अंतर्द्वंद्व

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प्रखर शर्मा

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अंतर्द्वंद्व

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    एक जाल है मेरे भीतर

    जिसमें बिंधा हुआ मैं

    निहार रहा हूँ चारों तरफ़।

    जाल की जकड़न समय दर समय

    मेरे शरीर को पीड़ित कर रही है।

    मेरी आत्मा का मन पड़ा है

    एक गहरे द्वंद्व में

    मुझे निहार रहा है।

    कोई मेरे शरीर की नसों को

    तकिए में भरी रुई की तरह उधेड़ रहा है

    मैं बस चीख़ने के क्रम में हूँ...

    आऽऽऽऽऽआऽऽऽऽऽ (मैंने चीख़ा)

    यह क्या! मेरी आवाज़ ग़ायब?

    मुझे कोई सुन क्यों नहीं रहा?

    क्या मैं गूँगा हो गया हूँ?

    नहीं-नहीं... मेरी हँसी सुनी जा सकती है।

    हँस तो रहे हैं सब चेहरे को देखकर

    मुझे देख-देख बना रहे अपना चेहरा

    तब सुनी क्यों नहीं

    किसी ने मेरी चीख़

    देखता ही नहीं कोई

    माथे की लकीरें, चेहरे की सिकुड़न

    बढ़ती ही जा रही जाल की जकड़न

    अजीब-सी उलझन है

    कहाँ जाऊँ? क्या करूँ?

    भला हँस के कैसे कही जाएँ दुख की बातें...?

    इतने में देखा तो

    पीला पड़ रहा है सभी लोगों का चेहरा

    सब दीख रहे मुझे अपने जैसे ही

    क्या मुझे मिली कहीं कोई दिव्यदृष्टि है?

    या दिख रहे मेरी ही आत्मा के प्रतिबिंब सबमें।

    नहीं-नहीं, यह पीला पड़ा चेहरा

    जो मुझे दे रहा दिखाई

    वे लोगों की आत्मा के चेहरे हैं

    स्वच्छ और पवित्र हैं, पीले हैं, दुखी हैं।

    सब एक जैसे हैं परंतु सब अलग-अलग।

    मेरे जैसी ही संवेदनाएँ उनमें भी भरी हैं।

    बढ़ती ही जा रही जाल की जकड़न।

    क्या ये आत्मा से मरे हुए लोग हैं?

    जो गहन से गहनतम पीड़ा में हँस रहे

    क्या ये प्रौढ़ हो चुके हैं पीड़ा को लेकर?

    या इन्हें डर है

    कहीं हो जाए इनके असली व्यक्तित्व की पहचान

    कहीं ढह जाए इनके थर्माकोली अस्तित्व का मकान

    बड़ा गड़बड़झाला है।

    बढ़ती ही जा रही जाल की जकड़न।

    भीतर ही भीतर

    रक्त सूख रहा उनका

    धमनियों में खिंचाव है

    यकृत पड़ रहा ढीला

    हँसते हुए दुख रहा पेट

    फिर भी हँस रहे

    हिम्मत ही नहीं कि कह दें एक बार भी—

    दुःख, दर्द, पीड़ा।

    और हो जाएँ—स्वस्थ।

    नहीं-नहीं, मैं क्यों उत्कंठित हूँ यह सब जानने को

    क्या मिलेगा ही मुझे, क्या खो जाएगा

    बढ़ती ही जा रही जाल की जकड़न।

    देख रहा दशों दिशाएँ, आठों नक्षत्र, सूर्य, चंद्र, सागरपर्यंत।

    कोई नहीं मिला मुझे, कहीं नहीं मिला मुझे

    कोई एक साथी,

    जिससे मैं कह सकूँ आत्मा के मन की बात

    बोल दूँ कुछ भी अच्छा-भद्दा

    जो जुड़े, सब जुड़े स्वार्थवश-परमार्थवश।

    बढ़ती ही जा रही जाल की जकड़न।

    यह क्या! मेरी ही नसों से बना है

    यह जाल।

    जो लिए है गिरफ़्त में मुझे हर तरफ़ से

    शरीर ऐंठ रहा है, रक्त जल रहा है।

    लग रहा जैसे मेरे चुप रहने से उपजी आत्माग्नि

    जला ही देगी मुझे, मार ही डालेगी।

    फिर कि अचानक याद आती वही बात

    एक बार हँस दूँ मैं भी

    दिखा दूँ जाली वेदना और पहुँचूँ

    उसी तथाकथित वस्तुनिष्ठ दुनिया में

    जहाँ कुछ देता है सुनाई और ही दिखाई।

    या कस जाऊँ इस दुःख रूपी जाल में

    और हो जाऊँ मुक्त सदा-सदा के लिए।

    सहसा निकली चीख़ की विवृत ध्वनि

    (खुल गया जाल, कण-क्षण प्रकाशमान)

    सहमें है सभी लोग

    एक-एककर डर सबमें से निकल रहा

    धीरे-धीरे चीख़ के बढ़ने लगे हैं स्वर

    मिला रहे हैं अपनी चीख़, मेरी चीख़ से

    धुन बन रही कोई, शायद यह—भैरवी

    ऊषा भी दिख रही है गगनमंडल में

    बादल की रोशनाई धीरे-धीरे छँट रही

    मिल रही मुझे जीत, सब हो रहे एक

    बाँट रहे सुख-दुख, चीख़—चुप।

    क्या यह दिवा है या कोई स्वप्न है

    नहीं-नहीं, यह तो...यह तो

    अत्याधुनिक समय और समाज में

    घट रहे मनुष्य का

    सबसे मुकम्मल प्रतिबिंब है।

    जो फँसा है—

    अंतर्द्वंद्व के जाल में।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रखर शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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