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आज तुम शब्द न दो

aaj tum shabd na do

अज्ञेय

अन्य

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अज्ञेय

आज तुम शब्द न दो

अज्ञेय

और अधिकअज्ञेय

    आज तुम शब्द दो, दो, कल भी मैं कहूँगा।

    तुम पर्वत हो अभ्र-भेदी शिला-खंडों के गरिष्ठ पुंज

    चाँपे इस निर्झर को रहो, रहो,

    तुम्हारे रंध्र-रंध्र से तुम्हीं को रस देता हुआ फूट कर मैं बहूँगा।

    तुम्हीं ने दिया यह स्पंद

    तुम्हीं ने धमनी में बाँधा है लहू का वेग यह मैं अनुक्षण जानता हूँ।

    गति जहाँ सब कुछ है, तुम धृति पारमिता, जीवन के सहज छंद

    तुम्हें पहचानता हूँ।

    माँगो तुम चाहे हो : माँगोगे, दूँगा; तुम दोगे जो मैं सहूँगा।

    आज नहीं, कल सही

    कल नहीं, युग-युग बाद ही :

    मेरा तो नहीं है यह

    चाहे वह मेरी असमर्थता से बँधा हो।

    मेरा भाव-यंत्र? एक मड़िया है सूखी घास-फूस की

    उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान—

    साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो।

    आज नहीं, कल सही

    चाहूँ भी तो कब तक छाती में दबाए यह आग मैं रहूँगा?

    आज तुम शब्द दो, दो—कल भी मैं कहूँगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 60)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : अज्ञेय
    • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
    • संस्करण : 1997

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