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हिन्दवी शब्दकोश

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वैशोषिक

  • शब्दभेद : संज्ञा

वैशोषिक का हिंदी अर्थ

  • १. छहू दर्शनों में से एक जो महर्षि कणाद कृत है और जिसमें पदार्थों का विचार तथा द्रव्यों का निरूपण है । पदार्थ विद्या ।विशेष— महर्षि कणाद का एक नाम उलूक भी है, इससे इसे औलूक्य दशन कहते हैं । यह दर्शन न्याय के ही अंतर्गत माना जाता है । सिद्धांत पक्ष में न्याय कहने से दोनों का बोध होता है, क्योंकि गौतम में प्रमाणपक्ष प्रधान है और इसमें प्रमेय पक्ष लिया गया है । ईश्वर, जगत् जीव आदि के सबंध के दोनों के सिद्धांत प्रायः एक ही हैं । यह दर्शन गौतम से पीछे का माना जाता है । गौतम ने मुख्यतः तर्कपद्धति और प्रमाणविषय का ही निरूपण किया है, पर कणाद उससे आगे बढकर द्रव्यों की परीक्षा में प्रवृत हुए हैं । नौ द्रव्यों का विशेष- ताएँ बताने के ही कारण इनके दर्शन का नाम वैशोषक पड़ा । नौ द्रव्य ये हैं— पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन । इनमे से पृथ्वी, जल, तेज और वायु नित्य भी हैं और अनित्य भी अर्थात् परमाणु अवस्था में ताव नित्य हैं और स्थूल अवस्था मे अनित्य । आकाश, काल, दिक् और आत्मा नित्य और सवव्यापक है । मन नित्य ता है, पर व्यापक नही, क्योंकि वह अणुरूप है । द्रव्यों की विशेषता इसी प्रकार कणाद ने बताई है ।गौतम ने सोलह पदार्थ माने थे, पर कणाद ने छह ही पदार्थ रखे— द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय । अंधकार आदि को इन छह के अंतर्गत आता न समझकर पछि से एक सातवाँ पदार्थ 'अभाव' भी बढाया गया । द्रव्यों के उद्देश (परिगणन), लक्षण और परीक्षा के उपरात कणाद ने गुण और कर्म को लिया है जो द्रव्यों में रहते हैं । संख्या, पृथकत्व, बुद्धि, सुख, दुःख इत्यादि २४ गुण गिनाए गए है । उत्क्षपण, अवक्षेपण आदि पाच प्रकार की गतियाँ कर्म के अंतर्गत ली गई हो । अब रहा 'सामान्य' । वह द्रव्य, गुण और कर्म इन्हीं तीनों में सत्ता के रूप में पाया जाता है । पाचवाँ पदार्थ 'विशेष' पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणुआ में तथा शेष पाँच द्रव्यों में पाया जाता है । 'विशेष' अनंत होते हैं । 'समवाय' जहाँ कही पाया जायगा, वहीं रहेगा अतः वह एक ही है ।वैशेषिक का परामाणुवाद प्रसिद्ध है । द्रव्यखंड़ क टुकड़े करते करते जब ऐसा टुकड़ा रह जाता है जिसके और टुकड़े नही हो सकते, तब वह परमाणु कहलाता है । परमाणु नित्य और अक्षर है । इन्ही का योजना से सब पदार्थ बनते है और सृष्टि होती है । आकाश को छोड़कर जितने प्रकार के भूत होते है उतने ही प्रकार के परमाणु होते जैसे—पृथ्वी परमाणु, जल परमाणु, तेज परमाणु और वायु परमाणु । वैशेषिक में दो परमाणुओं के योग को द्वयणुक कहते हैं । आगे चलकर यही द्वयणुक अधिक संख्या में मिलते जाते हैं, जिससे नाना प्रकार के पदार्थ बनते हैं, जैसे— तीन द्वयणुकों से त्रसरेणु, चार द्वयणुकों से चतुरणुक आदि । कारणगुण पूर्वक ही कार्य के गुण होते हैं, अतः जिस गुण के परमाणु होंगे, उसी गुण के उनसे बने पदार्थ होंगे । पदार्थों में जो नाना भेद दिखाई पड़ते हैं वे सन्निवेश भेद से होते हैं । तेज के संबंध से वस्तुओं के गुण में बहुत कुछ फेरफार हो जाता है ।परमाणुओं के बीच अंतर की धारणा न होने के कारण वैशेषिकों को 'पीलुपाक' नामक विलक्षण मत ग्रहण करना पड़ा । इस मत के अनुसार घड़ा आग में पड़कर इस प्रकार लाल होता है कि अग्नि के तेज से घड़े के परमाणु ��लग अगल हो जाते हैं और फिर लाल होकर जाते हैं । घड़े का बनना और बिगड़ना इतने सूक्ष्म काल में होता है कि कोई देख नहीं सकता ।परमाणुओं का संयोग सृष्टि के आदि में कैसे होता है, इस संबध में कहा गया है कि ईश्वर की इच्छा या प्रेरणा से परमाणुओं में गति या क्षोभ उत्पन्न होता है और वे परस्पर मिलकर सृष्टि की योजना करने लगते हैं । ऊपर जो नौ द्रव्य कहे गए हैं, उनमें 'आत्मा' भी है । आत्मा दो प्रकार का कहा गया है— ईश्वर और जीव । ईश्वर की सत्ता और कर्तृत्व मानने के कारण ही न्याय और वैशेषिक भक्तों एवं पौराणिकों के आक्षेपों से बचे रहे हैं ।और दर्शनों के समान इस दर्शन पर भाष्य नहीं मिलते । प्रशस्तपाद का 'पदार्थ-धर्म-संग्रह' नामक ग्रंथ वैशेषिक सूत्रों का भाष्य कहा जाता है; पर वह वास्तव में भाष्य नहीं है, सूत्रों के आधार पर बना हुआ अलग ग्रंथ है ।२. कणाद का अनुयायी । वैशेषिक दर्शन का माननेवाला ।

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हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

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