आधुनिक कला की मनोवृत्ति

adhunik kala ki manowritti

प्रोफ़ेसर रामचंद्र शुक्ल

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आधुनिक कला की मनोवृत्ति

प्रोफ़ेसर रामचंद्र शुक्ल

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    लोगों का ख़याल है कि “कला में आनंद पाना सार्वजनिक नहीं है और इसमें आनंद उसी को मिल सकता है जो स्वयं कलाकार है या जिसने थोड़ा-बहुत कला का अध्ययन किया है। कला में प्रवीणता या उसमें रस पाना एक ईश्वरीय वरदान है। यह कथन और भी सत्य प्रतीत होता है जब हम देखते हैं कि आधुनिक समाज में कला को कोई स्थान नहीं। कलाकार जीवन भर रचना का कार्य करता है पर अक्सर वह समाज में अपना स्थान नहीं बना पाता, न समाज उसके परिश्रम का मूल्य ही देता है। कला की साधना कलाकार के लिए जीवन से लड़ना है। कितने ही कलाकार अपने लहू से रचना करके मिट गए पर समाज उन्हें जानता तक नहीं, उनकी कला का रस लेना तो दूर रहा। ऐसा समाज यह भी कहता है कि कला एक साधना है जिसके लिए मर मिटना कलाकार का कर्तव्य है। बिना बलिदान के कला प्राप्त नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, लोगों का विश्वास है कि कलाकार उच्च रचना तभी कर सकता है जब दुनिया भर का दुख वह भोग ले और तड़पन की ज्वाला में भुजता हुआ जब उसके मुँह से आह निकलने लगे, तभी वह सफल रचना कर सकता है। शायद ऐसा समाज इस आह में सबसे अधिक रस पाता है। रोम का शासक विख्यात नीरो सबसे महान व्यक्ति था और उसे कला की सबसे ऊँची परख थी, इसीलिए वह मनुष्यों को ख़ूँख़ार भूखे शेरों के कटघरों में डालकर उन व्यक्तियों के मुँह से निकले हुए ‘आह!’ का रसास्वादन सुनहले तख़्त पर बैठकर शराब की चुस्कियाँ लेता हुआ करता था, और तारीफ़ यह कि वह उसका आनंद लेने के लिए अपने समाज के अन्य व्यक्तियों को भी निमंत्रित करता था और हज़ारों की तादाद में लोग इकट्ठा होकर इस ‘आह!’ का रसास्वादन करते थे।

    ज़रा कल्पना कीजिए कि यदि आप कलाकार होते और नीरो के राज्य में जीवन-निर्वाह करते होते और एक दिन शेर के कटघरे में आपको डाल दिया जाता और जब शेर ने आपकी छाती में अपना नुकीला पंजा चुभाया होता और नीरो आपको कविता पाठ करने की आज्ञा देता तो आपकी क्या दशा होती। नीरो तो एक व्यक्ति था, कभी-कभी सारा समाज नीरो बन जाता है, ऐसे समय कला की क्या रचना होगी इसकी कल्पना आप कर सकते हैं।

    यह सत्य है कि भावों के उद्वेग में ही कला की उत्पत्ति होती है, परंतु भाव से कलाकार पैदा नहीं होते, कलाकार भाव पैदा करते हैं। एक भूखे से पूछिए कला कहाँ है तो कहेगा रोटी में, एक अंधे से पूछिए, तो कहेगा अँधेरे में, राजा कहेगा महलों में और रंक कहेगा झोपड़ी में, राजनीतिज्ञ कहेगा राजनीति में, धार्मिक कहेगा धर्म में। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति की जैसी दशा होगी उसी रूप में वह अपने वातावरण को समझेगा; जिस प्रकार लाल चश्मा लगा लेने पर सारी दुनिया लाल दीखती है। यह चश्मा कला का गला घोटता है, सत्य पर पर्दा डाल देता है। सच्चा कलाकार वही है जो इस चश्मे को उतार फेंकता है और पैनी आँखों से सत्य की ओर देखता है। कलाकार भाव का ग़ुलाम नहीं होता, भाव कलाकार का ग़ुलाम होता है। इसी प्रकार वह रचना जो चश्मे के आधार पर हुई है, वह कभी सफल तथा सत्य या सुंदर नहीं कही जा सकती है। सच्ची कला की रचना तब होती है जब कलाकार कमल की भाँति कीचड़ में रहकर भी कीचड़ से ऊपर होता है और ऊपर रहकर भी अपनी जड़ उसी कीचड़ में रखता है और उससे भी अपनी ख़ुराक लेता है। अर्थात् सच्चा कलाकार वह है जो नीचे रहकर भी ऊपर को जान लेता है और ऊपर होकर भी नीचे को पहिचानता है, वह समदर्शी होता है। वह भावों का ग़ुलाम नहीं होता, भावों को वह पैदा करता है।

    किसी विख्यात कथाकार से जब पूछा गया कि प्रेम-संबंधी कथा साहित्य का निर्माण सबसे अच्छा किस समय होता है तो उसने कहा, जब कथाकार ने प्रेम करना छोड़ दिया हो। जिस समय कथाकार स्वयं प्रेम में अंधा रहता है, उस समय यदि वह प्रेम पर कुछ लिखे तो वह प्रेम की सच्ची अनुभूति का वर्णन नहीं कर सकता क्योंकि उस समय वह प्रेम में अंधा भी हो सकता है। जब कथाकार प्रेम कर चुकता है, उससे काफ़ी अनुभव प्राप्त कर चुकता है, और स्वयं हृदय तथा मस्तिष्क से किए हुए अनुभव पर पुनः मनन करता है, तब उसे सच्ची अनुभूति प्राप्त होती है और उसकी रचना स्वस्थ तथा सुंदर होती है, क्योंकि अब प्रेम का ग़ुलाम कथाकार नहीं है बल्कि कथाकार का ग़ुलाम प्रेम है। कथाकार प्रेम में अंधा होकर नहीं लिख रहा बल्कि प्रेम से ऊपर होकर प्रेम पर शुद्ध रूप से विचार कर रहा है। इसी प्रकार क्षणिक भावावेश में आकर बिना भली-भाँति मनन किए उत्कृष्ट रचना नहीं हो सकती और अगर ऐसे समय रचना होती है तो वह सुदृढ़ नहीं हो सकती। इस प्रकार यह समझना कि सच्ची कला की रचना उसी समय हो सकती है जब कलाकार भूखा हो, दरिद्र हो और दुनिया की मुसीबतों से जर्जरित हो गया हो, नितांत मूर्खता है। ऐसी भावना उन्हीं लोगों की होती है जो कलाकार से उसी प्रकार की ‘आह!’ सुनने को उत्सुक होते है जिसे नीरो मनुष्य को शेर के कटघरे में डाल कर सुनता था।

    सच्ची और उत्कृष्ट कला की रचना उसी समय हो सकती है जब कलाकार के मन, मस्तिष्क में और शरीर में सुडौलता रहती है। यदि एक कलाकार जिसको हज़ार कोशिश करने पर भी दोनों समय का खाना नहीं जुटता, कविता की रचना करना चाहे तो उसके मन में सुडौलता कभी नहीं रह सकती, या तो वह भूख तड़पन से पीड़ित रचना करेगा और समाज के अन्य व्यक्तियों के प्रति आग उगलेगा या जिस प्रकार भूखा कुत्ता किसी को कुछ खाते देखकर जीभ हिलाता है और लार टपकाता रहता है, दया का पात्र बनेगा, दूसरों को कुछ देना तो दूर रहा।

    सच्ची कला की रचना उसी समय हो सकती है जब कलाकार सुखी और संपन्न हो, हृष्ट-पुष्ट हो, सुडौल विचार वाला हो, समाज से घृणा न करता हो, किसी के प्रति द्वेष न हो, जीवन का मूल्य समझता हो। इसका यह तात्पर्य नहीं कि आज तक जितने उत्कृष्ट कलाकार हुए है उनको यह सब प्राप्त था, मेरा तो यह कहना है कि अगर उनको यह सब भी प्राप्त होता तो और भी ऊँची कला का निर्माण हुआ होता और आज उनकी देन से हमारा समाज और ऊँची तथा सुडौल परिस्थिति में होता। कलाकार एक घड़े के समान है। जैसा जिसका घड़ा होता है, संसार से वह उतना ही उसमें भर पाता है। अगर घड़ा टेढ़ा-मेढ़ा है, फूटा हुआ है, तो उसमें क्या रह सकेगा, यह साफ़ है। सुडौल, मज़बूत तथा बड़ा घड़ा ही अपने अंदर कोई बडी वस्तु रखने की कल्पना कर सकता है।

    इस प्रकार उत्कृष्ट रचना के लिए यह आवश्यक है कि कलाकार हर प्रकार से सुडौल हो, विशाल व्यक्तित्व वाला हो। उसे किसी प्रकार की लालसा न हो, अर्थात् बनारसी भाषा में ‘मस्त’ रहने वाला हो। इसी मस्ती में ही कुछ रचना की उम्मीद की जा सकती है। कलाकार चिंता से रहित हो। एक योगी के समान हो जिसे कुछ पाने की लालसा न हो अपितु समाज को कुछ देने की क्षमता हो। वह अपने लिए चिंतित न हो बल्कि समाज की शुभ कामना करता हो। समाज का व्यक्ति होते हुए भी समाज के दायरे से ऊपर उठकर समाज का निरीक्षण कर सकने की क्षमता रखता हो। अपने को अकेला न समझे बल्कि घट-घट में व्याप्त होने की क्षमता रखता हो। अपनी भावनाओं में बहने वाला न हो बल्कि दूसरों के भावों में प्रवेश करने की क्षमता हो। अपना दर्द लिए समाज को दर्दीला न बनावे बल्कि समाज के दर्द में रोने वाला हो। अपनी ख़ुशी में मस्त न हो बल्कि समाज की ख़ुशी में हिस्सा लेने वाला हो। समाज के साधारण व्यक्ति के समान मुसीबतों में रोने वाला न हो बल्कि समाज का पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता रखता हो।

    संसार में जीव जो कुछ करता है, सुख पाने की लालसा से करता है। सुख की वृद्धि के लिए ही समाज भी बनता है। जब व्यक्ति अकेले सुख प्राप्त करने में बाधाएँ देखता है तब उसे समाज की शरण लेनी पड़ती है। समाज से उसे बल मिलता है। समाज की शक्ति उसे अधिक सुख की प्राप्ति करने में सहायक होती है। मनुष्य बाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्था तक समाज पर आश्रित रहता है। वह जो कुछ सीखता है, अनुभव करता है या प्राप्त करता है उसका आधार समाज ही होता है। व्यक्ति समाज का एक अंग है जो समाज के द्वारा पोषित होता है। व्यक्ति का जो स्वरूप बनता है वह उसका अपना रूप नहीं है और अगर है तो बहुत थोड़ा-सा, अधिकतर समाज का ही दिया हुआ हिस्सा होता है। समाज यदि जननी है तो व्यक्ति उसका बालक। जिस प्रकार बालक माता-पिता के गुणों को संचित कर आगे बढ़ता है, उसी प्रकार व्यक्ति समाज के गुणों को संचित करता है। मेंढ़क का बच्चा मेंढ़कों-सा ही व्यवहार सीखता है और मेंढ़कों के ही समाज में रहना चाहता है। वह उनसे कभी अलग हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार व्यक्ति सब कुछ समाज से ही सीखता है और उसी का व्यवहार करता है, अपने जीवन में। उसके किसी व्यवहार को हम असामाजिक व्यवहार नहीं कह सकते, क्योंकि वह समाज का ही बनाया हुआ है, और उसके उचित या अनुचित कार्यों का उत्तरदायित्व भी उसी समाज पर है, जिसका वह एक अंग है।

    जब व्यक्ति समाज का ही बनाया हुआ है, समाज पर ही आश्रित रहता है, तब यह कहा जा सकता है कि उसे अपनी सारी शक्ति का उपयोग समाज के हित तथा प्रगति के लिए ही करना चाहिए। यही उचित है और न्याय-संगत है। जब हम किसी से लेते हैं, तो उतना ही उसे देना भी चाहिए। अगर यह ठीक है तो व्यक्ति समाज को उतना ही दे सकता है जितना पाया है। कलुषित समाज में पैदा हुआ तथा पला-पोसा व्यक्ति समाज को कालिमा ही देगा, यह स्वाभाविक है। मेंढ़क मेंढ़कों से पैदा होकर तथा तालाब के वातावरण में रहकर वही कार्य कर सकेगा जो अन्य मेंढ़क करते है और जो तालाब के वातावरण में हो सकता है; मेंढ़क न घड़ियाल बन सकता है, न तालाब का स्वच्छ कमल। उसका आचरण सदैव मेंढ़को का ही होगा। परंतु मेंढ़क और मनुष्य में अंतर माना गया है। अंतर है मस्तिष्क का। मस्तिष्क की शक्ति अपार है, कल्पना से भी अधिक। मनुष्य का मस्तिष्क भी मनुष्य का ही मस्तिष्क है, उसी दायरे में है, उससे परे नहीं है। मनुष्य वही कर सकता है जो मनुष्य की क्षमता के अंदर है, जिस प्रकार मेंढ़क तालाब में रहकर वही कर सकता है जो मेंढ़कों की क्षमता के भीतर है। अब प्रश्न यह है कि मनुष्य की क्षमता क्या है और कितनी है? कभी-कभी तो मनुष्य की क्षमता को भी अपार माना गया है। यह क्षमता क्या है और कहाँ से आती है, समझ में नहीं आता। जो भी हो, साधारण दृष्टि से मनुष्य की क्षमता वही हो सकती है जो मनुष्य की क्षमता है, मनुष्य अपनी शक्ति का उपयोग भी समाज में ही करता है; समाज से जो लिया है उसे समाज को ही देना है।

    इस विचार से कला, कला के लिए है—यह न्याय-संगत नहीं मालूम पड़ता। कला मनुष्य का कार्य है, एक शक्ति है। मेंढ़कों का कूदना, फुदकना, टर्र-टर्र करना भी एक प्रकार की कला है, और जिस प्रकार उसकी इस कला का उपयोग उसके लिए तथा उसके समाज के अन्य मेंढ़कों के लिए है, उसी प्रकार मनुष्य की कला का उपयोग भी उसके लिए तथा केवल मनुष्य के समाज के लिए ही है। मनुष्य की कला मेंढ़कों के लिए नहीं हो सकती, उसका उपयोग मनुष्य के समाज के लिए ही है। मेंढ़कों ने फुदकना तथा टर्र-टर्र करना मेंढ़कों से ही सीखा है। उसकी इस कला का गुरु उसके माता-पिता तथा उसका मेंढ़कों का समाज ही है। इसी प्रकार मनुष्य भी कलाओं को अपने समाज से ही सीखता है, कला का कार्य करने की प्रेरणा भी उसे अपने सामाजिक जीवन की अनुभूतियों से ही प्राप्त होती है। उसकी कला का रूप उसकी अनुभूति ही होती है, फिर ‘कला, कला के लिए है’—यह कैसे कहा जा सकता है? लेकिन 'कला, कला के लिए है’, यह विचार बड़ा प्राचीन है और इसमें विश्वास करने वाले आज भी बहुत हैं। आधुनिक पिकासोवाद, सूक्ष्मवाद, क्यूबिज़म, सर्रियलिज़म इत्यादि सभी को ‘कला, कला के लिए है’ से प्रभावित कहा जा सकता है, क्योंकि इन सभी प्रकार की शैलियो में सामाजिक चित्रण बहुत कम मिलता है और मिलता भी है तो ज़ोर अन्य वस्तुओं पर दिया होता है, ख़ासकर रूप तथा रंग पर। ऐसे चित्रों मे विषय गौण रहता है। इन चित्रों का आनंद साधारण समाज नहीं ले पाता, परंतु कलाकार इसमें बहुत आनंद पाता है। ऐसे कलाकारों से लोग शिकायत करते हैं कि उनके यह चित्र जनता की समझ में नहीं आए। उस पर आधुनिक कलाकार चुप रहता है और इसकी चिंता नहीं करता कि उसके चित्र समाज को पसंद हैं या नहीं। ऐसी स्थिति में ही कला को कला के लिए समझा जाता है। कलाकार समाज का ख़याल करता हुआ नहीं दिखाई पड़ता। ऐसी स्थिति को देखकर ही फ़्रांसीसी विचारक लकांत द लिस्ल (Leconte do lisle) ने कहा है—
    ''The tendency of the artist to accept the theory of art for art's sake arises when he finds himself in disaccord with the society in which he lives.''

    “कलाकार उसी समय इस विचार की ओर झुकता है कि 'कला, कला के लिए है’, जब वह अपने को अपने समाज से भिन्न पाता है, अर्थात् जब समाज कलाकार की कृतियों का मूल्य समझने में असफल होता है और कला का आदर करना छोड़ देता है, तब कलाकार निराश होकर कला का कार्य करना ही नहीं छोड़ देता, बल्कि कला की रचना करता जाता है, और उसका आनंद स्वयं लेता है, उसे समाज से प्रशंसा की आशा नहीं रहती। ऐसे समय जब उससे कोई कुछ पूछता है तो वह यह न कहकर कि वह समाज के लिए कला की रचना करता है, कहता है कि वह अपनी रचना कला के लिए करता है, अर्थात् क्योंकि उसे उसमें मज़ा आता है, इसीलिए करता है। वह ऐसा दूसरों को दिखाने के लिए नहीं करता। ठीक भी है उसका ऐसा कहना, क्योंकि अगर वह कहे कि वह अपनी रचना समाज के लिए करता है, तो लोग कहेंगे कि समाज तो उसकी रचना को समझ ही नहीं पाता, न उसका कोई आनंद ही ले पाता है, तब कैसे वह कहता है कि वह अपनी रचना समाज के लिए करता है? इसीलिए कलाकार यही कहना उचित और हितकर समझता है कि कहे 'कला, कला के लिए है’।

    एक बार किसी गाँव का एक धनी व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ पहली बार शहर घूमने आया। बाज़ार में एक दूकान पर बड़ी भीड़ लगी थी और तरह-तरह के स्त्री-पुरुषों की तस्वीरें टँगी थी। दोनों वहीं रुक गए और यह जानने का प्रयत्न करने लगे कि आख़िर माजरा क्या है? एक अन्य देहाती को दूकान से बाहर निकलते हुए देखकर अपनी भाषा में उससे पूछा— का गुरु, काहे का भीड़ लागल बा? बाहर निकलते हुए देहाती ने अपनी तथा अपनी स्त्री का फ़ोटो दिखाकर कहा—गुरु देखअ, कैसन निम्मन बनौलेस हौ। हमारे देहाती की स्त्री इन चित्रों को देखकर अपना फ़ोटो खिंचवाने के लिए मचल पड़ी। दोनों दुकान में गए और फ़ोटो खिंचवाया। फ़ोटो जब हाथ में आई तो सज्जन अपनी स्त्री का चित्र देखकर बड़े प्रसन्न हुए पर जब स्त्री ने अपने पतिदेव का चित्र देखा तो उसे बड़ा अचंभा हुआ। पतिदेव की एक आँख का चित्र में नामोनिशान भी न था। स्त्री ने पति के कान में कुछ कहा। पति ने मारे नाराज़गी के चित्र दुकान पर पटक दिया और कहा—मखौल करत हौवा महराज; वह डंडा संभाल रहा था कि दुकान वाले ने हाथ जोड़ा और दंडवत कर उन्हें किसी तरह विदा किया। समाज के इस देहाती का फ़ोटोग्राफर ने ख़याल नहीं किया, क्योंकि उसने इस देहाती का फ़ोटो खींचा था जिसमें केवल एक ही आँख दिखाई पड़ती है। परंतु उस बेचारे देहाती ने तो यही समझा कि फ़ोटोग्राफर ने उसे काना बना दिया। फ़ोटोग्राफर का चित्र, उसकी मिहनत, उसकी कला सब बेकार हो गई, क्योंकि समाज के देहाती को वह ख़ुश न कर सका। 

    इसी प्रकार एक बार विश्व-विख्यात डच कलाकार रेम्ब्रा (Rembrandt) को किसी खेलाड़ियों की टोली ने अपना ग्रुप चित्रित कराने के लिए ऑर्डर दिया। कई महीनों बाद चित्र तैयार हुआ परंतु खेलाड़ियों को यह चित्र पसंद न जाया। कारण यह था कि रेम्ब्रा अपने चित्रों में छाया का उपयोग अधिक करता था और प्रकाश को कहीं-कही डालकर चित्र के पात्रों को चमकाता था, जिससे चित्र में एक विलक्षणता आ जाती थी। और ऐसे चित्र में पात्र का रूप बिलकुल साफ़-साफ़ नहीं दिखाई पड़ता, कभी-कभी पात्र अँधेरे में पड़ जाता है। यही हाल हुआ; खेलाड़ियों में से कुछ जो प्रकाश में थे, उनका रूप साफ़-साफ़ था तथा पहिचाना जाता था, पर अँधेरे में पड़े खेलाडियों का रूप धूमिल था और पहिचान में नहीं आता था। ऐसे खेलाडियों ने चित्र को नापसंद कर दिया। रेम्ब्रा कुछ न बोला और चाक़ू से उस बड़े चित्र को टुकड़े-टुकडे कर डाला। पेशगी ली हुई रकम वापस करके, खेलाड़ियों को बाहर कर दरवाज़ा बंद कर लिया। ऐसे समय में रेम्ब्रा अगर कहे कि—'कला, कला के लिए है' तो क्या अनुचित है!

    कलाकार, दार्शनिक या वैज्ञानिक समाज के उपयोगी अंग हैं। यह तो आज कोई नहीं कह सकता कि कला, दर्शन या विज्ञान ने समाज को लाभ नहीं पहुँचाया, परंतु आज भी कलाकार, वैज्ञानिक तथा दार्शनिक का स्थान समाज में निराला होता है। इनका जीवन प्राय अधिक सामाजिक नहीं हो पाता। साधारण लोग इनके गुणों तथा कार्यों से भी परिचित नहीं हो पाते और यही कारण है कि इनका सामाजिक जीवन संकीर्ण हो जाता है। फिर भी समाज इनको एक ऊँचा स्थान देता है, और देना भी चाहिए।

     
    स्रोत :
    • पुस्तक : सम्मेलन पत्रिका (पृष्ठ 51)
    • रचनाकार : प्रोफ़ेसर रामचंद्र शुक्ल

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