आत्मपरिचय

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हरिवंशराय बच्चन

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आत्मपरिचय

हरिवंशराय बच्चन

और अधिकहरिवंशराय बच्चन

    मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,

    फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;

    कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर

    मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ!

    मैं स्नेह-सूरा का पान किया करता हूँ,

    मैं कभी जग का ध्यान किया करता हूँ,

    जग पूछ रहा उनको,जो जग की गाते,

    मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!

    मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,

    मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;

    है यह अपूर्ण संसार मुझको भाता

    मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!

    मैं जला ह्रदय में अग्नि दहा करता हूँ,

    सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;

    जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,

    मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!

    मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,

    उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,

    जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,

    मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!

    कर यत्न मिटे सब,सत्य किसी ने जाना?

    नादान वहीं है,हाय,जहाँ पर दाना!

    फिर मूढ़ क्या जग, जो इस पर भी सीखे?

    मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!

    मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,

    मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;

    जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,

    मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!

    मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,

    शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,

    हों जिस पर भूषों के प्रसाद निछावर,

    मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।

    मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,

    मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;

    क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,

    मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!

    मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,

    मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;

    जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,

    मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!

    स्रोत :
    • पुस्तक : आरोही (पृष्ठ 5)
    • रचनाकार : हरिवंशराय बच्चन
    • प्रकाशन : एन सी ई आर टी
    • संस्करण : 2022-2023

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