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मूर्ख गुरु, मूर्ख चेले

moorkh guru, moorkh chele

एक मूर्ख गुरु था। वैसे ही उसके बारह चेले थे, एकदम ठूँठ। एक बार वे तीर्थयात्रा पर निकले। रास्ते में एक नदी आई। नदी को पार करके ही आगे जाया जा सकता था। साँझ हो गई थी। वे नदी को देखने लगे। गुरु ने कहा, “पीछे हट जाओ! इस नदी का कोई भरोसा नहीं। यह कइयों का ग्रास ले चुकी है। होशियारी से काम लेना होगा। इसके सो जाने तक हमें प्रतीक्षा करनी होगी।” गुरु और चेलों ने अलाव जलाया और खाने की तैयारी करने लगे। थोड़ी देर बाद गुरु ने एक चेले को यह पता लगाने को कहा कि नदी जाग रही है या सो गई। चेले ने अलाव से जलती हुई लकड़ी उठाई और नदी से कुछ क़दम दूर रहकर लकड़ी को धीरे से पानी में डुबाया। नदी ने तुरंत फुफकारते हुए धुआँ छोड़ा। चेला सर पर पाँव रखकर भागा।

वापस आया तो वह बुरी तरह हाँफ़ रहा था। बोला, “गुरुजी, अभी नदी पार करने का समय नहीं हुआ। वह पूरी तरह जाग रही है। जैसे ही मैंने उसे छूआ वह क्रोध से सुलगने और साँप की तरह फुफकारने लगी। वह मुझे निगल ही जाती, पर मेरा भाग्य अच्छा था जो मैं बच गया।” गुरु ने कहा, “मुझे ख़ुशी है कि तुम बच गए। उसके सो जाने तक हमें प्रतीक्षा करनी होगी। तब तक हम यहीं विश्राम करेंगे।”

विश्राम करते समय एक शिष्य ने कहा, “मेरे दादा बहुत बड़े व्यापारी थे। एक बार वे दो गधों पर नमक के बोरे लादे हुए इस नदी को पार कर रहे थे। जानते हो इसने क्या किया? गर्मियों के दिन थे। दादाजी ने नदी में स्नान किया और गधों को भी नहलाया। पर नदी के उस पार जाकर वे क्या देखते हैं कि नदी उनका सारा नमक चट कर गई है! बोरों की सीवन बिलकुल सही थी। बोरों में कोई छेद भी नहीं था। फिर भी यह दुष्ट नदी उनका सारा नमक हड़प गई। एक चुटकी भी पीछे नहीं छोड़ा। तब भी दादाजी ख़ुश थे कि इसने उनकी जान बख़्श दी। यह नदी बहुत बदमाश है। अच्छा ही है कि हम इससे आधा कोस दूर हैं।”

सुबह मुँह अँधेरे ही वें उठ गए। गुरु ने उसी शिष्य से कहा, “जाओ देखो, शायद वह सो रही हो।” शिष्य ने वही लकड़ी उठाई और सावधानी के साथ उसे नदी में डुबाया। इस बार नदी में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह फुफकारी और ही उसने धुआँ छोड़ा। वह भागता हुआ आया और सबको ख़ुशख़बरी सुनाई, “नदी पार करने का यही समय है। फटाफट अपना सामान उठाओ और चलो! बिलकुल आवाज़ मत करना। नदी गहरी नींद में है। एक-दूसरे का हाथ पकड़कर उन्होंने सतर्कतापूर्वक नदी में पाँव रखा और हौले-हौले एक-एक पग रखते हुए उस पार पहुँचे। नदी पार करते समय उनके प्राण सूख रहे थे। कहीं ऐसा हो कि नदी जाग जाए और उन्हें खा जाए।

उस किनारे पहुँचकर उनकी ख़ुशी का पार रहा। तभी एक चेले ने कहा, “सब ठीक तो है न? अच्छी तरह पता कर लो! यह बहुत विश्वासघाती नदी है। क्यों हम अपनी गिनती कर लें?”

यह कहकर वह गिनने लगा। उसने सबको गिना, पर ख़ुद को गिनना भूल गया। वह रुआँसा हो गया, “देखो, हम बारह ही हैं! नदी हममें से एक को निगल गई।” गुरु ने उसे सांत्वना दी और दूसरे से गिनने को कहा। उसने भी सबको गिना, सिवा ख़ुद के। तीसरे ने गिना, चौथे ने गिना, पर वही ढाक के तीन पात! आख़िर गुरु ने ख़ुद गिनती करने का निश्चय किया। उसने एक-एक को अंगुलियों पर बहुत ध्यान से गिना, पर वह भी ख़ुद को गिनना भूल गया। बोला, “यह सच है हम बारह ही हैं। हममें से एक इस संसार में नहीं रहा।”

वे विलाप करने लगे। हालाँकि उन्हें पता नहीं था कि उनमें से कौन ग़ायब है। वे नदी को कोसने और उसे गालियाँ देने लगे, “दुष्ट, कपटी, हत्यारिन, यह तूने क्या किया? तू हमारे भाई को खा गई। तूने हमारे साथ बहुत क्रूर छल किया है। तू सूख जाए! तुझमें गड्ढे पड़ जाएँ!”

वे छाती-माथा कूट रहे थे और शाप दे रहे थे कि एक आदमी उधर से गुज़रा। उसने पूछा कि वे रो क्यों रहे हैं। उन्होंने बताया कि कैसे यह उनके साथी को खा गई। उन्होंने बार-बार गिना, पर वे बारह के बारह ही रहे।

वह आदमी समझ गया कि गड़बड़ कहाँ हैं। कहने लगा, “अच्छा हुआ कि मैं इधर गया। मैं जादू जानता हूँ। खोए हुए आदमी को वापस लाना मेरे बाएँ हाथ का खेल है। पर इसका मूल्य उन्हें चुकाना होगा।” गुरु ने तत्काल कहा, “तुम देवदूत हो। यदि तुम मुझे मेरा शिष्य वापस कर दोगे तो जो कुछ भी हमारे पास है वह सब तुम्हें दे देंगे।” उन्होंने अपनी थैलियों और अंटियों से रूपए-पैसे निकाले और सारी जमा-पूँजी उसके हवाले कर दी।

उस आदमी ने रूपए-पैसों का ठीक से जाब्ता किया और फिर उन्हें एक टोकरी गाय का गोबर लाने को कहा। चेले भागे-भागे गए और पास के गाँव से गोबर लेकर उलटे पाँव वापस आए। उस आदमी ने उनसे एक क़तार में गोबर डलवाया और उन्हें क़तार के सामने खड़े होने को कहा। फिर उसने एक-एक को गर्दन से पकड़ा और उन्हें झुकाकर उनकी नाक गोबर में घुसाई।

फिर उसने उनसे कहा, “अब गोबर में अपनी नाक के निशान गिनो और बताओ कि तुम कितने हो।”

गुरु और चेलों ने घुटनों के बल चलते हुए बहुत सावचेती से गोबर पर नाक के निशान गिने। हरेक ने ठीक तेरह निशान गिने। आश्चर्य और ख़ुशी से वे उछल पड़े, “हम वापस तेरह हो गए। हम सब यहाँ उपस्थित हैं। जादूगर की कृपा से हमें हमारा खोया हुआ साथी वापस मिल गया।”

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 168)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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