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गड़रिए का भूत

gaDariye ka bhoot

किसी गाँव में एक गड़रिया रहता था। वह हर रोज़ अपनी भेड़ों को चराने ले जाता था। एक दिन वह एक पेड़ पर चढ़ा और डाल पर बैठकर उसे वहाँ से काटने लगा जहाँ वह तने से जुड़ी हुई थी।

वहाँ से गुज़रते हुए एक ब्राह्मण ने उसे देखा और बोला, “ए, क्या कर रहे हो, गिर जाओगे! जिस डाल पर बैठे हो उसी को काट रहे हो!”

गड़रिए ने कहा, “महाराज, आपने कैसे जाना कि मैं गिर जाऊँगा?”

ब्राह्मण ने कहा, “अच्छा, बताता हूँ। अपना कुरता इस डाल पर रखो, तुम दूसरी डाल पर बैठो और फिर इस डाल को काटो। तब तुम ख़ुद देख लोगे।”

गड़रिए ने वैसा ही किया—कुरता उतारकर डाल पर रखा, ख़ुद दूसरी डाल पर बैठा और कुर्ते वाली डाल को काटना जारी रखा। डाल कट गई तो उसके साथ कुर्ता भी ज़मीन पर गिर गया।

गड़रिया बहुत प्रभावित हुआ। सोचा, “ब्राह्मण-देवता बहुत ज्ञानी हैं। यह भूत-भविष्य सब जानते हैं।” वह तुरंत पेड़ से कूदा और ब्राह्मण के पाँव पकड़ लिए। बोला, “महाराज, बताइए मैं कब मरूँगा? आपको बताना ही होगा!”

ब्राह्मण ने कहा, “पागल हुए हो! तुम्हारा जन्म-मरण मैं क्या जानूँ! मेरे पाँव छोड़ो और अपना काम करो!”

पर गड़रिया नहीं माना, “नहीं, आप सब जानते हैं। आपसे कुछ भी छुपा हुआ नहीं है। आपको बताना ही होगा। मैं आपको एक भेड़ दूँगा।” उसने ब्राह्मण के पैर और कसकर पकड़ लिए। बोला कि जब तक बताएगा नहीं वह उसे जाने नहीं देगा।

ब्राह्मण उलझन में पड़ गया। क्या करे और क्या करे? उससे पिंड छुड़ाने के लिए उसने यों ही कह दिया, “अच्छा तो सुनो, मृत्यु से पहले तुम्हारी नाक छोटी हो जाएगी और आँखें अंदर धंस जाएँगी। ऐसा होते ही तुम मर जाओगे।” इतना कहकर वह चला गया।

भेड़ों की रखवाली करते हुए गड़रिया सारे समय ब्राह्मण की बात पर विचार करता रहा।

गर्मियों में एक दिन गड़रिए की पत्नी वक़्त पर रोटी लेकर नहीं पहुँची। भूख से उसकी हालत खस्ता हो गई। उसने अंगुलियों से अपनी नाक को नापा तो वह उसे हमेशा से छोटी लगी। आँखों को छूआ तो वे भी उसे कुछ धंसी हुई लगीं। “ओ माँ, मेरी मौत गई। मैं मर रहा हूँ,” उसने सोचा और भेड़ों को वहीं चारागाह में छोड़कर घर चला गया।

खाने की पोटली लेकर उसकी पत्नी घर से निकल ही रही थी। उसे आया देखकर उसने पूछा, “भेड़ों को कहाँ छोड़ आए?” गड़रिए ने कोई जवाब नहीं दिया। “बात करने का क्या फ़ायदा जबकि मैं मर रहा हूँ,” उसने सोचा और चुप ही रहा। मानो कुछ सुना ही नहीं। “कुछ बोलते क्यों नहीं? तुम्हें हुआ क्या है?” पत्नी ने पूछा। पर वह चुपचाप भीतर गया और साँस रोककर दीवार की तरफ़ मुँह करके उकडूँ बैठ गया। पत्नी ने उसे झिंझोड़ा, पर वह साँस रोके हुए चुपचाप बैठा रहा। उसकी आँखें बंद थीं और वह बिलकुल हिल-डुल नहीं रहा था। “हे भगवान, ये तो मर गए!” वह चिल्लाई और भागकर बिरादरी वालों को बुला लाई। उन्होंने गड़रिए के चुटकियाँ काटीं, गालों पर चाँटें लगाए, पर वह टस से मस नहीं हुआ और ही कुछ बोला। बिरादरी वालों ने कहा, “हाँ, यह तो मर गया!”

वे नया कपड़ा लाए, गड़रिए को अरथी पर लिटाया और उसे क़ब्रिस्तान ले गए। वहाँ उन्होंने गड्डा खोदा और उसे गाड़ दिया। मूर्ख गड़रिया अब भी साँस रोके पड़ा रहा। उसे गाड़कर हाथ-पैर धोने के लिए गाँव वाले नदी की ओर रवाना हुए। अब गड़रिए ने रोकी हुई साँस को छोड़ना चाहा, ‘पर मिट्टी के नीचे दबे होने से यह संभव नहीं हुआ। उसने मिट्टी को इधर-उधर ठेला। पोली मिट्टी अपनी जगह से हिली। सर से पाँव तक गर्द से सना हुआ गड़रिया गढ़े से बाहर निकला और चिल्लाया, “मुझे यहाँ छोड़कर तुम कहाँ जा रहे हो?” चिल्लाहट सुनकर वे मुड़े और उसे देखने लगे जिसे उन्होंने अभी-अभी गाड़ा था। उसके बालों, मूँछों और पूरे शरीर पर मिट्टी ही मिट्टी थी। वे चिल्लाए, “अयो, गड़रिए का भूत!” और सर पर पाँव रखकर भागे।

आन की आन में पूरे गाँव में ख़बर फैल गई कि गड़रिया भूत बन गया है और गाँव की तरफ़ रहा है। सब गाँववाले घरों में घुस गए और दरवाज़े भीतर से बंद कर लिए। गड़रिया सीधे अपने घर गया और कुंड़ी खटखटाई, “सुन तो, मैं मरा नहीं हूँ। दरवाज़ा खोल!”

पत्नी ने दरवाज़े के पीछे से ही कहा, “स्वामी, कृपा करके यहाँ से चले जाओ! मैं तुम्हारी क़ब्र पर नए कपड़े और नारियल चढ़ाऊँगी। मुझ पर दया करो! मेरे घर पर मत आया करो!” गड़रिए ने उसे समझाने की कोशिश की, पर वह इतनी डरी हुई थी कि उसने कुछ सुना ही नहीं।

भूख के मारे गड़रिए की जान निकली जा रही थी। अब उसे खाना कौन खिलाएगा? वह गाँव के बाहर बने हनुमान मंदिर पर गया। उसने सोचा, “पुजारी पूजा करने आएगा तो उससे थोड़ा प्रसाद माँग लूँगा।” और मंदिर के अंदर बैठ गया। वह रात भर वहाँ बैठा रहा, पर कोई नहीं आया। गाँव वाले रात भर घरों से बाहर नहीं निकले। अगले दिन जब सूरज सर पर चढ़ आया तो एक-एक कर दरवाज़े खुलने लगे और लोगबाग अहाते की सफ़ाई और दूसरे काम-काज करने लगे। पुजारी ने खिचड़ी बनाई, उस पर थोड़ा घी डाला और रास्ते में फूल वगैरा लेते हुए हनुमान मंदिर पहुँचा। गड़रिया मूर्ति के पीछे छुपा बैठा था। पुजारी ने बजरंग बली को आचमन कराया और मूर्ति के माथे पर फूल रखे। तभी गड़रिया उठा और बोला, “महाराज, आज बड़ी देर कर दी! मैं कल से आपका इंतज़ार कर रहा हूँ।” पुजारी चिल्लाया, “गड़रिए का भूत!” और थाली पटककर भागा। उसका चिल्लाना सुनकर औरतों के हाथों से झाड़ू छूट गए। आदमियों ने भी काम बीच ही में छोड़ा, बैलों को गाड़ियों से खोला और घरों की ओर लपके। सब फिर घरों में घुस गए और दरवाज़े बंद कर लिए।

गड़रिया फिर अपने घर गया और पत्नी को समझाने की कोशिश की। पर पत्नी ने बाल भर भी दरवाज़ा नहीं खोला। गड़रिया वापस मंदिर लौट गया। खिचड़ी के प्रसाद से दो-तीन दिन काम चल गया। मगर उसके तन पर कोई कपड़ा नहीं था। क़ब्र को पाटने से पहले उन्होंने उसे निर्वसन कर दिया था। उसके दिमाग़ में एक विचार कौंधा, “मुझे धोबीघाट जाना चाहिए और कपड़े का बंदोबस्त करना चाहिए। धोबी से कपड़ा लेकर नंगा बदन ढक लूँगा। फिर मैं घर चला जाऊँगा।” वह धोबीघाट गया और उस टंकी में छुपकर बैठ गया जिसमें धोबी गंदे कपड़े उबालता था।

पुलिस का दरोग़ा गश्त पर आया तो उसने देखा कि गाँव में सन्नाटा है और सब दरवाज़े भीतर से बंद हैं। उसे विस्मय हुआ, “क्या बात है? दुपहर को दरवाज़े बंद क्यों है?” दरवाज़े खटखटाकर उसने लोगों से जानना चाहा कि मामला क्या है।

लोगों ने बताया, “बाहर गड़रिए का भूत है जब तक वह यहाँ है हम दरवाज़ा नहीं खोलेंगे।” दरोगा ने कहा, “क्या बकवास करते हो! मुझे तो कोई भूत-वूत नज़र नहीं आता।” वह गाँव के मुखिया रेड्डी के घर गया। उसने भी वही बात दोहराई। दरोग़ा ने कहा, “मैं हूँ न! चिंता मत करो! बाहर आओ!” रेड्डी ने हिम्मत करके दरवाज़ा खोला। थोड़ी देर में एक-एक कर सब दरवाज़े खुल गए और सब अपने-अपने काम में लग गए।

रेड्डी के यहाँ से दरोग़ा धोबी के घर गया। बोला, “मेरे कपड़े गंदे हो गए हैं। इन्हें नदी पर ले जा और धो दे !” धोबी ने कहा, “हज़ूर माफ़ करें, मैं नदी पर नहीं जाऊँगा। मैंने ख़ुद देखा है, गड़रिए का भूत वहीं है। वह मुझे पकड़ लेगा।”

“तू तो बिलकुल डरपोक है। चल, मैं तेरे साथ चलता हूँ।” कह कर दरोग़ा घोड़े पर बैठा और धोबी के साथ घाट पर गया। घाट पर पहुँचकर दरोग़ा ने धोबी से कहा कि वह कपड़े टंकी में डाल दे। तब तक वह घोड़े को चारा डालकर आता है। धोबी टंकी में कपड़े डालने के लिए गया। उसने टंकी में झाँका तो वहाँ उसे गड़रिए का भूत बैठा दिखा—सर से पाँव तक धूल से अटा हुआ। गड़रिए ने उसे उसके नाम से पुकारा, “क्यों सुब्बान्ना, आज बड़ी देर कर दी? मैं कब से तुम्हारी बाट जोह रहा हूँ!”

दरोग़ा ने यह सुना तो वह लपककर घोड़े पर बैठा और घोड़े के एड़ लगाई। धोबी भी चिल्लाता हुआ उसके पीछे भागा। आनन-फ़ानन में गाँव वाले वापस घरों में घुस गए।

गड़रिए ने धोबी को गाली दी, “माँ का ख़सम!” फिर उसने एक कपड़ा कमर पर लपेटा, एक कंधे पर डाला और घर की ओर चल पड़ा। आज भी उसकी पत्नी ने उसकी बात पर बिलकुल कान नहीं दिया और उसने बाहर झाँका। आख़िर वह चीख़ा, “मैं ज़िंदा हूँ, मरा नहीं। एक पंडित ने मुझसे कहा कि मैं मर जाऊँगा। मैंने उस पर भरोसा कर लिया। उसी का नतीजा मैं भुगत रहा हूँ। दरवाज़ा खोल और ख़ुद अपनी आँखों से देख ले!”

पत्नी ने थोड़ा-सा दरवाज़ा खोलकर देखा। उसे पति में भूत का कोई लक्षण नज़र नहीं आया। उसने पति को भीतर लिया और पानी डालकर अच्छी तरह नहलाया। रगड़-रगड़कर मैल की बत्तियाँ उतारीं। उसे पहनने के लिए ढंग से कपड़े दिए। कपड़े पहनकर वह अपनी भेड़ों के पास चला गया, जैसे कि हमेशा जाता था।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 183)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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