मैं नास्तिक नहीं नाराज़ हूँ
ऊपर वाले का क्या जाता है
लेकिन मैं नाराज़ हूँ तो पहली
बात यही है कि मुझे भी एक
नाम देना होगा अपने को जैसा कितना घमंडी
मैं अकेला चलता हूँ
बिना सूरज-चाँद के
और एक छाया मेरे पीछे पड़ी
रहती है। देखती दूर रेलिंग
जो मुझसे भी ऊपर है
मैं एक कोने में पड़ा हूँ
सीढ़ियों के लगभग अधबीच में
मैं कहाँ जाऊँ
क्या करूँ
मैं नाराज़ न हूँगा तो क्या हूँगा
इन सीढ़ियों से मुझे अभी ऊपर जाना है
और मुझे कह दिया गया जा तो सकते हो
लेकिन इसके लिए सहारा चाहिए
इस सहारे का ही दूसरा नाम आस्तिक है
आस्तिक आदमी जब भी सीढ़ियाँ
पार कर लेता है तो वहाँ
इस तरह के कुछ काम करता है मसलन
सौदेबाज़ी जिसमें उसे अपने
को बेचना आता है
गले मिलना अपनों से
जिनसे वह रोज़ ईर्ष्या करता है
सफ़ेदपोश सफल और रंगों से सराबोर
उन तमाम शख़्सों को सलाम
जहाँ हारी हुई लड़ाई को
ख़ामोशी से सफल क़रार देना है
पक्षपात तो बहुत छोटा शब्द है
वह वहाँ फ़र्श ख़ुरचता है
अपने बूटों से
और देवी की प्रतिमा को
प्राणायाम करता है
मेरी ख़ुशक़िस्मती है
मैं ईश्वर से ख़ुशामद नहीं करता
मुझे चालाक नहीं कहा जाता
नाराज़ होकर एक और फ़ायदा ज़रूर है
न किसी से नोंकझोंक होती है
न इसकी नौबत आती है
मैं नाराज़ हूँ
इसलिए भी कि
मुझे रोज़
गढ्डा खोदकर पानी पीना आ गया
निज़ाम नहीं माँगता कभी न चाहिए उससे यह कभी
एक नौकरी से काम चल जाता है
ऊपरवाले से
मेरी नाराज़गी
निर्विरोध है।
- पुस्तक : रूपिन-सूपिन (पृष्ठ 11)
- रचनाकार : प्रमोद कौंसवाल
- प्रकाशन : आधार प्रकाशन
- संस्करण : 2002
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.