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बूढ़ी डुकरिया

buDhi Dukariya

एक गाँव में एक डुकरिया (बूढ़ी औरत) रहती थी। वह इतनी बूढ़ी थी कि सब उसे बूढ़ी डुकरिया कहते थे। उसकी बेटी का विवाह बहुत दूर दूसरे गाँव में हुआ था। बेटी की संतानें भी हो गई थीं किंतु एक दिन बूढ़ी डुकरिया को अपने नाती से मिलने की इच्छा हुई। उसने अपने बेटे से कहा कि वह अपने नाती से मिलने जाना चाहती है। बेटे ने उसे समझाया कि रास्ते में घना जंगल पड़ता है जिसमें शेर, भालू आदि हिंसक पशु रहते हैं इसलिए उसे नहीं जाना चाहिए। बूढ़ी डुकरिया को तो अपने नाती से मिलने की तीव्र इच्छा थी अत: उसने अपने बेटे की सलाह मानने से मना कर दिया।

अंतत: बेटे ने एक बड़ा-सा तूमा (सूखा कुम्हड़ा) लाया और बूढ़ी डुकरिया से कहा कि वह उस तूमे में बैठ जाए ताकि हिंसक पशु उसे खा सकें। बूढ़ी डुकरिया अपने बेटे के कहने पर तूमे में बैठ गई। बेटे ने तूमे का मुँह बंद कर दिया और उसमें मात्र इतना छोटा छेद रखा कि बूढ़ी डुकरिया सुगमता से साँस ले सके। इसके बाद बेटे ने गोल-मटोल तूमे को लात मारकर लुढ़का दिया। तूमा लुढ़कता हुआ चल पड़ा बूढ़ी डुकरिया के नाती के गाँव की ओर। तूमा लुढ़कता जा रहा था और तूमे में बैठी बूढ़ी डुकरिया गाना गाती जा रही थी—‘चल रे तूमा, धामक धूमा...।’

कुछ दूर जाने पर घना जंगल आरंभ हो गया। जंगल में थे बहुत से बंदर। बंदरों ने देखा कि एक तूमा लुढ़कता जा रहा है तो वे आश्चर्य में पड़ गए। इससे पहले उन्होंने इस तरह किसी तूमे को लुढ़कता हुआ नहीं देखा था। वे साहस करके तूमे के निकट पहुँचे तो उन्हें बूढ़ी डुकरिया की आवाज़ सुनाई दी-’चल रे तूमा, धामक धूमा...।’

‘तूमे में कौन है?’ बंदरों ने पूछा।

‘तूमे में मैं हूँ।’ बूढ़ी डुकरिया बोली।

‘मैं कौन?’ बंदरों ने पूछा।

‘मैं, मैं हूँ, और कौन?’ बूढ़ी डुकरिया बोली।

बंदर बहुत चकराए।

‘हम तुम्हें देखना चाहते हैं। तुम तूमे से बाहर निकलो।’ बंदरों के मुखिया ने कहा।

‘ठीक है। लेकिन तुम मुझे तभी देख सकते हो जब तुम सब मेरे जैसे गोल-गोल कुलाटियाँ खाओ (लुढ़को)।’ बूढ़ी डुकरिया ने कहा।

‘ये कौन-सा कठिन काम है?’ बंदरों के मुखिया ने कहा और वह अपने साथियों सहित कुलाटियाँ खाने लगा। बूढ़ी डुकरिया ने इसे अच्छा अवसर जाना और तूमे से बाहर आकर वह सारे फल और चार-चिरौंजी समेट ली जो बंदर खा रहे थे। इसके बाद वह अपने तूमे में जा छिपी और तूमे से बोली, ‘चल रे तूमा, धामक धूमा...।’

बंदर कुलाटियाँ खाते रह गए और तूमा आगे चल दिया। जब बंदरों के मुखिया ने कुलाटियाँ बंद की तो उसे समझ में आया कि तूमे का राक्षस तो मूर्ख बन गया है। उसे बहुत क्रोध आया। उसने तूमे को रोकने के लिए उसका पीछा करना शुरू किया। शेष बंदर भी उसके पीछे हो लिया।

कुछ दूर जाने पर भालुओं ने तूमे को देखा। उन्हें बोलता हुआ लुढ़कता तूमा देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ। उन्होंने तूमे को रोककर उसमें बैठे राक्षस को देखने की इच्छा प्रकट की। तूमे में बैठी बूढ़ी डुकरिया ने भालुओं से भी वही कहा कि जो बंदरों से कहा था कि जो उसके जैसे कुलाटियाँ खाएगा वही उसे देख पाएगा। भालू भी बूढ़ी डुकरिया की बातों में गए। वे भी कुलाटियाँ खाने लगे। बूढ़ी डुकरिया अपने तूमे से निकली और उसने भालुओं का शहद का बरतन उठाया और वापस तूमे में बैठी।

‘चल रे तूमा, धामक धूमा...।’ कहते ही तूमा चल पड़ा।

भालू जब थमे तो उन्होंने देखा कि तूमे का राक्षस तो उन्हें मूर्ख बनाकर उनका शहद भी ले गया है। भालुओं को बहुत क्रोध आया। उन्होंने तूमे का पीछा करना शुरू किया।

कुछ दूर जाने पर शेर ने तूमे को देखा। उसने तूमे को रुकने का आदेश दिया।

‘तुम जो कोई भी, रुक जाओ! मैं जंगल का राजा तुम्हें आदेश देता हूँ।’ शेर ने कहा।

बूढ़ी डुकरिया ने शेर की आवाज़ सुनी तो वह डर गई। उसने तूमा रोक दिया। तूमा रुकते ही शेर ने पूछा कि तूमे के भीतर कौन है? वह देखना चाहता है। बूढ़ी डुकरिया ने शेर से भी वही कहा कि जो कुलाटियाँ खाएगा वही मुझे देख पाएगा। शेर जैसे ही कुलाटियाँ मारने को हुआ वैसे ही भालू और बंदर भी वहाँ पहुँचे।

‘महाराज! इसकी बातों में आइएगा। इसने हमें भी कलाटियाँ खिला कर हमें लूट लिया है। अब तो आप इसे मुत्यु-दंड दीजिए।’ भालुओं और बंदरों ने शेर से प्रार्थना की।

‘ठीक है।’ शेर ने कहा। यूँ तो शेर को भी डर लग रहा था लेकिन भालुओं और बंदरों के सामने साहस करने पर उसे कोई राजा मानता। मरता क्या करता।

शेर ने तूमे पर एक पंजा मारा। शेर का पंजा लगते ही तूमे का ढक्कन खुल गया और बूढ़ी डुकरिया बाहर गिरी। शेर, भालू और बंदर यह देखकर बौखला उठे कि वे जिसे राक्षस समझकर डर रहे थे वह तो एक दुबली-पतली बुढ़िया है।

‘तूने मुझे और मेरी प्रजा को मूर्ख बनाने का प्रयास किया है अत: अब मैं तुझे खा जाऊँगा।’ शेर ने अपनी पूँछ फटकारते हुए कहा। अब उसका साहस दुगुना हो उठा था।

बूढ़ी डुकरिया समझ गई कि अब ये शेर उसे खाए बिना नहीं रहेगा अत: उसने युक्ति से काम लिया।

‘महाराज! यह मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी कि आप मुझे खाएँगे। लेकिन अब मेरी सूखी देह में कोई स्वाद तो बचा नहीं है अत: मैं चाहती हूँ कि आप मुझे गर्म राख में भून कर खाएँ। इससे मेरा शरीर आपको स्वादिष्ट लगेगा।’ बूढ़ी डुकरिया बोली।

‘महाराज! आप इसकी बातों में आइएगा। यह बहुत चालाक है। इसमें भी इसकी कोई चाल होगी।’ भालुओं और बंदरों ने शेर से कहा।

‘हाँ, मैं तुम्हारा कहना क्यों मानूँ? फिर तुम कह रही हो कि तुम्हें गर्म राख में भुनूँ, जलती आग में नहीं। ऐसा क्यों?” शेर ने बूढ़ी डुकरिया से कहा।

‘महाराज! पहली बात तो ये है कि मैं कोई चाल चल ही कैसे सकती हूँ? मुझे तो आप लोगों ने घेर रखा है। दूसरी बात यह कि यदि आप मुझे आग में भूनेंगे तो मेरी दुबली-पतली देह तुरंत जल कर राख हो जाएगी और आप मुझे खा नहीं सकेंगे इसलिए मैं कह रही हूँ कि मुझे गरम राख में भूनें। यदि आप लोगों के मन में कोई शंका हो तो आप सब राख के ढेर के चारों ओर गोल घेरा बनाकर बैठ जाएँ और अपनी आँखें खोलकर मुझ पर नज़र रखे रहें।’ बूढ़ी डुकरिया ने कहा।

शेर सहित सभी इस बात पर सहमत हो गए। तुरंत गर्म राख की व्यवस्था की गई। बूढ़ी डुकरिया ने राख को छूकर देखा, जब राख का तापमान उस पर बैठने लायक हो गया तो बूढ़ी डुकरिया जाकर राख पर बैठ गई और शेर, भालू तथा बंदर उसे घेर कर बैठ गए।

बूढ़ी डुकरिया तनिक भी हिलती-डुलती तो शेर, भालू और बंदर चौकन्ने हो जाते। बूढ़ी डुकरिया ने उचित अवसर देखा और अपने कपड़ों से एक पुंगी (लकड़ी की पाईप) निकाली और राख में घुसा कर ज़ोर से फूँक मारी। बूढ़ी डुकरिया की फूँक से राख उड़ कर उसके चारो ओर बैठे शेर, भालू और बंदरों की आँखों में चली गई। वे हड़बड़ा कर अपनी आँखें मलने लगे। बूढ़ी डुकरिया राख पर से उठी और शेर की गुफ़ा से सोने-चाँदी के आभूषण बटोरे और अपने तूमे में बैठी।

‘चल रे तूमा, धामक धूमा...।’ बुढ़िया के कहते ही तूमा आगे बढ़ लिया।

शेर, भालू और बंदर आँख मलते रह गए और बूढ़ी डुकरिया आराम से अपने नाती के गाँव पहुँच गई। नाती के गाँव पहुँचकर उसने अपनी बेटी को फल, चिरौंजी, शहद और सोने-चाँदी के आभूषण दे दिए। बूढ़ी डुकरिया की बेटी अपनी माँ को सही-सलामत देखकर और सारा सामान पाकर बहुत प्रसन्न हुई। इसके बाद बूढ़ी डुकरिया अपनी बेटी-दामाद और अपने नाती के साथ रहने लगी।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 209)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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