बच रहा यदि बोट कोई

bach raha yadi bote koi

जसवंत सिंह नेकी

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बच रहा यदि बोट कोई

जसवंत सिंह नेकी

और अधिकजसवंत सिंह नेकी

    एक

    है यह शुभारंभ या कोई अंत?

    संपन्न होता बीता या युग आरंभ होता?

    एक सृजन में पसरे प्रेत-साये?

    मौत लिखवाकर हम पंडाल में आए!

    मृत्युधर्मी गुज़रते कुछ इस तरह

    तीव्रतम गति राकेट की कमतर होती जिस तरह...

    चार, तीन, दो, एक, शून्य फिर

    हो रहा अंबर का भयभीत खून!

    आज तारा एक धरती से उठा

    फैला और विकसित हो नीलाभ पर

    धड़कती धरती की छाती

    धूमकेतु, सहमता आकाश में

    किसको आशा थी कि

    आदम ख़ुदा हो जाएगा।

    कड़कती कयामत लेकर

    अर्श पर चढ़ जाएगा?

    तारकों की सल्तनत में

    निज वाहन चलाएगा?

    अर्श की छाती में

    बिजली-सा कौंध जाएगा?

    दो

    अलविदा का हुजूम!

    'सात रक्षाओं' की रहमत

    एक धमाके से राकेट

    हो गया आख़िर विदा!

    धारकर हिम्मत अंबर के लिए

    चल पड़ा कोई अँधेरे की गति में

    चीरता चलता रहा वर्जित चौराहे

    पंथ-संबल ही सदा प्रेतों ने चाहे।

    आस के संदेह सीने में समा ले

    हो गई मिट्टी हवाओं के हवाले

    फिर नहीं धरती, अंबर ही है कोई

    कहीं साहिल बंदर,

    किनारा है, पानी

    और तन्हाई में है जुगनू की लौ

    मिले पग-पग मौत के तहदार परदे

    प्राण प्रतिफल मौत को प्रणाम करते।

    कहीं से स्रोत आए

    कहीं ठहरे नज़र

    एक शून्य से निकलता दूसरा शून्य

    धरा सिकुड़ी, सिमटकर

    नज़र ओझल हो गई

    होश तन्हाई पे बोझिल हो गई

    फिर नहीं आसन मुद्रा

    सवेरा शाम भी नहीं

    मूक अकेलापन, सहयात्री कोई नहीं

    नक़्श तक आए धरती का नज़र!

    अलविदा!

    धरती मेरी अलविदा!

    प्यार मेरे अलविदा!

    स्वप्न के संसार मेरे अलविदा!

    उम्र के हर साल मेरे अलविदा !

    आने वाले काल मेरे अलविदा!

    तीन

    है यहाँ नीचे सभी कुछ उसी तरह जीवन,

    रात पहले धरा पर फैलती-सी।

    वही सबका लौटना घर को,

    वही पक्षी चहचहाते।

    यही तो संध्या के दीपक,

    जो नमन के हिस्सेदार।

    वही नींद थक-हारकर

    वही भय सपनों-सा सुंदर

    वही झिलमिल रौनक़ें कोठों के बाज़ार की।

    वही रौनक़ महफ़िलों की, पंजाब में और धूम भी।

    लेकिन किसी आगोश में

    कोई प्यार बैठा शर्मसार,

    एक विदा होती हयाती की

    हिफ़ाज़त माँगती।

    “अंतरिक्ष के हे पिता,

    हे शून्य के सर्व-स्वामी,

    उसी का स्थान हो

    हमसे जो आज हुआ विदा”

    शब्दहीन-वाक्यशून्य, अरदास उसकी,

    अंबरों में भटकती आस उसकी।

    हे अंतरिक्ष के स्वामी!

    हे शून्य के देवता

    द्वार तेरे प्यार कैसे सिसकता

    देख हे दुनिया के मालिक

    कैसे ख़ुद हो रहा मिट्टी से मोह!

    उठ रहा कैसे कलेजे में है भय,

    अँतड़ियाँ कैसे खींची जा रहीं?

    कैसे अबला विवशता में क़ैद है

    किस तरह हैं भूत के संग भावी जोड़े

    खींचती रेखाएँ और हैं मिट रही

    कोई अब तक गया ऐसे विदेश!

    चार

    कितनी माताओं के बच्चे

    आज युद्धों पर गए

    कितनी माताओं के घर

    मजबूर धुआँधार काल!

    नित नए सूरज, नया से युद्ध ऐसा।

    रोज़ यह अग्नि का दरिया बह रहा।

    एशिया के तटों पर,

    हब्शियों के तिनको पर ही,

    मुड़ रहे टापू दलों पर,

    सब विदेशी मुल्कों में बदबू बारूदी।

    कहीं मुस्लिम हाँफते कहीं यहूदी।

    कहीं चीनी चौंकते या फिर फिरंगी।

    यह धरा पूरी हवा में आज रक्तिम।

    कैसे आदम की बनावट से अदावत रिस रही?

    एक व्यथा है सुलझती, कोई और मानो खुल रही।

    ज़ुल्म आदम पर हैं जब आदम के टूटे

    भड़कते ज्वालामुखी हथियार रूठे

    बम आदम पर ही जब आदम के बरसे

    चिनगारी और अंगार हँसते!

    नेज़ों पर जब कुछ बहादुर वीरों को पिरोते

    तड़पकर फ़ौलाद रोते।

    हाथ बन मानस के जब अणु उगलें,

    मौत के दरिया बहुत हैं।

    आज तो सब ओर चिह्न विनाश के

    होते हैं ज़ाहिर

    हश्र के सामान आज

    सारे इकट्ठे हो रहे।

    पाँच

    कृष्ण ने अर्जुन को

    रणभूमि में दिया संदेश जो

    आदमी ने स्मृति में, नक़्श मिटा दिए वे

    आज वह सहमत नहीं

    भगवान से निश्चय जुटाने को

    फिर भला क्यों प्रभु आएँ

    उसका रथ थामने को?

    चल पड़े जो आज चक्कर

    प्रभु भी नहीं रोकता

    ( हो सके हाज़िर)

    एटमी विस्फोट द्वारा

    आज बरसेगा विनाश अथवा

    रथ कहीं मुड़ जाए

    या फिर ठहर ही जाए।

    आज एक साज़िश है

    अंधी आग मौन के ख़िलाफ़

    लपलपाती आग धर्म की

    और वायु के बीच

    आज कोई अक़्ल और लतीफ़

    आज कंधे से प्रभु के गिर गई कोई सलीब

    आज ध्रुवतारा कहीं आकाश में दिखता नहीं

    कोई छाया शाप-सी है पड़ गई इंसान पर।

    काल पाकर काया ब्रह्मा से मिली

    काल पाकर शिवा बैठा गोद में

    काल हित आया हूँ मैं, और कीट भी

    होनी के हाथों लिखाए चल दिए कुछ दीठ भी

    रोज़ चलती इक कहानी, साधन वही

    रोज दावानल का ईंधन है वहीं

    आज पेचा पड़ गया लगता नए संताप का

    इक प्रलय की हर भविष्यवाणी हुई सच्ची यहाँ।

    छ:

    माँ की आँतों में

    उठी है एक बेगानी-सी हलचल

    एक उसका प्रलय दूसरे को दे रहा चेतावनी।

    वह जो पिछली रात गया राकेट पर,

    पुनः कब परिवार घर में लौट पाएगा?

    आँख से अम्मी का उजलापन समेट ले गया

    शिखर पर अंबर में जाकर टिक गया

    निकलकर, बिखरे हुए शून्यों से होकर...

    यदि कहीं उसके पाने से पहले ही

    हो गया विस्फोट कोई एटमी

    या फिर गया उसको ख़्याल

    तड़पते देखेगा वह माँओं के लाल

    सुलगती देखेगा वह माँओं की कोख

    बिगड़ती देखेगा वह वीरों की लाश

    सरकते देखेगा धुआँधार

    चटखते देखेगा पर्वत

    खौलते देखेगा पत्थर

    खौलते देखेगा सागर

    अग्नि के अंबार देखेगा सकल संसार पर

    (चातुरी देखेगा जो गई पल्लू झाड़कर)

    धुएँ का पर्वत जो उसको

    दिख गया आसमान में

    किस तरह उतरेगा वह

    सुलगते श्मशान में?

    सात

    घट चुके इस मौन सन्नाटे का केवल मर्म है।

    सत्य को सत्य कह पाएँ क्या यही धर्म है?

    कौन-सी सिरदारी यह

    जिसका मनुज को मान है?

    इस घड़ी का त्रास ही

    बस जन्म का अपमान है।

    आदमीयत उठ गई

    तो प्रेत होंगे फिर जमा

    मातमी इजलास में

    रोएँगे इस अक़्ल पर।

    बात चतुराई की करके

    फिर उड़ाएँगे वे अपना उपहास

    आरोप अंदर साक्षी

    मनुज पर लगाएँगे

    कह रहे कुल नाश का

    इसकी अक्ल को कल मिला

    ज़िंदगी का सिलसिला

    बस इक गुनाह में गल गया

    बच रहा पक्षी जो कोई

    गाएगा, चिल्लाएगा

    लानतें हम पर

    हमारी सर्जना की भेजेगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 169)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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