मछलियों का शोकगीत
झपटकर घर नहीं लेती कोटमसर की गुफा में दुबक कर बैठी अंधी मछलियाँ अपनी जीभ पर
समुद्र के खारे पानी का स्वाद
इनके गलफड़ों पर अब भी चिपका है वही
हज़ारों वर्ष पूर्व का इतिहास!
काँगेर घाटी में उड़ने वाली गिलहरी के पंखों पर
अक्सर उड़ेल आती हैं मछलियाँ,
संकेत की भाषा मे लिखी अपनी दर्द भरी पाती की स्याही
ताकि बचा रहे गिलहरी के पंखों का चितकबरापन
वे बोलने वाली मैना को सुबक-सुबक कर सुनाती हैं
काली पुतलियों की तलाश में भटकती अपनी नस्लों के संघर्ष की कहानी
ताकि मैना का बोलना जारी रहे :
पलाश की सबसे ऊँची टहनी से
मछलियाँ तो अंधी हैं पर
लंबी पूँछ वाला झींगुर भी नहीं जान पाया अब तक
कोटमसर गुफा के बाहर ऐसी किसी दुनिया के होने का रहस्य
जहाँ बिना पूँछ वाले झींगुर चूमते हैं सुबह की उजली धूप
और टर्र-टर्र करते हुए गुज़र जाते हैं
कई-कई मेंढकों के झुंड
गुफा के भीतर
शुभ्र-धवल चूने के पत्थरों से बने झूमरों का संगीत सुनकर
अंधी मछलियाँ भी कभी-कभी गाने लगती हैं
घोटुल में गाया जाने वाला
कोई प्रेमगीत!
गुफा के सारे पत्थर तब किसी वाद्ययंत्र में बदल उठते हैं
हाथी की सूँड़ की तरह बनी हुई
पत्थर की संरचना भी झूम उठती है
संगीत कितना ही मनमोहक क्यों न हो
पर एक समय के बाद
उसकी प्रतिध्वनियाँ कर्कशता में बदल जाती हैं
मछलियाँ अंधी हैं
बहरी नहीं
कि मछलियाँ जानती हैं सब कुछ
सुनती हैं सैलानियों की पदचाप
सुनती हैं उनकी हँसी-ठिठोली
जब कोई कहता है
देखो-देखो यहाँ छुपकर बैठी है
ब्रह्मांड की इकलौती रंग-बिरंगी मछली
तब भले ही कोटमसर गुफा का मान बढ़ जाता हो
कार्ल्सवार गुफा से तुलना पर कोटमसर फूला नहीं समाता हो
तब भी कोई नहीं जानना चाहता
इन अंधी मछलियों का इतिहास
कि जब कभी होती हैं एकांत में
तब दहाड़े मार कर रोती हैं मछलियाँ
इनकी आँखों से टपकते आँसुओं की बूँद से चमकता है गुफा का बेजान-सा शिवलिंग!
कोई नहीं जानता पीढ़ियों से घुप्प अँधेरों में छटपटाती
अंधी मछलियों का दर्द
कि लिंगोपेन से माँग आई अपनी आज़ादी की मन्नतें
कई-कई अर्ज़ियाँ भी लगा आईं बूढ़ादेव के दरबार में
अंधी मछलियाँ जानती हैं
उनकी आज़ादी को हज़ारों वर्ष का सफ़र तय करना
अभी बाक़ी है
इसलिए भारी उदासी के दिनों में भी
कोटमसर की मछलियाँ
साँयरेलो-साँयरेलो... जैसे गीत गाती हैं!
- रचनाकार : पूनम वासम
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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