्र उम्र या कंधों या हथेलियों से नहीं है!

    थकान

    जिस्म के हर हिस्से के साथ जुड़ी है

    और अपनी परिचित हथेलियों का स्पर्श देकर यात्राओं के

    अर्थ बदल देती है :

    आने वाले हर नए पड़ाव की

    सूचक है थकान उदास संतप्त चेहरे को मुस्कान में बदलते

    हुए उसने सोचा उँगलियों के पोरों में जमा

    हुआ यह चेहरा, किस तरह अकस्मात्

    सर्दियों की गुनगुनी धूप में खेलते बच्चे की

    मासूमियत को पीने

    लगा है चुपचाप।

    प्यार का अर्थ

    अब थकान यात्रा के

    हर पड़ाव के साथ जुड़ गया है!

    थकान की इन यात्राओं को छूते हुए

    मस्तिष्क के पोरों में

    भुरभुरा ठंडापन जम गया है। उम्र का अक्स

    चमकीला उदास हो गया है।

    अब हमेशा चलती हैं

    हिमानी कठोर शीत हवाएँ

    अंतिम पड़ाव कहीं आस-पास है और थकान का हर पोर

    उदास ज़ायक़े में बदल रहा है; बेहद उदास धूसर दिन की

    ढलती शाम की तरह!

    जंगल में दूर तक हरियाली है।

    इस आवाज़ को सुनने

    हम शहर छोड़ देंगे!

    एकांत का अर्थ

    चाहे कितना उदास क्यों हो!

    *

    हर शताब्दी में

    हम तुम्हारी इंतज़ार करते हैं।

    हर कविता का अर्थ मात्र

    एक होता है! आँख के भीतर

    डूब जाना :

    और

    आर-पार हो जाना।

    *

    कविताएँ

    हमारे साथ चलती हैं : हर क़दम पर :

    हमें बेहोश करती हुई।

    इतना बोझ है मस्तिष्क की नसों पर :

    हमने सोच लिया है

    कि अब विक्षिप्त हो जाने तक

    और विक्षिप्ति के बाद भी :

    मात्र कविताएँ लिखेंगे! मृत्युपर्यंत।

    प्रमथ्यु की तरह ढोएँगे इन्हें

    ताकि तुम घावों के भीतर तक बने रहो!

    *

    तुम चुप रहने का अर्थ अकस्मात् ही

    समझ जाओगे :

    मुझे आश्चर्य है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 82)
    • रचनाकार : मोना गुलाटी

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए