अरुणोदय
(15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में रचित)
नई ज्योति से भीग रहा उदयाचल का आकाश,
जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास।
है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है,
जय हो, कि स्वर्ग से छूट रही आशिष की ज्योतिधारा है।
बज रहे किरण के तार, गूँजती है अंबर की गली-गली,
आकाश हिलोरें लेता है, अरुणिमा बाँध धारा निकली।
प्राची का रुद्ध कपाट खुला, ऊशा आरती सजाती है,
कमला जयहार पिन्हाने को आतुर-सी दौड़ी आती है।
जय हो उनकी, कालिमा धुली जिनके अशेष बलिदानों से,
लाली का निर्झर फूट पड़ा जिनके शायक-संधानों से।
परशवता-सिंधु तरण करके तट पर स्वदेश पग धरता है,
दासत्व छूटता है, सिर से पर्वत का भार उतरता है।
मंगल-मुहूर्त; रवि! उगो, हमारे क्षण ये बड़े निराले हैं,
हम बहुत दिनों के बाद विजय का शंख फूँकनेवाले हैं।
मंगल-मुहूर्त्त; तरुगण! फूलो, नदियो! अपना पय-दान करो,
जंज़ीर तोड़ता है भारत, किन्नरियो! जय-जय गान करो।
भगवान साथ हों, आज हिमालय अपनी ध्वजा उठाता है,
दुनिया की महफ़िल में भारत स्वाधीन बैठने जाता है।
आशिष दो वनदेवियो! बनी गंगा के मुख की लाज रहे,
माता के सिर पर सदा बना आज़ादी का यह ताज रहे।
आज़ादी का यह ताज बड़े तप से भारत ने पाया है,
मत पूछो, इसके लिए देश ने क्या कुछ नहीं गँवाया है।
जब तोप सामने खड़ी हुई, वक्षस्थल हमने खोल दिया,
आई जो नियति तुला लेकर, हमने निज मस्तक तोल दिया।
माँ की गोदी सूनी कर दी, ललनाओं का सिंदूर दिया,
रोशनी नहीं घर की केवल, आँखों का भी दे नूर दिया।
तलवों में छाले लिए चले बरसों तक रेगिस्तानों में,
हम अलख जगाते फिरे युगों तक झंखाड़ों, वीरानों में।
आज़ादी का यह ताज विजय-साका है मरनेवालों का,
हथियारों के नीचे से ख़ाली हाथ उभरनेवालों का।
इतिहास! जुगा इसको, पीछे तस्वीर अभी जो छूट गई,
गाँधी की छाती पर जाकर तलवार स्वयं ही टूट गई।
जर्जर वसुंधरे! धैर्य धरो, दो यह संवाद विवादी को,
आज़ादी अपनी नहीं; चुनौती है रण के उन्मादी को।
हो जहाँ सत्य की चिनगारी, सुलगे, सुलगे, वह ज्वाल बने,
खोजे अपना उत्कर्ष अभय, दुर्दांत शिखा विकराल बने।
सबकी निर्बाध समुन्नति का संवाद लिए हम आते हैं,
सब हों स्वतंत्र, हरि का यह आशीर्वाद लिए हम आते हैं।
आज़ादी नहीं, चुनौती है, है कोई वीर जवान यहाँ?
हो बचा हुआ जिसमें अब तक मर मिटने का अरमान यहाँ?
आज़ादी नहीं, चुनौती है, यह बीड़ा कौन उठाएगा?
खुल गया द्वार, पर, कौन देश को मंदिर तक पहुँचाएगा?
है कौन, हवा में जो उड़ते इन सपनों को साकार करे?
है कौन उद्यमी नर, जो इस खंडहर का जीर्णोद्धार करे?
माँ का अंचल है फटा हुआ, इन दो टुकड़ों को सीना है,
देखें, देता है कौन लहू, दे सकता कौन पसीना है?
रोली, लो उषा पुकार रही, पीछे मुड़कर टुक झुको-झुको
पर, ओ अशेष के अभियानी! इतने पर ही तुम नहीं रुको।
आगे वह लक्ष्य पुकार रहा, हाँकते हवा पर यान चलो,
सुरधनु पर धरते हुए चरण, मेघों पर गाते गान चलो।
पीछे ग्रह और उपग्रह का संसार छोड़ते बढ़े चलो,
करगत फल-फूल-लताओं की मदिरा निचोड़ते बढ़े चलो।
बदली थी जो पीछे छूटी, सामने रहा, वह तारा है,
आकाश चीरते चलो, अभी आगे आदर्श तुम्हारा है।
निकले हैं हम प्रण किए अमृत-घअ पर अधिकार जमाने को,
इन ताराओं के पार, इंद्र के गढ़ पर ध्वजा उड़ाने को।
सम्मुख असंख्य बाधाएँ हैं, गरदन मरोड़ते बढ़े चलो,
अरुणोदय है, यह उदय नहीं, चट्टान फोड़ते बढ़े चलो।
- पुस्तक : स्वतंत्रता पुकारती (पृष्ठ 286)
- संपादक : नंद किशोर नवल
- रचनाकार : रामधारी सिंह दिनकर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2006
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