अवधी मैया के चरनन मा हम नित नित सीस नवाइत है॥
पाली प्राकृत संस्कीरत ते जेहिकी मुखादि पहिचानी गै।
जो आप जनाब ते दूर रही धरती कि गजल लासानी है।
जीमा किसान का घरु आँगन जो अपभ्रंश की बिटिया है।
जीमा कबीर की साखी है, जो गिरधर की कुंडलिया है।
जो बतरस मा सीखा जाना हम वहै तिनुक छलकाइति है।
गंगा सरजू गोमती तीर केतने मनइन की बढ़ी भीर।
हमरी स्वांसा मा धड़कति हैं, दाउद, महमद, तुलसी, कबीर।
जीकी कनिया मा बड़े भयेन वहि तन की माटी अवधी है।
जौनी बोली मा बोल फूट वहिकी परिपाटी अवधी है।
बिटिया हिन्दी की चाल देखि हम मनहे मन मुस्काइत है।
गोरखबानी की बानी मा कासी की कुटिल रवानी मा।
रविदास घिसैं जेहिमा चमड़ा गंगा जल भरी कठौती मा।
जौनी माटी मा लेथरे हन, जेहिमा पावा फल फूल नाजु।
सरजू का तट वा रामकथा मनमा ब्यापी है कहूँ आजु।
हम जब कबहूँ बिल्लाइति है घरु गाँव देखिकै आइति है॥
- पुस्तक : भाखा की गठरी (पृष्ठ 62)
- रचनाकार : भारतेन्दु मिश्र
- प्रकाशन : परिकल्पना, दिल्ली
- संस्करण : 2025
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