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चार लड़कियाँ और राजा

chaar laDkiyan aur raja

एक राजा दिन को तो दरबार लगाता था और राज-काज संभालता था और रात को नई बातें जानने के लिए भेष बदलकर राजधानी में घूमता था।

एक रात को उसने एक बग़ीचे में चार लड़कियों को बड़ी गंभीरता से बातें करते देखा। वह रुककर सुनने लगा। एक लड़की कह रही थी, “जो हो, माँस के स्वाद का कोई जवाब नहीं।”

दूसरी ने कहा, “मैं नहीं मानती। शराब का स्वाद सबसे बढ़कर है।”

तीसरी ने चिल्लाकर कहा, “नहीं, नहीं, तुम कुछ नहीं जानतीं। प्रेम के स्वाद के आगे सारे स्वाद फीके हैं।”

चौथी ने कहा, “माना कि माँस, शराब और प्रेम का स्वाद अच्छा है, पर झूठ बोलने के स्वाद की बात ही कुछ और है। कोई भी स्वाद उसके आगे नहीं टिक सकता।”

तभी उनके घर से बुलावा गया। वे चली गई। राजा ने उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनी थीं। थोड़ा फासला रखकर वह उनके पीछे गया और जिन घरों में वे गईं उनपर खड़िया से निशान लगा दिया।

अगले दिन उसने अपने वज़ीर को बुलाया और कहा, “किसी को बग़ीचे के पास वाली संकरी गली में भेजो और जिन मकानों के दरवाज़ों पर खड़िया का गोल निशान हो उनके मालिकों को दरबार में हाज़िर करो।” वज़ीर ख़ुद वहाँ गया और चारों मकान मालिकों को दरबार में ले आया। राजा ने उनसे पूछा, “तुम चारों के बेटियाँ हैं, है न?”

चारों ने काँपते हुए कहा, “हाँ अन्नदाता, हैं।”

राजा ने कहा, “मैं उनसे बात करना चाहता हूँ। उन्हें यहाँ लाओ!”

उन्होंने एतराज किया। उन्हें लगा यह उनकी लड़कियों के हक़ में ठीक नहीं होगा। “हमारी कुँआरी जवान बेटियाँ राजमहल में आईं तो लोग उन पर अंगुलियाँ उठाएँगे।”

राजा ने कहा, “तुम्हारी बेटियों को कोई कुछ नहीं कहेगा, मैं वचन देता हूँ।

उनकी रक्षा का दायित्व लेता हूँ। उनके यहाँ आने की किसी को कानों-कान ख़बर नहीं होगी।”

लड़कियों को लाने के लिए राजा ने पर्दे वाली चार पालकियाँ भेजीं। वे महल में आईं। राजा ने उन्हें एक-एक कर अपने पास बुलाया। पहली से उसने कहा, “बेटी, कल रात तुम बग़ीचे में सहेलियों से क्या कह रह थी?”

उसने जवाब दिया, “मैंने आपके ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा महाराज!”

“मेरा यह मतलब नहीं। तुम जो कह रही थी वह बताओ!”

“मैं कह रही थी कि माँस का स्वाद सबसे अच्छा होता है।”

“तुम्हारी जाति क्या है?”

“मैं भाब्र हूँ।”

“अगर तुम भाब्र आदिवासी की बेटी हो तो तुम्हें माँस का स्वाद क्या मालूम? भाब्र तो माँस छूते भी नहीं। वे तो पानी तक छानकर पीते हैं कि कहीं कोई कीड़ा पेट में चला जाए।”

“यह सच है। लेकिन जो मैंने देखा उससे मुझे लगा कि माँस का स्वाद बहुत अच्छा होता होगा। हमारे घर के पास कसाई की दुकान है। मैंने देखा कि माँस का कोई हिस्सा बेकार नहीं जाता। आदमी के माँस खाते ही कुत्ते हड्डियों पर झपट पड़ते हैं। वे हड्डियों को तब तक चिंचोड़ते हैं जब तक वे बल्लम की तरह साफ़-सफाक नहीं हो जातीं। उसके बाद उन्हें कव्वे ले जाते हैं। कव्वे पीछा छोड़ते हैं तो चींटियाँ टूट पड़ती हैं। इसलिए मैंने सोचा कि माँस का स्वाद सबसे अच्छा होगा।”

उसकी दलील से राजा बहुत ख़ुश हुआ। बोला, “हाँ बेटी, माँस की बात ही कुछ और है।” और उसे उपहार देकर विदा किया।

फिर दूसरी लड़की को अंदर लाया गया। राजा ने उससे पूछा, “कल रात तुम बग़ीचे में क्या कह रही थी?”

“मैंने आपके बारे में कुछ नहीं कहा महाराज!”

“वह मुझे पता है। तुमने जो कहा मैं वही जानना चाहता हूँ।”

“मैंने कहा कि शराब के स्वाद के आगे सारे स्वाद पानी भरते हैं।”

“तुम्हारी जाति क्या है?”

“मैं पुरोहित हूँ।”

“कैसा परिहास है! पुरोहित तो शराब के नाम से ही घृणा करते हैं। तुम शराब का स्वाद क्या जानो!”

पुरोहित की लड़की ने कहा, “आप ठीक कहते हैं। मैंने कभी शराब चखी भी नहीं। पर मैं अंदाज़ लगा सकती हूँ कि शराब का अपना ही मज़ा है। हमारी गली में कलवारियों की दुकानें हैं। अपनी छत से मैं कई बार शराबियों को देखती हूँ। एक बार मैंने दो आदमियों को कलवार की दुकान में घुसते देखा। चाल-ढाल से वे अच्छे घर के लगते थे। उन्होंने शराब ली और वहीं बैठकर पीने लगे। शराब ख़त्म करके वे जाने लगे तो उनके क़दम बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे। मैंने मन ही मन कहा, ‘देखो इन्हें, कैसे दीवार का सहारा लेकर चल रहे हैं! हर क़दम पर गिरते हैं, जैसे-तैसे उठते हैं मगर अगले ही पल फिर गिर पड़ते हैं। आइंदा यह शराब छूएँगे भी नहीं।’ पर मेरा अंदाज़ ग़लत निकला। अगले ही दिन वे फिर आए और जमकर शराब पी। उस दिन मुझे लगा कि शराब बहुत स्वादिष्ट होती होगी। तभी तो लोग उसे बार-बार पीते हैं!”

राजा ने कहा, “हाँ बेटी, तुमने ठीक कहा। शराब का स्वाद सचमुच बहुत मज़ेदार होता है।” फिर राजा ने उसे उपहार देकर विदा किया। उसके बाद उसने तीसरी लड़की को बुलाया और पूछा, “कल रात तुम बग़ीचे में क्या कह रही थी?”

“मैंने आपके लिए कुछ नहीं कहा अन्नदाता!”

“वह मैं जानता हूँ। मुझे बताओ तुम क्या कह रही थी।”

“मैं कह रही थी कि सहवास से अधिक मीठा दुनिया में कुछ नहीं है।”

“पर तुम अभी बहुत छोटी हो। सहवास के बारे में तुम जानती क्या हो! तुम किसकी बेटी हो?”

“मैं भाट की बेटी हूँ। यह सच है कि मैं बहुत छोटी हूँ, पर मैं भी देखती-समझती हूँ। जो मैंने देखा उससे मुझे लगा कि सहवास में बड़ा आनंद है। मेरे छोटे भाई के जन्म पर माँ ने बहुत कष्ट उठाया। उसके बचने की भी आस नहीं रही। इतना होने पर भी कुछ ही दिन बाद वह फिर नाचने-गाने लगी और अपने चाहने वालों की ख़ातिरदारी करने लगी। इसलिए मुझे लगा कि सहवास की चाह को दबाया नहीं जा सकता।”

“तुम बिलकुल ठीक कहती हो, “राजा ने कहा और उसे उपहार देकर विदा किया। जब उसने चौथी लड़की से पूछा कि कल वह और उसकी सहेलियाँ क्या बातें कर रही थीं तो उसने भी कहा, “हमने आपके बारे में कुछ नहीं कहा अन्नदाता!”

“वह ठीक है, तुम क्या कह रही थी यह बताओ!”

“ओह! मैंने कहा कि जो लोग झूठ बोलते हैं उन्हें उसमें बड़ा मज़ा आता होगा।”

“तुम किसकी बेटी हो?”

“मैं जाट की बेटी हूँ।”

“तुमने कैसे जाना कि झूठ बोलने में बड़ा मज़ा है?”

ढीठ लड़की ने कहा, “सब लोग झूठ बोलते हैं। आपने भी कभी झूठ बोला होगा और नहीं बोला है तो किसी दिन ज़रूर बोलेंगे।”

“तुम क्या कह रही हो कुछ होश है?”

“मुझे दो लाख रूपए दो। मैं छह महीने में यह साबित कर दूँगी।” राजा को कुतूहल हुआ उसने उसे दो लाख रुपए दे दिए।

छह महीने बाद राजा ने उसे दरबार में बुलाया और उसे उसके वादे की याद दिलाई। इस बीच लड़की ने राजा के दिए पैसों से एक शानदार हवेली बनवा ली थी। हवेली नक़्क़ासी और चित्रों से सुसज्जित थी। उसमें रेशम और मलमल के पर्दे लगे थे। उसने राजा से कहा, “मेरे साथ चलिए, आपको भगवान के दर्शन होंगे।” शाम को राजा दो मंत्रियों के साथ उसकी हवेली पर गया।

लड़की ने कहा, “इसमें स्वयं भगवान निवास करते हैं, पर एक बार में वे एक आदमी को ही दर्शन देते हैं। और हाँ, वे हरामी के सामने प्रकट नहीं होते। अब आप एक-एक कर भीतर जा सकते हैं।”

राजा ने कहा, “ठीक है, पहले मेरे मंत्री जाएँगे। उसके बाद मैं जाऊँगा।”

एक मंत्री भीतर गया। भीतर एक सुसज्जित और शांत कमरा था। भगवान के लिए उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। उसने अपने-आप से कहा, “बहुत अच्छी जगह है, निश्चित ही भगवान के रहने लायक। पर कौन जाने मैं उन्हें देख सकूँगा या नहीं! हो सकता है मैं हरामी होऊँ?” वह थोड़ी देर आँखें फाड़-फाड़कर देखता रहा, पर उसे भगवान नहीं दिखे। सोचा, “अगर बाहर जाकर मैंने कहा कि मुझे भगवान नहीं दिखे तो वे मुझे हरामी समझेंगे। इसलिए मुझे यह कहना ही होगा कि मैंने भगवान को देखा।”

अतः जब वह बाहर आया और राजा ने उससे पूछा कि क्या उसने भगवान को देखा तो उसने झट से कहा, “हाँ, मैंने भगवान को देखा, बिलकुल वैसे ही जैसे आपको देख रहा हूँ।”

“सच, तुमने भगवान को देखा?”

“हाँ, बिलकुल सच!”

“उन्होंने तुम से क्या कहा?”

“उन्होंने कहा कि जो उन्होंने कहा वह किसी को बताना मत।

तब राजा ने दूसरे मंत्री को भीतर भेजा।

देहरी को लाँघते हुए दूसरे मंत्री को ख़याल आया, “कौन जाने वह हरामी हो?” भव्य कक्ष में पहुँचकर उसने चारों तरफ़ देखा, पर उसे वहाँ भगवान का कोई चिह्न नज़र नहीं आया। उसने सोचा, “हो सकता है मैं हरामी होऊँ, तभी मुझे भगवान दिख नहीं रहे। पर यह स्वीकार करने से तो नाक कट जाएगी। यही कहना अच्छा होगा कि उसने भगवान को देखा।”

वापस आकर उसने राजा से कहा, “मैंने भगवान को देखा और उनसे बातें भी की।”

अब राजा की बारी थी। पूरे आत्मविश्वास के साथ उसने कक्ष में प्रवेश किया। हर तरफ़ उसने बड़े ग़ौर से देखा, पर उसे वहाँ परमात्मा का कोई लक्षण नज़र नहीं आया। वह उलझन में पड़ गया। उसे स्वयं पर शक हुआ। “मेरे दोनों मंत्रियों को भगवान ने दर्शन दिए। निश्चित ही वे असल बाप की औलाद हैं। यह कैसे संभव है कि मैं, यहाँ का राजा, हराम की औलाद होऊँ? यह कबूल करने से तो सब गड़बड़ हो जाएगा। जाने लोग क्या सोंचे? मुझे यह कहना ही पड़ेगा कि मैंने भगवान को देखा।” मन ही मन यह तय करके राजा कक्ष से बाहर आया।

लड़की बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रही थी। आते ही पूछा, “कहिए महाराज, आप ने भी भगवान को देखा?”

राजा ने दृढ़ता से कहा, “हाँ, मैंने भगवान को देखा।”

“सच कह रहे हैं?” लड़की ने फिर पूछा।

“हाँ, हाँ, सोलहो आने सच!” राजा ने जोर देकर कहा।

लड़की ने तीन बार यह सवाल पूछा और तीनों बार राजा बेधड़क झूठ बोला।

“ओह महाराज, पता है आप क्या कह रहे हैं? भगवान तो परम आत्मा है, उसे कोई कैसे देख सकता है?”

फटकार सुनकर राजा को ध्यान आया कि इस लड़की ने कहा था कि वह भी कभी झूठ बोलेगा। वह ठठाकर हँसा और स्वीकार किया कि उसे भगवान नहीं दिखे। दोनों मंत्रियों ने भी सर झुका कर सचाई कबूल की। लड़की ने कहा, “महाराज, हम ग़रीबों को तो जीने के लिए जब-तब झूठ बोलना पड़ता है, पर आपके लिए तो ऐसी कोई लाचारी है नहीं, फिर आप झूठ क्यों बोले? इसलिए कि झूठ बोलने का अपना मज़ा है। जो झूठ बोलते हैं उन्हें वह बहुत मीठा लगता है।”

लड़की की चालाकी पर राजा ग़ुस्सा नहीं हुआ। बल्कि उसकी बुद्धिमानी और आत्मविश्वास से वह दंग रह गया। उसने उसके पिता से उसका हाथ माँगा और उससे शादी कर ली। राज-काज की बात हो या व्यक्तिगत, हर मामले में वह उसकी विश्वसनीय सलाहकार हो गई। दिनोंदिन उसकी बुद्धिमानी की चमक बढ़ती गई। उसकी ख्याति मुल्क और समय की सीमा को पार कर गई।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 93)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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