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अराजक

arajak


अनिल कार्की के लिए

पहाड़ से उतरकर जब हम
समतल मैदानों पर पहुँचे
देखा कि
यहाँ सड़क ज़्यादा लंबी और चौड़ी है
दूर क्षितिज पर ठहरा प्रतीत होता वाहन भी
उन्नत दौड़ में माहिर
कोसों फैली सभ्यताओं को थामे
कोरी हवाओं से गुज़रता हुआ
किसी के लिए नहीं रुकता
फिर फ़लाँ आदमी भी क्यों रुके?
जब उसे मिल रहा हो
बेतरतीब लसलसा उन्मादी गोश्त
वह सहज ही लेता है भाग विमर्शों में
अपनी ही ढिबरी पर माचिस से लगाता है आग
और दुनिया भर के गोबर-ज्ञान-उपलों को
चिपकाना चाहता है
दूसरों की देह से
और बना रहना चाहता है
अद्वितीय
स्मरणीय

जो स्वीकारे जाने को योग्य
पर स्वभाव में अराजक
यही ख़ुराफ़ात उसे
अब ले आई पहाड़ों की ओर
ताकि भर सके पहाड़ की देह को
अपनी अभद्र महक से

विभिन्न सामाजिक सभ्यताओं में
पुरुषत्व का भाव रहा—अराजक
स्त्रीत्व को माना गया—स्थायी
और स्थायी के मर्म पर
अराजक ने उठाई
हमेशा ही उँगलियाँ
मैदानों से संपर्क से पहले
पहाड़ स्थायी था
अब हो चुका है
अराजक
स्रोत :
  • रचनाकार : हिमांशु विश्वकर्मा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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