उतना ही असमाप्त

utna hi asmapt

कुँवर नारायण

कुँवर नारायण

उतना ही असमाप्त

कुँवर नारायण

और अधिककुँवर नारायण

    अगर मैं सचाई हूँ

    तो कुछ भी खोया नहीं।

    घूमते-फिरते जिन जगहों में वास किया

    वहाँ यदि लौटूँ तो

    अपने को कोई नई पहचान दे सकता हूँ

    पुनः आरंभ हो सकता हूँ किसी भी संकल्प से

    उतना ही सही, उतना ही प्रामाणिक,

    उतना ही आदि जीवन

    जो नष्ट नहीं होता,

    नया होता चलता है क्रम।

    एक शक्ति

    जो चाहती, पछताती,

    जिसके लिए

    केवल घटनाओं और संपर्कों की अपेक्षा

    बीतते रहने की मजबूरी।

    सोचता हूँ जिस शून्य को

    वह भी आकांक्षी है उसी भौतिक स्पर्श का

    जिसने मुक्त किया था

    अकेले स्रष्टा को उसके अकेलेपन से,

    और ढाल दी थी पृथ्वी पर अकूत जीवन-राशि।

    एक स्वतंत्र वर्तमान और अनिश्चित भविष्य

    जो मैं हूँ

    और वह सब जो अभी हो सकता हूँ

    यदि अपने को टूटने दूँ

    अपने को किसी तरह दूसरों से बाँधे हुए

    एक अदम्य साहस—एक ढीठ उत्सव।

    हमारे पास एक भाषा है

    जिसमें मैंने जीना सीखा—

    तुम सोचते हो इसलिए लगता है

    कहीं कहीं तुम्हारे शब्द

    मेरी इच्छाओं को व्यक्त करते हैं।

    हम मिलते हैं

    कभी युद्धों की छाया में

    कभी शांत वनों में

    खोजते हुए

    मैत्री के उन सबसे मार्मिक सूत्रों को

    जो सही अर्थों में वैश्विक हों।

    हम खड़े हैं

    एक निर्धारित समझौते की

    चमकती संधि-रेखा पर,

    जो तलवार की धार की तरह पैनी है।

    कितना रहस्यमय है तुम्हारा स्पर्श

    कि इतना जीकर भी उतना ही प्यासा हूँ

    इतना पाकर भी उतना ही आकांक्षी,

    सब कुछ जानकर भी उतना ही अनभिज्ञ,

    बार-बार चाही हुई चीज़ों को

    भरपूर पाकर भी उतना ही अतृप्त,

    हर क्षण समाप्त होते हुए भी

    उतना ही असमाप्त।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सब इतना असमाप्त (पृष्ठ 105)
    • रचनाकार : कुँवर नारायण
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2018

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