अंकुरित होने लगे हैं हादसे

ankurit hone lage hain hadse

दिव्या श्री

दिव्या श्री

अंकुरित होने लगे हैं हादसे

दिव्या श्री

और अधिकदिव्या श्री

    रोज़-रोज़ के हादसों से तंग गई हूँ मैं

    तुम्हारे तोहफ़े देने के तरीक़े थोड़े अजीब हैं

    अब मैं जीवित रह गई हूँ कविता के शब्द मात्र बनकर

    दुःख है कि मैंने अपना प्रेम एक ऐसे व्यक्ति को सौंपा

    जिसे छल से भी प्रेम करना आया कभी

    मैं एक अड़ियल लड़की

    जीवन में आए हर हादसे को पीछे छोड़ जीती रही

    ज़िंदगी में कई बार बेमौत मारी गई

    पर आँखों में मौत की परछाईं तक मिली कभी

    मेरे प्रेम! अब तुम मेरे जीवन में वह बीज बन गए हो

    जिससे रोज़-रोज़ अंकुरित होने लगे हैं हादसे

    कई हादसे जीवन भर संग रहते हैं

    मेरी ख़्वाहिश थी तुम्हारे संग जीने की

    इन हादसों के संग नहीं

    कितनी बार टूटी हूँ सँभल-सँभलकर

    अब सँभलना टूटने से अधिक घातक है

    प्रेम में रूठना एक प्रिय शग़ल हो सकता है,

    पर टूटना... उतना ही अप्रिय

    तुम कैसे हो आजकल ख़ुद से ही पूछती हूँ

    तुम्हारे बेहतर होने की प्रार्थना मन ही मन बुदबुदाती हूँ

    पेड़ों, पहाड़ों, नदियों सबकी ख़ामोशी में एक आलाप है

    तुम्हारे मौन का चीत्कार है

    मैं कैसे माफ़ कर दूँ तुम्हें

    इससे पहले कि मुझे ख़ुद को माफ़ करना होगा

    दुःख है कि मैं माफ़ीनामा नहीं, कविता लिखती हूँ

    मुझे माफ़ करने से पहले मुक्ति चाहिए

    मेरे ईश्वर! मेरी कविता को ही मेरा माफ़ीनामा समझकर

    मुझे माफ़ कर दे

    ताकि मैं मुक्त होकर

    उसे माफ़ कर सकूँ हमेशा के लिए

    प्रेम में माफ़ करना यात्रा की आख़िरी मंज़िल है

    मैं उससे थोड़ा पीछे ठिठकी कविता लिख रही हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दिव्या श्री
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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