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निरा बुद्धू

nira buddhu

किसी एक गाँव में सोनारू नामक एक व्यक्ति रहता था,वह निरा बुद्धू था। उसकी पत्नी उसे लाख समझाती किंतु उसके दिमाग़ में बात आती ही नहीं थी। वह इतना बेअक़्ल था कि बड़ों की तो बात ही छोड़िए,नन्हा बच्चा तक उसे मूर्ख बना देता था।

पास ही के गाँव में उसके दीदी-जीजा रहते थे। एक दिन वह घूमने के ख़्याल से उनके घर जा पहुँचा उन लोगों ने उसकी आवभगत की। रात में खाने बैठे। खाने में बास्ता की सब्जी बनी थी। 'बड़ी ही स्वादिष्ट सब्जी है' कहता वह दोना भर सब्जी खा गया और जीजा से पूछने लगा कि यह कौन-सी सब्जी है? उसके जीजा ने सामने लगी बाँस की टट्टी की ओर संकेत किया और कहा,यह सब्जी इसी की है। भोजन कर दोनों गपियाते रहे। थोड़ी देर में जीजा की आँख लग गई।

आधी रात होने पर सोनारू धीरे से उठा, बाँस की टट्टी उठाई और घर का रास्ता पकड़ा। सुबह-सुबह अपने घर पहुँचा अपनी पत्नी से बोला,लो, इसकी सब्जी बना लो। उसकी पत्नी परेशान! किंतु मार-पीट के डर से उसने बाँस की टट्टी के टुकड़े-टुकड़े किए और हंडी में डाल कर उबलने के लिए चूल्हे पर रख दिया। घंटों बीत गए पर सूखा बाँस भला कहाँ से पकता? कुछ देर में सोनारू वापस लौटा और भोजन माँगने लगा। उसकी पत्नी ने नमक-मिर्च के साथ भोजन परोसा। यह देख कर उसने पूछा,क्यों,क्या तुमने सब्जी नहीं बनाई?

पत्नी बोली,मैं इसे घंटों पका कर थक गई किंतु यह तो पकता ही नहीं,आप ही पका कर देखें। आपके जीजा ने आपको मूर्ख बनाया है।

सोनारू ने यह देखा और ग़ुस्से से कांपने लगा वह तुरंत अपने जीजा के घर चल पड़ा। उधर उसका जीजा उसी समय मछली पकड़ने जा रहा था। सोनारू ने कहा,कैसे जीजा जी! आपने मुझे कैसे मूर्ख बनाया?

यह सुन कर जीजा ने कहा,तुमने तो मुझसे पूछा तक नहीं,साले जी। आधी रात में उठ कर चुरा ले गए। मुझसे पूछा होता तो मैं उसे पकाने का उपाय बतलाता तुम्हें। अच्छा, गुस्सा थूक दो। चलो,मछली पकड़ने।

जीजा की बात से सोनारू का गुस्सा दूर हो गया। जीजा भीतर गया और अपनी पत्नी के कान में धीमे से कुछ कहा। फिर दोनों जीजा और साला गए मछली पकड़ने। नदी के तीर पर बैठ कर जीजा बंसी खेलने लगा। बंसी को खींचता और कहता,सरराट्ट,घर में जाकर फटफटा। इस तरह उसने कुछेक बार किया और फिर साले से कहा,अच्छा चलो,नहा-धो लें,भूख भी लग गई है घर जाएँगे।

यह सुन कर सोनारू बोला,किंतु मछली तो पकड़ी ही नहीं।

जीजा ने कहा,तुम मेरी बंसी की करामात नहीं जानते।

कैसी करामात? सोनारू के पूछने पर जीजा ने कहा,मैं यहीं बैठ कर बंसी खेलते-खेलते कह देता हूँ,'सरसट्ट,घर में जाकर फटफटा'। तब बंसी में फँसी सारी मछलियाँ सीधे मेरे घर में जाकर गिर पड़ती हैं। अच्छा,चलो तो घर। तुम्हारी दीदी भोजन तैयार कर हमारी बाट जोह रही होगी।

उसके ऐसा कहने पर सोनारू ने स्नान किया। जीजा ने भी स्नान किया। दोनों जीजा-साले घर पहुँचे। जीजा ने अपनी पत्नी से कहा,अच्छा,तुमने मछली पकाई है,न! चलो,भोजन परोसो।

तब उसकी पत्नी ने दोनों को भोजन परोसा। सोनारू ने देखा,सच में मछली का साग था। यह देख कर वह मन-ही-मन विचार करने लगा,'ओह! यह बंसी तो बड़ी ही करामाती है, इसे रात में चुरा ले जाऊँगा।' भोजन के बाद जीजा ने पूछा,कैसे साले जी! कब जाओगे घर?

सोनारू बोला,नहीं जीजा जी,अभी नहीं जाऊँगा,जाते-जाते रास्ते में साँझ हो जाएगी,कल सवेरे जाऊँगा।

इस तरह सोनारू वहीं रह गया। रात होने पर सब के सोने के बाद वह सवेरे-सवेरे उठा,बंसी पकड़ी और भाग गया। घर पहुँच कर पत्नी से कहने लगा,अच्छा,मैं मछली पकड़ने नदी जा रहा हूँ। मैं वहीं से मछलियों को फेंकता जाऊँगा। मछलियाँ तुम्हारे सामने कर गिरेंगी, तुम मेरी वापसी तक भोजन तैयार रखना। कह कर वह बंसी ले नदी की ओर चला गया। उसकी पत्नी मन-ही-मन सोचने लगी,'इस आदमी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है,पता नहीं ये कैसे समझ पाएँगे!'

उधर सोनारू नदी में पहुँचा और अपने जीजा की तरह बंसी को खींचता और कहता जाता, सरसट्ट,घर में जाकर फटफटा। इस तरह उसने सातेक बार किया और फिर नहा-धो कर घर वापस हुआ। वापस कर पत्नी से कहने लगा,लो जी,खाने को दो।

उसके ऐसा कहने पर पत्नी ने नमक-मिर्च के साथ उसे भोजन परोसा। यह देख कर सोनारू क्रोधित हो बोला,इतनी मछलियों का तुमने क्या कर दिया? पकाया क्यों नहीं उन्हें?

तब पत्नी यह कह कर थक गई कि मछलियाँ लाने पर तो पकाती,नहीं रहने पर भला कहाँ से पकाऊँगी। किंतु सोमारू समझने को तैयार ही नहीं था। इसी समय उसके दीदी और जीजा वहाँ आए और कहने लगे,अरे बाबू! हमने तुम्हें मूर्ख बनाया था। तुम्हारी बुद्धि कितनी है, हम यह देख रहे थे। ऐसा कह उसे समझाया बुझाया,तब जाकर सोमारू की समझ में आया।

स्रोत :
  • पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 60)
  • संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2013

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