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सुखू और दुखू

sukhu aur dukhu

किसी आदमी के दो पत्नियाँ थीं। दोनों के एक-एक बेटी थी। बड़ी पत्नी की बेटी का नाम था दुखू और छोटी पत्नी की बेटी का नाम था सुखू। पति छोटी पत्नी और उसकी बेटी को अधिक चाहता था।

दोनों बेटियाँ अपनी-अपनी माँ पर गई थीं। दुखू जितनी कामगर और स्नेही थी सुखू उतनी ही आलसी और झगड़ालू। सुखू और उसकी माँ को दुखू और उसकी माँ आँखों देखी नहीं सुहाती थी। उन्हें तंग करने का कोई भी मौक़ा वे हाथ से नहीं जाने देती थीं।

एक बार वह आदमी बीमार पड़ा और तमाम दवा-दारू के बावजूद मर गया। छोटी पत्नी ने उसकी ज़मीन-जायदाद पर क़ब्ज़ा कर लिया और दुखू और उसकी माँ को धक्के देकर घर से निकाल दिया।

असहाय दुखू और उसकी माँ ने गाँव के बाहर एक उजाड़ झोंपड़ी में शरण ली और सूत कातकर अपना गुज़ारा करने लगीं।

एक दिन दुखू झोंपड़ी के बाहर बैठी सूत कात रही थी कि रुई का गाला हवा में उड़ गया वह उसके पीछे भागी, पर गाला हाथ नहीं आया। वह हताश होकर रोने लगी। तभी उसे हवा में एक आवाज़ सुनाई पड़ी, “दुखू, रोओ मत। मेरे साथ आओ। तुम्हें जितनी रुई चाहिए मैं दूँगी।”

सो वह हवा के पीछे चल पड़ी।

रास्ते में उसे एक गाय मिली। गाय ने उससे कहा, “इतनी जल्दी क्या है दुखू? मेरा अड़ान गोबर से अटा पड़ा है। ज़रा इसे साफ़ कर दे, मैं तेरे बहुत काम आऊँगी।” दुखू ने दो एक सूखे पौधों का झाड़ू बनाया और कुएँ से पानी लाकर अड़ान एकदम साफ़ कर दिया।

हवा दुखू के फ़ारिग़ होने का इंतज़ार करती रही। फ़ारिग़ होते ही वह हवा के साथ चल पड़ी। रास्ते में एक केले का पेड़ मिला। उसने दुखू को रोक लिया, “कहाँ जा रही हो दुखू? देखो, ये लताएँ मुझ पर कैसे लदी पड़ी हैं! इनके बोझ के मारे मुझसे सीधा खड़ा भी नहीं हुआ जाता। रात-दिन झुके-झुके खड़े रहना कितना मुश्किल है! पोर-पोर दुखता है। इन्हें हटा दो न, मेरी प्यारी दुखू!”

“बड़ी ख़ुशी से!” दुखू ने कहा और लताओं को हटा दिया जो केले के पेड़ का दम घोटे दे रही थीं।

केले के पेड़ ने कहा, “तुम कितनी अच्छी हो! तुम्हारा उपकार मैं कभी नहीं भूलूँगा।”

“इसमें उपकार की भला क्या बात है!” दुखू ने कहा और तेज़ी से चल पड़ी। हवा उसकी बाट जोह रही थी।

आगे उसे एक घोड़ा मिला। बोला, “कहाँ जा रही हो दुखू? काठी और लगाम से मेरे घाव हो गए हैं। घास चरने के लिए मैं झुक भी नहीं सकता। मेहरबानी करके इन्हें ज़रा हटा नहीं दोगी?”

दुखू ने उसकी काठी और लगाम खोल दी। घोड़े ने उसका बहुत एहसान माना। उसने दुखू को उपहार देने का वादा किया।

वहाँ से चले तो हवा ने कहा, “वह महल देख रही हो न! वहाँ चाँद की माँ रहती है। वह तुम्हें ढेर सारी रुई देगी।”

इतना कहकर हवा चली गई।

दुखू महल की ओर चली। वह बिलकुल उजाड़ लगता था। उसे भय और अकेलेपन का अनुभव हुआ। कुछ देर वह महल के सामने खड़ी रही। आख़िर जी कड़ा करके उसने अंदर क़दम रखा। वह डरते-डरते कई कमरों में गई, पर उसे कहीं चूहा तक नज़र नहीं आया। सहसा एक बंद दरवाज़े के पीछे उसे कुछ आवाज़ सुनाई पड़ी। वह दरवाज़े के पास गई और धीरे से कुंडी खटखटाई। भीतर से आवाज़ आई, “अंदर जाओ।”

दुखू ने धीरे से दरवाज़ा खोला। भीतर एक बुढ़िया चरखा चला रही थी। वह ऐसे दिप-दिप कर रही थी जैसे चाँद उसके ऊपर ही चमक रहा हो।

दुखू ने उसके पाँव छुए और कहा, “नानी, हवा मेरी रुई उड़ाकर ले गई। अगर मैं सूत नहीं कातूँगी तो मैं और मेरी माँ भूखों मर जाएँगी। क्या तुम मुझे थोड़ी रुई दोगी?”

“मैं तुम्हें रुई से भी बढ़िया चीज़ दूँगी, यदि तुम उसके योग्य हो।” कहते हुए चाँद की बूढ़ी माँ ने खिड़की से बाहर की ओर इशारा किया,” वह तालाब देख रही हो न? जाओ, उसमें दो बार डुबकी लगाकर आओ। पर ध्यान रखना केवल दो बार, तीन बार नहीं।”

दुखू तालाब पर गई और डुबकी लगाई। पानी से बाहर निकली तो वह ख़ुद को पहचान नहीं पाई। सौंदर्य जैसे छलका पड़ रहा था। दूसरी डुबकी लगाने पर वह हीरे पन्नों और माणिक-मोतियों से लद गई। मलमल की साड़ी और सोने के चंद्रहार के बोझ से वह झुकी पड़ रही थी। इस अनहोनी पर उसे भरोसा नहीं हो रहा था।

वह भागती हुई महल में गई तो बुढ़िया ने कहा, “बिटिया, तुझे भूख लगी होगी। जा, अगले कमरे में कुछ खा ले!”

अगले कमरे में भाँति-भाँति के पकवान रखे थे। बढ़िया चावल, तरह-तरह के रसेदार साग और एक से बढ़कर एक मिठाइयाँ। ऐसे व्यंजन दुखू ने सपने में भी नहीं देखे थे। छककर खाने के उपरांत वह वापस बुढ़िया के कमरे में गई। बुढ़िया ने कहा, “मैं तुझे कुछ और भी दूँगी।” कहते हुए उसने तीन संदूक़चियाँ दिखाई। दूसरी पहली वाली से बड़ी और तीसरी उससे भी बड़ी। “कोई एक संदूक़ची ले लो!” दुखू ने सबसे छोटी संदूक़ची ली, बुढ़िया को प्रणाम किया और घर के लिए चल पड़ी।

वापसी में उसे घोड़ा, केले का पेड़ और गाय फिर मिले। हरेक उसे कुछ उपहार देना चाहता था। घोड़े ने उसे पाकशीराज नस्ल का बछेड़ा दिया। केले के पेड़ ने उसे सोने सरीखे पीले पके हुए केलों का गुच्छा और मोहरों से भरा एक कलश दिया। और गाय ने उसे भूरी बछिया दी जिसके थनों में दूध कभी ख़त्म नहीं होता था।

अनमोल उपहारों के लिए दुखू ने सबका बहुत आभार माना और एक हाथ में मोहरों का कलश और दूसरे हाथ में केले का गुच्छा लिए हुए बछेड़े पर बैठ गई। भूरी बछिया उसके साथ-साथ उछलती-कूदती चल रही थी।

उधर दुखू की माँ को कुछ पता नहीं था कि दुखू कहाँ गई है और कब लौटेगी। बेटी की चिंता में माँ ने खाट पकड़ ली। उसकी ख़ुशी का पार रहा जब उसने दुखू की आवाज़ सुनी, “माँ, तुम कहाँ हो? देखो, मैं क्या लाई हूँ!”

ख़ुशी का ज्वार कुछ कम हुआ तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं—मलमल, हीरे-मोती, मोहरें, केले, बछेड़ा और बछिया! कभी इसे देखती कभी उसे। ख़ुशी और अचरज से वह गूँगी हो गई।

थोड़ी देर बाद जब उसकी आवाज़ लौटी तो उसने बेटी से पूछा कि ये निराली चीज़ें वह कहाँ से लाईं। दुखू ने उसे हवा, गाय, केले के पेड़, घोड़े और चाँद की बूढ़ी माँ की एक-एक बात बताई। अंत में कहा, “यही नहीं, उसने मुझे यह संदूक़ची भी दी।”

दुखू ने माँ को संदूक़ची दिखाई। उन्होंने सोचा यह हीरे-मोती और सोने-चाँदी से भरी होगी। लेकिन उन्होंने उसे आहिस्ता से खोला तो उसमें से राजकुमारों जैसे कपड़े पहने हुए बहुत रूपवान एक नौजवान निकला।

“मुझे तुमसे शादी करने के लिए भेजा गया है।” एक शब्द भी व्यर्थ गँवाए बिना उसने दुखू से कहा।

विवाह का मुहूर्त भेजा गया और जात-बिरादरी और गाँव वालों को न्यौता भेजा गया। बहुत धूमधाम से विवाह हुआ। गाँव में दो ही लोग थे जो विवाह-भोज में शामिल नहीं हुए—सुखू और उसकी माँ।

दुखू की माँ भली महिला थी। इतना धन पाकर भी उसका माथा नहीं फिरा। अपनी सौत और सुखू के लिए उसके मन में कोई दुर्भावना नहीं थी। सो उसने कुछ गहने सुखू को देने चाहे। सुखू की माँ को यह अपनी बेइज़्ज़ती जान पड़ी। उसे मुक्का दिखाते हुए वह फुफकारी, “सुखू को तुम्हारी उतरन नहीं चाहिए। वह गहनों के लिए मरी नहीं जाती। मेरी बेटी के भाग्य में गहने लिखे होते तो उसका बाप क्यों मरता! मेरी बेटी यों ही बहुत सुंदर है, उसे गहनों की ज़रूरत नहीं। उल्लू जैसे भौंडे चेहरे वाली लड़कियों को ही अच्छी दिखने के लिए रेशमी साड़ियाँ और चंद्रहार चाहिए।”

पर ग़ुस्से में भी वह यह पता लगाना नहीं भूली कि दुखू की क़िस्मत कैसे चमकी। यह जानकर कि कहाँ और कैसे दुखू को चाँद की माँ मिली उसने मन ही मन कहा, “मैं इसे दिखाऊँगी! यह अपने अच्छे भाग्य को मेरे मुँह पर मारना चाहती है। मेरी सुखू के पास दुखू से सौ गुना ज़्यादा गहने होंगे।”

उसने सुखू को एक चरखा ला दिया और उसे घर के बाहर अहाते में सूत कातने के लिए बिठा दिया। हवा काफ़ी तेज़ चल रही थी। उसने बेटी से कहा, “सुखू, मेरी लाडली, मेरी बात ध्यान से सुन! हवा तेरी रुई उड़ाकर ले जाए तो ख़ूब चिल्लाना, चीख़ना, विलाप करना। देख, भूल मत करना! और तब तक मत रुकना जब तक हवा तुझे अपने साथ चलने को कहे। रास्ते में जो भी मिले उससे अच्छा बरताव करना। जिधर हवा ले जाए चलती जाना जब तक कि चाँद की माँ से मिल लो।”

“मैं वही करूँगी माँ जो तुमने कहा है, “सुखू ने कहा और सूत कातने लगी।

जैसी कि आशा थी थोड़ी देर बाद उसकी रुई उड़ गई। वह इस तरह रोने-चीख़ने लगी मानो घर में कोई मर गया हो।

हवा ने कहा, “रोओ मत सुखू! रुई के गाले के लिए कोई ऐसे रोता है भला! मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें बहुत-सी रुई दूँगी।”

सुखू भी हवा के साथ चल पड़ी जैसे कि दुखू गई थी। उसे भी गाय मिली जिसने उसे अपना अड़ान साफ़ करने को कहा। सुखू ने सर धुनते हुए कहा, “मैं तेरा गंधाता अड़ान साफ़ करूँ, ऊँह! मैं चाँद से मिलने जा रही हूँ।”

केले के पेड़ से उसने कहा, “हाँ, हाँ, और मुझे काम ही क्या है! मैं ठाली नहीं हूँ। मैं चाँद की माँ से मिलने जा रही हूँ।”

उसने घोड़े को भी दुत्कार दिया, “मूर्ख टट्टू कहीं का! मैं तेरे साईस की छोरी नहीं हूँ और ही उसकी कुछ लगती हूँ।”

उन्होंने कुछ नहीं कहा। वे समय की प्रतीक्षा करने लगे।

महल बहुत दूर था। सुखू थकान से चूर हो गई। वह महल तक पहुँची तो उसका मिज़ाज बिगड़ा हुआ था। माँ की हिदायत को भूलकर वह धड़ाम से कमरे में घुसी और चिल्लाई, “हवा मेरी सारी रुई ले गई। तुम फटाफट मुझे थोड़ी रुई दो, नहीं तो मैं सब तोड़-फोड़ दूँगी। जल्दी करो, जल्दी!”

बुढ़िया ने अपनी आवाज़ ऊँची नहीं की। उसने कोमलता से कहा, “धीरज रखो। मैं तुम्हें रुई से भी बढ़िया चीज़ दूँगी। जैसा मैं कहूँ करती जाओ। खिड़की से तालाब दिख रहा है न? जाओ और उसमें दो डुबकी लगाकर आओ। केवल दो, हाँ, ज़्यादा नहीं, नहीं तो तुम बहुत पछताओगी।”

सुखू तालाब की ओर भागी और पानी में कूद गई। इससे वह अप्सरा-सी सुंदर हो गई। उसने दूसरी बार डुबकी लगाई तो वह रेशम और गहनों से लद गई। वह ख़ुशी से पागल हो गई और पानी में अपनी छवि देखने लगी। सोचा, “अगर मैं एक और डुबकी लगाऊँ तो ज़रूर मुझे दुखू से कहीं ज़्यादा मिलेगा। बुढ़िया नहीं चाहती कि मुझे दुखू से ज़्यादा मिले। इसीलिए उसने मुझे दो से ज़्यादा डुबकियाँ लगाने से मना किया था। पर मैं लगाऊँगी।” और उसने तीसरी बार गोता लगाया। पर इस बार वह पानी से बाहर आई तो उस पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। उसका सारा सौंदर्य और ठाट-बाट गुम हो गया, उसकी नाक हाथी की सूंड की तरह लंबी हो गई और पूरा शरीर फफोलों और फोड़ों से अट गया।

वह ग़ुस्से से सुलगती हुई भागकर बुढ़िया के कमरे में गई और सर झटकते हुए और हाथ नचाते हुए चिल्लाई, “देखो, तुमने मेरा क्या हाल कर दिया है!”

बुढ़िया ने उसे सर से पाँव तक देखते हुए कहा, “तुमने मेरा कहा नहीं माना। तुमने दो बार से ज़्यादा डुबकियाँ लगाईं। यह मेरा कहा नहीं मानने का फल है। इसके लिए तुम ख़ुद ज़िम्मेदार हो। ख़ैर, छोड़ो, मेरे पास तुम्हें देने के लिए एक और चीज़ है।”

फिर उसने सुखू को तीन संदूक़चियाँ दिखाईं—दूसरी पहली से बड़ी और तीसरी सबसे बड़ी—और उनमें से एक लेने को कहा। सुखू की आँखें मानो सबसे बड़ी संदूक़ची से चिपक गई थीं। उसने उसी को चुना।

उधर उस की माँ घर के अहाते में बेचैनी से टहल रही थी—सुखू अभी तक आई क्यों नहीं? वह चिल्लाई, “कब वह वापस आएगी और कब अनमोल जवाहर देखकर मेरी आँखें ठंडी होंगी?” तभी उसे झाड़ियों के पीछे से बेटी की आवाज़ सुन पड़ी, “माँ!”

माँ उसकी ओर लपकी। पर वहाँ उसने जो देखा उससे उसे इतना सदमा लगा कि वह मरी क्यों नहीं इसका उसे अचरज हुआ। उसकी बेटी की नाक हाथी की सूंड सरीखी लंबी हो गई थी। उसका शरीर गहनों की बजाए फफोलों और फोड़े-फुंसियों से भरा था। “यह क्या हुआ? यह क्या हुआ सुखू? क्यों? क्या किया तूने?” माँ हताशा से रो पड़ी।

सुखू ने उसे संदूक़ची दिखाते हुए कहा, “खूसट बुढ़िया ने मुझे चुनने के लिए कहा और मैंने सबसे बड़ी वाली चुनी।”

माँ ने सोचा, “इसमें ज़रूर बुढ़िया की कोई चाल है। इसमें कोई अनोखी चीज़ होगी इसमें शक नहीं। इस तरह बुढ़िया सारी कसर पूरी करना चाहती है और मेरी सुखू के साथ किए बरताव को धो देना चाहती है।” धड़कते हृदय से उसने संदूक़ची खोली। संदूक़ची में से एक काला लंबा साँप निकला। वह क्रोध से फुफकारता हुआ सुखू की ओर झपटा और उसे समूचा निगल गया—वैसे ही जैसे अजगर बकरी को निगलता है।

उसकी माँ पागल हो गई और जल्दी ही मर गई।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 62)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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