अँधेरे का पाठक

andhere ka pathak

श्याम परमार

श्याम परमार

अँधेरे का पाठक

श्याम परमार

और अधिकश्याम परमार

    बात यह है कि मैं अपने अँधेरे की सीढ़ियों पर

    तुम्हें भटकने के लिए क्यों छोड़ दूँ

    अँधेरा मेरा है

    सीढ़ियाँ मेरी हैं

    और उनसे आगे और भी गहरे में

    मेरा 'और' है

    'और' की तलाश में मेरे शब्दों और वाक्यों के संदर्भ

    तुम्हारे लिए अजूबा होंगे या होंगे महज़ धोखा

    बात यह है कि मैं तुम्हें उस धोखे में

    क्यों रक्खूँ

    जबकि तुम मुझे सिर्फ़ उन्हीं रास्तों से जानना चाहते हो

    जिन पर उजाला है

    मेरे अँधेरे की सीढ़ियाँ मेरी हैं

    वे तुम्हारी हो ही नहीं सकतीं

    और उनके आगे का 'और' तो मेरा

    बिल्कुल ही अपना है

    वही मेरा बल है

    जो रेशे-रेशे में बिखरकर मुझे अंदर ही अंदर

    जाने कहाँ ले जाता है :

    अणु जैसे टूटता है और फिर टूटता है

    कुछ वैसा ही मेरी शक्ति का हर रेशा

    विभाजित होता है

    उस हालत में कभी-कभी मैं

    एक खुले हुए मैदान में होता हूँ

    कितनी अजीब बात है

    कि खुले में आने से पहले

    मैं अँधेरे के अँधेरे में

    बार-बार अपने पाँव तोड़ता हूँ

    जाने कितनी बार जाने कहाँ-कहाँ

    मुझे चोटें आती हैं

    जाने कितने घाव बनते हैं...

    मगर छोड़ो इस बात को

    तुम्हें समझाने के लिए

    मैं इस दिशा में पहल ही क्यों करूँ

    मेरी कोशिश का नतीजा यह होगा

    कि कविता तुम्हारे लिए और भी दूर हो जाएगी

    उसकी नसों का तनाव तुम्हारे लिए तब तो

    और भी बेकार होगा

    तुम जानकर भी क्या कर पाओगे

    क्योंकि यह गिरफ़्त ही अजीब है

    इसमें यह भी होता है कि शब्दों की किरचें

    जिस्म को अक्सर इतना उधेड़ डालती हैं

    कि आपस की पहचान भी मुश्किल हो जाती है

    शब्दों के इस्तेमाल में

    बेचैनी कुछ इतनी अधिक होती है

    कि तुम हद तक शब्दों के ही होकर रह जाते हो

    क्योंकि तुम्हारे माथे में पड़ा हुआ दिमाग़

    उस वक़्त किसी और की हथेली पर होता है

    तुम तो निहायत ईमानदारी से किताबों के रास्ते

    कविता के क़रीब पहुँचे हो

    मगर बात यह है कि अब

    तुम्हारी पहुँच और मेरी कविता के बीच

    बहुत-सी सड़कें बन गई हैं

    ओर उन सड़कों के बीच पिछले बीस सालों में

    कई गड्ढे हो गए हैं

    इसीलिए अच्छा तो यह है

    जब तुम्हें कुछ भी ऊटपटाँग लगे

    तब उसके लिए व्यर्थ की परेशानी मत उठाओ

    (मान लो सब बकवास है)

    उसे तौलो मत, नापो

    पहचानने की कोशिश में दौड़ लगाओ

    कविता को वैसा ही छोड़ दो

    जैसे अख़बार की कई ख़बरों के शीर्षक पढ़कर

    तुम आगे बढ़ जाते हो

    या पूरा पन्ना ही उलट देते हो

    होता यह है उसे कोई और पढ़ता है

    उसने भी नहीं पढ़ा तो कोई और पढ़ता है

    मगर उसे कोई पढ़ता ज़रूर है

    सचाई यह है कि वही उसमें से कुछ पकड़ लेता है

    और जो सबसे अधिक उसमें के अँधेरे को

    अपने अँधेरे के साथ मिला पाता है

    वही मेरी कविता से होकर

    मेरे पास जाता है

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध (पृष्ठ 98)
    • संपादक : जगदीश चतुर्वेदी
    • रचनाकार : श्याम परमार
    • प्रकाशन : ज्ञान भारती प्रकाशन

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