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बाँसुरी

bansuri

हरिओम राजोरिया

और अधिकहरिओम राजोरिया

    कुछ चीज़ों के खोने का अफ़सोस

    ताज़िंदगी बना ही रहता है

    जैसे दादा की बाँसुरी

    पिता कभी भुला नहीं पाए जिसे

    किसी ने कभी देखा नहीं उसे

    पर इतनी बार इतनी तरह से

    बातचीत में उसका चित्र खींचा गया

    की एक चित्रकथा से

    जज़्ब हो गई ज़ेहन में

    वे तेज़ बुख़ार में बड़बड़ाते

    तो उनकी ज़िद में

    बाँसुरी की खोज शामिल हो जाती

    कभी कहते—ले चाभी ले जा

    और अलमारी के नीचले खन में देख!

    हो सकता है पुरानी किताबों की

    गठरियों के नीचे कहीं दबी हो

    मथना में धरीं

    दीमक खाई चिठ्ठियों में कहीं

    बाँसुरी के होने का अंदेशा उन्हें होता

    बाँसुरी हो जैसे प्राण हों

    जर्जर देह में अटके हुए कहीं

    कई बार बाँसुरी की चर्चा करते हुए

    अचेत हो जाते पिता

    होश लौटते ही पूछते—मिली?

    पता नहीं क्या था ऐसा उसमें?

    हो सकता है

    कोई तर्ज़ याद हो आती हो उन्हें

    उन लुप्त हो गए गारी गीतों की

    जिन्हें ब्याह में गाते हुए

    स्त्रियाँ पल्लू दबा-दबा कर हँसतीं थीं

    बाँसुरी पर उन गीतों को

    चलते-फिरते उछार सकते थे दादा

    कुल जमा एक बाँसुरी ही थी

    पिता के पास

    अपने पिता की चल-अचल विरासत

    जो अँधेरे को, बुरे दिनों को, क़र्ज़ को

    घोल सकती थी अपने भीतर

    किसी आत्मीय जन से बिछुड़ जाने जैसी

    तड़प थी बाँसुरी के होने में

    उसे याद करते-करते बेचैनी से भर जाते पिता

    किसी गीत की पंक्ति का कोई शब्द

    अनुस्मरण में बिंधकर सोने देता था उन्हें

    बाँसुरी के साथ नत्थी था पिता का बचपन

    जब दादा ने स्कूल इंस्पेक्टर को

    सुनाई थी बाँसुरी पर ऐसी धुन

    जिस पर मुग्ध होकर सवा रुपया बज़ीफ़ा

    मुक़र्रर किया था उसने पिता का

    वह जो थी जीवन का

    संगीत, लय, राग और गति

    वह जो अब खो गई थी कहीं

    बाँसुरी का नहीं

    खोना था जीवन की कविता का

    स्मृति का, एक दस्तावेज़ का

    पिता उसे अब बजा नहीं सकते थे

    पर उसे देख अपने पिता के

    हाथों को, उँगलियों को, होंठों को

    साँसों को, गीतों को

    और उनके जज़्बे को याद कर सकते थे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : हरिओम राजोरिया
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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