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सर्पमाता

sarpmata

एक वृद्ध दंपत्ति के सात शादीशुदा बेटे थे। सब साथ रहते थे। छह बड़ी बहुओं को घर में ख़ूब सम्मान और स्नेह मिलता था। उनके मायके वाले समृद्ध जो थे। पर सबसे छोटी बेचारी अनाथ थी। मायके और ननिहाल में उसका कोई रिश्तेदार तक नहीं था। इस ससुराल में सब उसका तिरस्कार करते थे। सब उसे ‘बिना मायके वाली बहू’ कहते थे।

ससुराल में सब छककर तर माल खाते थे। छोटी बहू की बारी सबसे आख़िर में आती थी। अक्सर उसके लिए कुछ नहीं बचता था और उसे खुरचन से काम चलाना पड़ता था। खाने के बाद उसे ढेर सारे बर्तन माँजने पड़ते थे। दिन बीतता गया। पितृपक्ष का समय आया। उस दिन भैंस के दूध की बहुत बढ़िया खीर बनी। छोटी बहू के पाँव भारी थे। उसका मन खीर खाने के लिए ललचा रहा था। पर उसे खीर के लिए कौन पूछता भला! सबने चटखारे ले-लेकर खीर खाई। उसके लिए हंडिया में अधजली खुरचन ही बची। उसने सबकी ओर देखकर कहा, “मेरे लिए यही बहुत है!” उसने सावचेती से खुरचकर खुरचन को एक कपड़े में बाँधा और उसे ऐसी जगह पर खाने का निश्चय किया जहाँ उसे कोई देखे। कुएँ से पानी लाने का समय हो गया था। वह कुएँ पर पहुँची तो वहाँ गाँव की औरतों का जमघट लगा था। छोटी बहू ने सोचा कि सब चली जाएँ तभी वह खीर की खुरचन खाएगी। उसकी बारी आई तो उसने खुरचन की छोटी-सी पोटली को साँप के बिल के पास रखा और पानी खींचने लगी। सोचा, पहले नहा लूँ। फिर खीर खाने का अधिक मज़ा आएगा। सो वह स्नान करने लगी।

इस बीच एक नागिन बिल से बाहर आई। वह भी गर्भवती थी। खीर की गंध से वह खींची चली आई। उसके मुँह में पानी भर आया। खीर चट करके वह वापस बिल में घुस गई। उसने तय किया कि अगर खीर के मालिक ने चोर को बुरा-भला कहा तो वह उसे डस लेगी।

नहाने के बाद छोटी बहू बड़ी उमंग से खीर की खुरचन खाने के लिए आई। उसने देखा कि कपड़ा तो पड़ा है, पर खुरचन ग़ायब है। खुरचन का एक कण भी बाक़ी नहीं बचा था।

बहू चीख़ पड़ी, “ओह, मुझे घर पर खीर मिली और यहाँ। लगता है मुझ जैसी किसी दुखियारी ने खीर देखी और वह अपने को रोक सकी। चलो, मैं सही, कोई तो तृप्त हुआ।”

यह सुनकर नागिन बिल से बाहर आई। पूछा, “तुम कौन हो भली मानुस?”

“मैं एक दुखियारी हूँ माँ! मेरे पेट में बच्चा है और मैं खीर खाना चाहती थी। मैं कुछ खुरचन लाई थी। पर मैं नहाने गई थी तो पीछे से कोई खा गया। ज़रूर वह भी मेरी तरह दुखिया होगी। हो सकता है वह भूखी हो। मुझे ख़ुशी है कि मेरी खीर से कोई तो तृप्त हुआ।”

नागिन ने कहा, “तुम्हारी खीर मैंने खाई है। अगर तुम बुरा-भला कहती और शाप देती तो मैं तुम्हें डस लेती। लेकिन तुमने मुझसे अपनापन जताया है। मुझे बताओ, तुम्हें क्या दुख है?”

“माँ, मायके में कोई ऐसा नहीं जिसे मैं अपना कह सकूँ। जल्दी ही मेरे पहले गर्भ का उच्छव है। यह उच्छव मायके वाले मनाते हैं, पर मेरे मायके में तो कोई है नहीं।” कहते-कहते उसकी आँखों में पानी गया।

नागिन ने कहा, “बेटी, तू चिंता मत कर। आज से मैं तेरी माँ हूँ और मेरा घर तेरा मायका। हम इस बिल में रहते हैं। जब तेरे पहले गर्भ का उच्छव का दिन नज़दीक आए तो इस बिल के पास न्यौता रख देना। ऐसे शुभ अवसर पर ख़ुशियाँ ज़रूर मनानी चाहिए।” इस तरह नागिन उसकी मुँहबोली माँ बन गई। इस अनहोनी से चकित छोटी बहू ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट गई।

पहले गर्भ के उच्छव का दिन नजदीक आया देख सास ने कहा, “छोटी बहू का भाई है, कोई और। उच्छव कैसे होगा?” छोटी बहू ने कहा, “अम्मा, उच्छव का न्यौता एक काग़ज़ पर लिखकर मुझे दे दीजिए!”

“तेरे मायके में कोई है भी? न्यौता देगी किसे?”

“मेरी एक दूर की रिश्तेदार है, उसी को दूँगी। आप काग़ज़ पर न्यौता लिख दीजिए!”

“लो सुनो! घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने! तेरा दिमाग़ तो नहीं फिर गया? आज अचानक यह रिश्तेदार कहाँ से टपक पड़ी?”

पड़ोसन ने कहा, “अरे, छोडो भी! दे भी दो बेचारी को! एक काग़ज़ के टुकड़े में तुम्हारा क्या जाता है!”

सो छोटी बहू कुएँ पर गई और साँप के बिल के पास न्यौता रख आई।

पहले गर्भ के उच्छव का दिन गया। सास और जेठानियाँ छोटी बहू की खिल्ली उड़ाने लगीं, “थोड़ा धीरज रखो! इसके मायके से, ननिहाल से, और भी जाने कहाँ-कहाँ से इसके रिश्तेदार आने ही वाले हैं। वे इसके लिए उपहार और संदूक़ भर के कपड़े लाएँगे। उनके नहाने के लिए पानी गर्म करो और लापसी के लिए दलिया लाओ! वे बस आने ही वाले हैं।”

वे उसे चिढ़ा रही थीं और फब्तियाँ कस रही थीं कि मेहमान गए। बाक़ी लाल पगड़ियों में वे मुग़ल अमीर सरीखे लगते थे। राजपूती पहनावा पहने गोरी-चिट्टी महारानी सी एक स्त्री भी उनके साथ आई थी। छोटी बहू ताड़ गई कि यही सर्पमाता है। सास और जेठानियाँ दंग रह गईं। वे बड़बड़ाने लगीं, “ये कहाँ से गए? इसके कोई मायके में है और ननिहाल में जाने ये कौन हैं? और इतने पैसे वाले?”

बुज़र्गों ने मेहमानों की अगवानी की, “आइए, आइए, इसे अपना ही घर समझिए! छोटी बहू के रिश्तेदारों के चरण हमारे घर में पड़े, धन्य भाग हमारे!” लापसी बनाने के लिए बड़ी कड़ाही चूल्हे पर रखी गई। खाने की तैयारियाँ होने लगीं।

सर्पमाता छोटी बहू को एक तरफ़ ले गई और कानों में फुसफुसाई, “बेटी, हम कुछ नहीं खाएँगे। बस, मसालेदार गरम दूध इस कमरे में रखवा देना। दरवाज़ा बंद करने के बाद हम पी लेंगे। तुम तो जानती हो, साँपों की ख़ुराक अलग होती है।”

छोटी बहू ने सास से कहा कि उसके रिश्तेदारों का खान-पान जरा अलग है। वे सिर्फ़ मसाला दूध ही पीते हैं।”

खाने का समय हो गया। गर्मागर्म मसालेदार दूध के भगोने कमरे में रख दिए गए। उन्होंने दरवाज़ा भीतर से बंद किया, अपने असली रूप में आए और भगोनों से मुँह लगाकर पलक झपकते सारा दूध पी गए।

छोटी बहू के पहले गर्भ का उच्छव बहुत धूमधाम से मनाया गया। मेहमानों ने छोटी बहू के पति और उसके रिश्तेदारों को तरह-तरह के गहने और ढेरों कपड़े दिए। सबके आश्चर्य का ठिकाना रहा, “देखो तो, कितना सामान लाए हैं! इतना तो कोई नहीं लाया।”

उच्छव के बाद मेहमानों ने कहा, “अब हम चलेंगे। आपकी आज्ञा हो तो प्रसव के लिए बहन को हम साथ ले जाएँ?”

सास ने कहा, “ज़रूर, ज़रूर। क्यों नहीं! आख़िर वह आप लोगों की बहन है। इसमें भला पूछना क्या!”

मेहमान बोले, “इसे लिवाने के लिए किसी को भेजने की ज़रूरत नहीं। हम आप ही पहुँचा देंगे।”

सब उन्हें विदा करने आए। मेहमानों ने हाथ जोड़कर कहा, “आप कष्ट करें! हम चले जाएँगे।” जब सब वापस घरों में चले गए तो सर्पबांधव बहन को अपनी बांबी पर ले गए। कहने लगे, “बहना डरना मत। अब हम अपने असली रूप में आते हैं। हम तुम्हें भी बांबी में ले चलेंगे।” बहू ने कहा, “मैं क्यों डरूँगी भला!” सब बांबी में घुस गए। छोटी बहू को भी वे अपने साथ ले गए।

अंदर काफ़ी बड़े-बड़े कमरे थे। कमरे धतूरे के फूल से भी अधिक सुंदर थे। पलंग और झूलों की मोहकता का तो कहना ही क्या! घर की मुखिया सर्पमाता के बैठते ही झूलने वाला हौले-हौले आगे-पीछे होने लगा—किका-दुका, किका-दुका। नागदेवता के सर पर मणि चमक रही थी। उनके बड़ी-बड़ी मूँछें थीं। वे साटिन की नरम गद्दीदार चौकी पर बैठे थे।

नागदेवता छोटी बहू से अपनी बेटी की तरह स्नेह करते थे और पाताल लोक में उसकी छोटी से छोटी ज़रूरत का ख़याल रखते थे। सोने-चाँदी के पलंग पर वह ख़ूब झूलती थी। उसके नए माँ-बाप और छोटे-बड़े सब लोग उसका बहुत मन रखते थे।

नागमाता के प्रसव का समय गया। उसने छोटी बहू से कहा, “सुनो बेटी, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूँ। इसमें डरने की कोई बात नहीं है। हम जानते हैं कि अगर हमारे सारे सँपोले जी जाएँ तो दुनिया में सब गड़बड़ हो जाएगा। तब दूसरे जीवों का जीना दूभर हो जाएगा। उनके लिए चलना-फिरना भी मुश्किल हो जाएगा। इसलिए सँपोलों के जन्म लेते ही माँ उन्हें खा जाती है। जो भाग जाते हैं वे ही बचते हैं। मुझे ऐसा करते देख तुम घबराना मत।”

नागमाता की प्रसव की वेला छोटी बहू दीया थामे पास ही खड़ी थी। अंडों के बाहर आते ही नागिन उन्हें खा जाती। यह देखकर छोटी बहू, जो ख़ुद माँ बनने वाली थी, का मन जुगुप्सा से भर गया। उसका हाथ काँपा और दीया गिर गया। अँधेरे में दो संपोले अंडों से निकलकर भाग गए। नागिन उनकी पूँछ ही खा पाई।

गर्भ के नौ महीने पूरे होने पर छोटी बहू ने देवताओं की अँगूठी जैसे सुंदर बेटे को जन्म दिया। बेटा दिन-दिन बड़ा होने लगा। जब वह घुटनों पर चलने लगा, बहू ने सर्पमाता को कहा, “तुम मेरे लिए जो कर सकती थी उससे भी ज़्यादा किया। जी तो नहीं चाहता, पर जाना तो होगा ही। मुझे घर पहुँचवा दो!”

सर्प माँ ने उसे गद्दे, पालना, हार, चूड़ियाँ, तरह-तरह के गहने और अनेक उपहार दिए और कहा, “बेटी, एक काम करो! अपने दादाजी के मुँह में अपना हाथ डालो! डरो मत, काटेंगे नहीं।”

छोटी बहू सिहर गई, पर अपना हाथ बूढ़े सर्प-पितामह के मुँह में डाल दिया। बाँह समेत तो पूरा हाथ भीतर चला गया। काँपते हुए हाथ बाहर निकाला तो पूरा हाथ सोने के कंगनों से भरा था।

“अब ऐसे ही दूसरा हाथ डालो”, सर्प माँ ने कहा। छोटी बहू ने पहले से कम सिहरते हुए दूसरा हाथ बूढ़े साँप के मुँह में डाला। वह भी ऊपर से नीचे तक सुनहरे कंगनों से भर गया। दो भाई आदमी के भेष में उसे उसके ससुराल की सीमा तक छोड़ आए। बेटे को गोद में लिए हुए वह घर की देहरी पर पहुँची तो सबने उसे घेर लिया और चिल्लाने लगे, “छोटी बहू गई! छोटी बहू गई! देखो तो, कितना माल लाई है! पर यह कोई नहीं जानता कि इसके रिश्तेदार रहते कहाँ हैं!”

छोटी बहू ने कोई जवाब नहीं दिया।

उसका बेटा बड़ा हुआ। एक दिन छोटी बहू की बड़ी जेठानी गेहूँ साफ़कर रही थीं। छोटा मुन्ना गेहूँ को मुट्ठियों में भर-भरकर इधर-उधर बिखरने लगा। जेठानी ने उसे डाँटा, “नहीं बेटे, गेहूँ मत बिखेरो! हम ग़रीब लोग हैं, ऐसे गेहूँ बरबाद करेंगे तो कैसे चलेगा!” वह छोटी बहू के उपहारों पर कटाक्ष कर रही थी। छोटी बहू को इससे ठेस लगी। वह गाँव के बाहर साँप की बांबी पर जाकर रोने लगी। वापस आई तो अनाज के कई छकड़े उसके साथ थे। उसके ससुराल वाले ज़मीन में गड़ गए।

एक दिन मुन्ने ने थोड़ा दूध गिरा दिया। बड़ी जेठानी ने ताना मारा, “नहीं बेटे, दूध नहीं गिराते। तुम्हारे ननिहाल वाले धनवान हैं। उन्होंने तुम्हारे लिए भैंसों का झुंड भेजा है, पर हम ग़रीब लोग हैं। हमारा दूध मत गिराओ!”

छोटी बहू बांबी पर जाकर फिर रोने लगी। सर्पमाता बाहर आई और बोली, “सब ठीक हो जाएगा, चिंता मत करो। जाओ, घर जाओ! पर जाते समय पीछे मुड़कर मत देखना और नट को कभी छाछ मत डालना। रास्ते में ‘नागेल, नागेल’ कहते जाना।” छोटी बहू वापस घर के लिए लौट पड़ी। रास्ते भर वह ‘नागेल, नागेल’ कहती गई। घर पहुँचकर उसने ससुराल वालों से कहा, “हमें भैसों के लिए बाड़े की सफ़ाई करनी चाहिए।” उसके पीछे अनगिनत भैंसों को देखकर सब चकित रह गए। हर भैंस के माथे पर सफ़ेद निशान था।

उधर साँप की बांबी में क्या हो रहा था? दोनों दुमकटे सँपोले दुखी थे। कोई उनके साथ नहीं खेलता था। उन्हें देखते ही सब भिडू चिल्ला पड़ते—

दुमकटे, दुमकटे, भागो! हम तुम्हें नहीं खिलाएँगे।

पुच्छहीन, पुच्छहीन, भागो! हम तुम्हें नहीं खिलाएँगे।

दुमकटे सँपोलों ने माँ से जाकर पूछा, “माँ, माँ, बताओ, हमें दुमकटा किसने बनाया?”

माँ ने कहा, “बच्चो, धरती पर तुम्हारी एक बहन रहती है। जब तुम पैदा हुए तो ग़लती से उसके हाथ से दीया गिर गया। इसीलिए तुम्हारे पूँछ नहीं है।”

“उसने हमारे साथ ऐसा किया! हम उसे डसेंगे।”

“कैसी बात करते हो! अपनी बहन को भला कोई डसता है! वह बहुत भली है। वह तुम्हें आशीष देगी।”

“ठीक है, अगर वह हमें आशीष देगी। हम उसे साड़ी और कुर्ती तो देकर लौट आएँगे। लेकिन उसने हमारे लिए कुछ अंटसंट कहा तो हम उसे ज़रूर डसेंगे।”

माँ कुछ कहती उससे पहले ही दोनों वहाँ से चंपत हो गए। वे सीधे बहन के घर पहुँचे। शाम हो गई थी। एक देहरी के पास छुप गया और दूसरा पलींडे पर घड़ों के पीछे। दोनों ने तय किया, “उसके आते ही उसे डस लेंगे।”

जब छोटी बहन देहरी पर आई तो उसका पाँव किसी से टकराया। छोटी बहन ने कहा, “मेरे माँ-बाप नहीं हैं। अगर मेरे पाँव से किसी के ठोकर लग गई हो तो मेरे मायके वाले मुझे माफ़ करें! सर्पदेवता मेरे पिता हैं और सर्पमाता मेरी माँ। उन्होंने मुझे गहने और रेशमी कपड़े उपहार में दिए।”

यह सुनकर वहाँ छुपे दुमकटे सँपोले ने सोचा, “यह हमें कितना चाहती है! मैं इसे कैसे इस सकता हूँ!”

फिर छोटी बहू पलींडे पर गई। वहाँ भी उसका पाँव किसी से टकराया। उसने फिर कहा, “मेरे माँ-बाप नहीं हैं। अगर मेरे पाँव से किसी के ठोकर लग गई हो तो मेरे मायके वाले मुझे माफ़ करें! सपदेवता मेरे पिता हैं और सर्पमाता मेरी माँ। उन्होंने मुझे गहने और रेशमी कपड़े उपहार में दिए।”

दूसरे दुमकटे साँप ने भी सोचा, “यह हमें कितना चाहती है! मैं इसे कैसे डस सकता हूँ!”

तब दोनों भाइयों ने आदमी का रूप धरा और बहन से मिले। उसे साड़ी-कुर्ती दी, भानजे को सोने के कड़े दिए और बांबी पर लौट गए।

सर्पमाता ने जैसे छोटी बहू पर अनुकंपा की वैसे ही हम सब पर करे।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 234)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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