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ईश्वर की महिमा

iishvar ki mahima

एक गाँव में एक किसान रहता था। उसका नाम पूरन था। वह बहुत ही ईमानदार और नेक इंसान था। वह दूसरों की सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहता था। चाहे किसी के घर ख़ुशी के मौक़े हों या दुख के अथवा हारी-बीमारी में भी वह सदैव दूसरों की मदद किया करता था।

एक समय की बात है। शाम का समय था। अपनी फ़सल देखने के लिए वह खेत की ओर जा रहा था। खेत का एक चक्कर लगाने के बाद ज्योंही वह घर की ओर चला त्योंही उसके पैर में अरहर की खूँटी गड़ गई। अरहर काटने के बाद खेत में बचा हुआ अरहर का डंठल जो कटने के बाद थोड़ा बच जाता है, जड़ सहित वही छुटा हुआ कटा भाग खूँटी कहलाता है। उसने सोचा यह खूँटी किसी और के पाँव में भी गड़ सकती है। उसने ज़ोर लगाकर उस अरहर की खूँटी को उखाड़ दिया।

खूँटी के नीचे पूरन को कुछ सोने की अशर्फ़ियाँ दिखाई दीं। वह यह सब देखकर चकित रह गया। उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। उसके दिमाग़ में आया, “पता केकर बा? हम काहे ले लेई? अगर अशर्फ़ी हमरा ख़ातिर बा, तो जैसे रामजी देखवलन, उहे घरे पहुँचइहें।” उसने घर पहुँचकर सारी बातें अपनी पत्नी को बताई। पूरन की पत्नी उससे भी ज़्यादा भोली-भाली थी। उसने अपने पड़ोसी को बता दिया।

पड़ोसी बड़ा ही घाघ था। रात को जब खा-पीकर सारे लोग सो गए तो पड़ोसी ने अपने घर वालों को जगाया और कहा, “चल सब, हमनी अशर्फ़ी कोड़ के ले आईं।” पड़ोसी और उसके घर वाले कुदाल, खंती, गैंती आदि लेकर खेत में पहुँच गए।

उन्होंने उस जगह की खुदाई की जहाँ पूरन ने बताया था। सभी देखकर अचकचा गए। वहाँ पर एक नहीं, पाँच-पाँच घड़े पड़े थे, उन घड़ों में अशर्फ़ी नहीं बल्कि बड़े-बड़े पहाड़ी बिच्छू थे।

पड़ोसी ने सोचा कि पूरन ने हम लोगों को जान से मारने की योजना बनाई थी। हमें भी इसका माक़ूल जवाब देना चाहिए। उसने अपने घर वालों से कहा, “पाँचों घड़वा उठाके ले चल। इन सबके पूरन के छप्पर फाड़के, ओकरे घरे गिरा देल जाई। सब बिच्छुअन मियाँ-बीबी के काट के मुँआ देई और ओखनी के दुनिया से लीला समाप्त हो जाई।” पड़ोसी के घर वालों ने वैसा ही किया। पूरन का छप्पर फाड़कर बिच्छुओं को उसके घर में गिराने लगे। लेकिन धन्य है ऊपर वाला और उसकी लीला। जब वे बिच्छु घर में आते थे तो अशर्फ़ी बन जाते थे।

सुबह जब पूरन की आँख खुली तो उसके आश्चर्य का ठिकाना रहा। उसके घर में अशर्फ़ी बिखरी पड़ी थी। दोनों मियाँ-बीबी ने ईश्वर की महिमा का गुणगान करते हुए उसका शुक्रिया अदा किया। यह सब देखकर पूरन के मुँह से अनायास निकल गया, “देखीं ऊपर वाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के।”

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 18)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2019

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