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जादुई कटोरे

jadui katore

एक ग़रीब आदमी था। उसकी पत्नी उसे हर रोज़ उसके निकम्मेपन के लिए कोसती थी। बेचारा पति चुपचाप उसके ताने और गालियाँ सुनता और धीरे से घर से खिसक जाता। वह तभी वापस घर आता जब पत्नी का मिजाज़ कुछ ठंडा हो जाता।

एक दिन पत्नी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। घर में जो भी बचा-खुचा खाना था उसे खुरचकर उसने एक गंदे कपड़े में बाँधा, उसे पति के हाथों में ठूँसा और उसे धकियाते हुए चिल्लाई, “जाओ, कहीं भी जाओ और कुछ कमा कर लाओ! ख़ाली हाथ वापस मत आना।” और धड़ाम से दरवाज़ा बंद कर दिया।

पति बासी भात की पोटली लिए हुए पैर घिसटता हुआ गाँव से बाहर चला गया। वह चलता रहा, चलता रहा। कई कोस चलने के बाद एक तिराहा आया। तिराहे पर बरगद का विशाल पेड़ था। थके-माँदे राहगीरों को वह बरसों से अपनी छाया में शरण देता था। बेचारे ग़रीब आदमी के पैर दुखने लगे थे। वह बरगद के नीचे बैठ गया। बरगद की डाली से उसने भात की पोटली बाँधी और उसकी जड़ पर सर रखकर लेट गया। जल्दी ही उसे नींद ने घेरा।

उस बरगद पर तीन वनदेवियाँ रहती थीं। उन्होंने बरगद के नीचे सोते आदमी और भात की पोटली को देखा। उनकी इच्छा हुई कि उसका खाना ज़रा चखकर देखे। मन में यह विचार आते ही उनकी इच्छा पूरी हो गई। बासी भात उन्हें बहुत अच्छा लगा। अमृत और स्वर्ग के सभी दिव्य व्यंजन उनके चखे हुए थे, पर इस भात का स्वाद सबसे निराला था। बासी भात उन्होंने पहले कभी नहीं खाया था। उसकी गंध उन्हें बहुत अच्छी लगी। रोज़-रोज़ वही अमृत और स्वर्ग के फल खा-खाकर वे उकता गई थीं। यह बदलाव उन्हें अच्छा लगा।

ग़रीब आदमी का दो एक मुट्ठी भात वे कुछ ही पल में खा गईं। वे बहुत प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि बेचारे को भात के बदले में कुछ देना चाहिए। ग़रीब आदमी की आँख खुली तो उसे भूख महसूस हुई। पोटली खोली तो भात की जगह उसे चार अजीब-से ख़ाली कटोरे मिले। इनसे भूख कैसे मिटेगी! उसने ग़ुस्से से उन्हें ज़मीन पर पटक दिया। पलक झपकते ही भाँति-भाँति के दिव्य व्यंजन लिए हुए अनेक सुंदर स्त्रियाँ प्रकट हुईं। इस माया से वह हक्का-बक्का रह गया। पर उसे इतने ज़ोर की भूख लगी थी कि कुछ पूछने या डरने की उसमें सरधा ही नहीं बची। उसके मन का भाव समझकर सुंदर स्त्रियों ने उसे खाना परोसा। उसकी हलकी-सी भंगिमा से ही वे उसकी इच्छा समझ जातीं और उसकी मनपंसद चीज़ हाज़िर कर देतीं। उनका व्यवहार ऐसा था मानो वह कोई देवता हो। शीघ्र ही उसकी समझ में गया कि वह उन दिव्य स्त्रियों का स्वामी है। उसने छक कर चमत्कारिक व्यंजन खाए। वह खा चुका तो दिव्य सेविकाएँ अलोप हो गईं। उनका कोई चिह्न तक बाक़ी नहीं बचा। चारों ख़ाली कटोरे वे वहीं छोड़ गईं।

आँखें बंद करके उसने भगवान को धन्यवाद दिया और ख़ाली कटोरों को श्रद्धा से उठाया। कटोरों को छाती से चिपटाए हुए घरवालों को ख़ुशखबरी सुनाने के लिए वह तेज़ी से घर की ओर चल पड़ा। यह ख़बर सुनकर उसकी पत्नी ख़ुशी से पागल हो गई। जादुई कटोरों को उन्होंने अपनी कुलदेवी के चरणों में रखा और उन्हें मुग्ध होकर देखने लगे। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि जादुई कटोरे वाक़ई वहाँ हैं। अपना सौभाग्य उन्हें सपने जैसा लग रहा था। उन्हें लगा कि विधिवत अनुष्ठान और गाँव वालों को भोज देने के बाद ही उन्हें भगवान की इस अनुपम भेंट का उपयोग करना चाहिए।

अगले दिन सवेरे पति अमीर-ग़रीब सब घरों में गया और भोज का न्यौता दिया। किसी को भी भरोसा नहीं हुआ। कुछ तो खुलकर हँसे। कुछ को लगा कि वह ठिठोली कर रहा है तो कुछ ने समझा उसका माथा फिर गया है। पुरखे यों ही थोड़े कह गए हैं कि निर्धन का अतिथि शीघ्र घर लौट आता है।

दुपहर होते-होते छप्पर में लोग जुटने लगे। ज़्यादातर लोग तो एहतियातन पूरा खाना खाकर आए थे। वे सिर्फ इसलिए आए थे कि देखें क्या होता है! और उन्हें क्या देखने को मिला?

गृहस्वामी और गृहस्वामिनी ने निराले कटोरों को छप्पर में रखा और अत्यधिक आदर के साथ उनसे निवेदन किया कि वे अतिथियों को अपनी दयालु भेंट से अनुगृहीत करें! और लो! सबकी आँखें खुली की खुली रह गईं। सर से पाँव तक गहनों से लदीं एक से बढ़कर एक सुंदर बीसियों स्त्रियाँ कटोरों में से निकलीं। उनके हाथों में स्वादिष्टतम पकवानों के थाल थे। जाने कहाँ से अतिथियों के सामने चाँदी की थालियाँ प्रकट हुई और खाना परोसा जाने लगा।

अतिथि ज्यों ही कोई पकवान खाते दर्जनों नए पकवान हाज़िर हो जाते और दिव्य नारियाँ उन्हें इतनी तत्परता से परोसतीं कि उन्हें लगा वे हरेक की छोटी से छोटी इच्छा भी तुरंत ताड़ जाती हैं। अतिथियों ने इतना खाना खाया कि उनका पेट फटने लगा। खाने के बाद उनके लिए घर जाना भारी हो गया। घर-घर में इस चमत्कार की बात फैल गई। हरेक की ज़ुबान पर यही बात थी। निर्धन गृहस्वामी अब निर्धन नहीं रह गया था। वह महीनों घर-चौपाल में चर्चा का केंद्र बना रहा।

उस गाँव में एक अमीर आदमी रहता था। वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं गिनता था। कल तक पाई-पाई को मुहताज पड़ोसी के रातोंरात अमीर और चर्चित हो जाने से वह जल-भुन गया। एक दिन अमीर आदमी पड़ोसी के घर गया और चमत्कारिक कटोरों से निकली सुंदर-सुंदर स्त्रियों के हाथों परोसा दिव्य भोजन ग्रहण किया। उसने जल्दी ही कटोरों के स्वामी से मित्रता कर ली। कटोरों के स्वामी और उसकी पत्नी को उसने कई उपहार दिए और जादुई कटोरे मिलने का रहस्य जान लिया।

घमंडी अमीर ने सोचा, “इसमें क्या मुश्किल है! यह तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है।” वह तेज़ी से घर गया और रसोइए को भाँति-भाँति के राजसी व्यंजन बनाने का आदेश दिया। अगले दिन सुबह वह पालकी में बैठा और कहारों को लगभग भगाते तिराहे वाले बरगद के नीचे पहुँचा। वहाँ एक बड़ी टोकरी में महँगे से महँगे पकवान सजाए और टोकरी को बरगद के नीचे रख दिया। कहारों को उसने शाम को वापस आने को कहकर लौटा दिया और ख़ुद नींद का बहाना करके लेट गया। पर नींद तो उससे कोसों दूर थी। वह यह देखने के लिए बहुत व्यग्र था कि वनदेवियाँ कब आती हैं और क्या करती हैं। वह देर तक लेटा रहा। आख़िर उस पर नींद हावी हो गईं। घड़ी भर बाद उसकी आँख खुली तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठा और इधर-उधर देखा। उसके पास चार अजीब-से कटोरे पड़े थे और टोकरी ख़ाली थी।

आख़िर वह सफल हुआ। वैसे अपनी सफलता पर उसे कभी संदेह नहीं हुआ था। वनदेवियों के लिए वह मानवी व्यंजनों में से सबसे स्वादिष्ट और सबसे महँगे राजसी व्यंजन जो लाया था। उसकी इच्छा वे कैसे पूरी नहीं करतीं! और देखो, जादुई कटोरे उसे मिल गए।

कहारों को पहले से भी तेज़ भगाते हुए वह घर पहुँचा। उसने घरवालों को आदेश दिया कि वे दौड़कर जाएँ और गाँव के हर घर में यह ख़बर पहुँचा दें और भोज का निमंत्रण दे दें।

गाँव वाले चारों दिशाओं से उसके भोजनकक्ष की ओर उमड़ पड़े। कुछ ही दिन पहले हुए भोज की याद से उनके मुँह में पानी भर आया। आज फिर भोज, और वह भी साहूकार के यहाँ! कइयों ने दिन भर कुछ नहीं खाया, ताकि मेज़बान की दरियादिली के साथ अन्याय हो।

साहूकार मेहमानों को देखकर मुस्कुराया और उन्हें आसन ग्रहण करने का इशारा किया। साहूकार के नौकर बड़ी ठसक के साथ जादुई कटोरों को लेकर आए और उन्हें एक चौकी पर रखा। ज़र्रीदार पगड़ी, कुंडल और फ़िरोज़े की अँगूठी डाले हुए नौकरों का मुखिया कटोरों के सामने खड़ा हुआ और उन्हें उपस्थित अतिथियों को दिव्य व्यंजन परोसने का आदेश दिया।

उसकी आवाज़ की गूँज अभी विलीन भी नहीं हुई थी कि कटोरों में से बीसियों रहीम-सहीम आदमी निकले। वे पहलवानों सरीखे लगते थे। उनकी बाँहों की मछलियाँ फड़क रही थीं। वे इतने डरावने लगते थे कि बड़े-बड़े सूरमाओं की धोती ढीली हो जाएँ। कटोरों से निकलते ही वे मेज़बान और भूखे मेहमानों पर झपटे। उन्होंने सबको बारी-बारी से पकड़ा, झटके से चमचमाते उस्तरे निकाले और बड़ी तत्परता से उनके सर मूँडने लगे। एक-एक सर की उन्होंने ऐसी ज़ोरदार घुटाई की कि वे ताँबे की देगची के पैदे की तरह चमकने लगे। नाइयों के इस भोज से एक भी मेहमान नहीं बचा। उन्होंने औरतों को भी नहीं बख़्शा। डरे-सहमे मेहमान धीरे-धीरे दरवाज़े की ओर खिसकने लगे तो एक भीमकाय ‘पहलवान’ बड़ा काच लेकर दरवाज़े के पास खड़ा हो गया। उसने एक-एक को उसका चेहरा अच्छी तरह दिखाया और धमकी दी कि फिर कभी इधर का रुख़ करे।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 153)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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