प्रसंग ('गर्भरंडा रहस्य' से)
prsang (garbhranDa rahasy se)
नाथूराम शर्मा 'शंकर'
Nathuram Sharma 'shankar'
प्रसंग ('गर्भरंडा रहस्य' से)
prsang (garbhranDa rahasy se)
Nathuram Sharma 'shankar'
नाथूराम शर्मा 'शंकर'
और अधिकनाथूराम शर्मा 'शंकर'
कर सुंदर शृंगार चलीं चुपचाप लुगाईं।
बटुओं में भर भेंट मुदित मंदिर में आई॥
अटकी काल कुचाल कुसंगति ने मति फेरी।
मुझको लेकर साथ सधन पहुँची माँ मेरी॥
साधन सर्व सुधार सजीले सदुपदेश के।
दर्शन को झट खोल दिए पट गोकुलेश के॥
श्री गुरुदेव दयाल महाछवि धार पधारे।
सब ने धन से पूज देह जीवन मन वारे॥
अबला एक अधेड़ अचानक आकर बोली।
हिलमिल खेलो फाग उठो अब सुन लो होली॥
लाल गुलाल उड़ाय कीच केशर की छिड़की।
सब को नाच नचाय सुगति की खोली खिड़की॥
फैल गया हुरदंग होलिका की हलचल में।
फूल-फूल कर फाग महिला-मंडल में॥
जननी भी तज लाज बनी ब्रजमक्खो सब की।
पर मैं पिंड छुड़ाय जवनिका में जा दबकी॥
कूद पड़े गुरुदेव चेलियों के शुभ दल में।
सदुपदेश का सार भरा फागुन के फल में॥
अंग के अंग उघार पुष्ट प्रण के पट खोले।
सब के जन्म सुधार कृपा कर मुझ पै बोले॥
जिसने केवल मंत्रयुक्त उपदेश लिया है।
अब तक योगानंद महामृत को न पिया है॥
वह रंग लीला छोड़ कहाँ छुप गई छबीली।
सुन प्रभु से संकेत चली कुटनी नचकीली॥
मुझको दबकी देख अड़ीली आकर अटकी।
मुख पै मार गुलाल अछूती चादर झटकी॥
घोर घुमाय घसीट घुड़क लाई दंगल में।
फिर यों हुआ प्रवेश अमंगल का मंगल में॥
मेरा वदन विलोक घटी दर दारागण की।
करता है शशि मंद यथा छवि तारागण की॥
वृषवल्लभ गोस्वामि बने कामुक दुर्मति से।
मनुज मोहनी मान मुझे दौड़े पशुपति से॥
परखा पाप प्रचंड प्रमादी पामरपन में।
उपजा उग्र अदम्य रोष मेरे तन-मन में॥
लमकी लटकी देख लाय तलवार निकाली।
गरजी छंद कृपाण सुनाकर सुमरी काली॥
वीर भयानक रुद्र समझी रणचंडी।
सुन मेरी किलकार गिरी गच पै हुरसंडी॥
भूत रहे न पुरीष रुका पटकी पिचकारी।
रस वीभत्स बहाय दुरे प्रभु प्रेम पुजारी॥
भंग हुआ रसरंग भयातुर हुल्लड़ भागा।
निरखि नर्तनागार छपा रसराज अभागा॥
लौट गया हुरदंग भुजा मेरी फिर फड़की।
भड़की उर में आग क्रोध की तड़िता तड़की॥
बोली रसिक सुजान फाग अब आकर खेलो।
सर्व रसिक समर्पण रूप आँख इस असि की झेलो॥
निकलो खोल कपाट निरख लो नारि नवेली।
फिर न मिलेगी और जन्म भर मुझसी चेली॥
गुप्त रहे गुरुदेव न भीतर से कुछ बोले।
भूल गये रस रीति अनीति किवाड़ न खोले॥
कुटनी भी भयभीत ससकती रही न बोली।
अस्त हुई इस भाँति मस्त गुरुकुल की होली॥
- पुस्तक : कविता-कौमुदी, दूसरा भाग-हिंदी (पृष्ठ 102)
- संपादक : रामनरेश त्रिपाठी
- रचनाकार : नाथूराम 'शंकर' शर्मा
- प्रकाशन : हिंदी-मंदिर, प्रयाग
- संस्करण : 1996
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