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बैसाख की आस

baisakh ki aas

ममता जयंत

ममता जयंत

बैसाख की आस

ममता जयंत

और अधिकममता जयंत

    तुमने भूख का वास्ता दिया

    मुझे अन्न उगाने की सूझी

    मैंने बोए गेहूँ जौ चना चावल दाल 

    और शर्बत चाय चीनी के नाम पर रोप दी ईख 

    मेरे इसी कार-व्यवहार पर टिके थे सब त्यौहार 

    बसंत आया फूल खिले हवा चली खेत लहलहाए

    आस जगी बैसाख की

    इसी सुनहरी चमक में थे

    वनिता के गहने लाजो की चुनरी

    नन्हें-मुन्नों के खेल खिलौने और कॉपी किताब

    शाम होते ही बादलों का रुख़ बदला

    रंग गहराया बिजली चमकी

    छाए उमड़-घुमड़कर

    जैसे कर रहे हों पैमाईश धरा की

    मैंने नज़र उठाई देखा और गुहार लगाई

    आज बादलों से ज़्यादा गड़गड़ाहट मन में थी

    भीतर की अर्चना रोक रही थी ऊपर की गर्जना को

    प्रकृति पर पहरे का प्रयास कोरी मूर्खता है

    उस रात कंकड़ों ने भी दिखाई ख़ूब नज़ाकत

    यौवन से मदमाती फसल

    सिमट गई थी वृष्टि की आग़ोश में

    और समा गई धरा की गोद में

    भोर होते ही मैंने यूँ निहारा खुले मैदान को 

    ज्यों विदा वक्त देखता है एक पिता बेटी को

    मेरे पास डबडबाई आँखों के सिवा कुछ था

    एक हाथ में रस्सी थी दूसरे में हँसिया

    और मन में तरह-तरह के ख़्याल

    अब सरकारी वादों पर टिकी थी

    हर एक साँस!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ममता जयंत
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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