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और भाग्य हार गया

aur bhagya haar gaya

एक ज्ञानपिपासु युवा ब्राह्मण था। उसने एक महान ऋषि के बारे में सुना जो सांसारिक आपाधापी से दूर घने जंगल में रहता था। ज्ञानपिपासु ब्राह्मण ऋषि की खोज में चल पड़ा। कंटीली झांड़ियों और जंगली जानवरों के ख़तरे के बीच वह कई दिन चलता रहा। अंततः वह नदी के किनारे बनी ऋषि की कुटिया पर पहुँचा। बूढ़ा ऋषि जिज्ञासु ब्राह्मण को देखकर प्रसन्न हुआ और उसे अपना शिष्य स्वीकार किया। ब्राह्मण उनके साथ रहने लगा। ब्राह्मण गुरु और गुरुपत्नी की तन-मन से सेवा करता था और उनके काम में हाथ बँटाता था। बाक़ी समय वह गुरु से अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा में लगाता था।

वृद्ध ऋषि का पौरुष अब भी ढला नहीं था। उम्र की ढलान में गुरुपत्नी पहली बार गर्भवती हुई। आठ महीने का गर्भ हो जाने पर ऋषि ने तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया। इस स्थिति में वह पत्नी को साथ नहीं ले जा सकता था। सो पत्नी की देखभाल का दायित्व उसने अपने शिष्य और पड़ोस की ऋषिपत्नी को सौंपा और यात्रा पर निकल गया।

वृद्ध गुरुपत्नी का प्रसवकाल पास ही था। यथासमय उसके प्रसवपीड़ा प्रारंभ हुई। पड़ोसन ऋषिपत्नी सार-संभाल के लिए कुटिया में उपस्थित थी। चिंतित शिष्य कुटिया के बाहर टहलता हुआ जज्जा-बच्चा की कुशलता के लिए प्रार्थना कर रहा था।

शिशु का भाग्य लिखने के लिए ब्रह्मा को आना ही था। साधारण मनुष्य उन्हें नहीं देख सकता, पर युवा ब्राह्मण शिष्य की आँखें साधारण मनुष्यों जैसी तो थीं नहीं। गुरु से उसे ज्ञान के साथ-साथ अनेक सिद्धियाँ भी मिली थीं। वह यह देखकर चकित रह गया कि मामूली कपड़े पहने एक आदमी कुटिया में जा रहा है।

“ए, रुको, रुको! एक पग भी आगे मत बढ़ाना,” शिष्य क्रोध से चिल्लाया। ब्रह्मा के रोंगटे खड़े हो गए। आज दिन तक तो उन्हें किसी ने देखा था और ही किसी ने उनके काम में टाँग अड़ाई थी। वे अप्रतिम खड़े रह गए। उसके उपरांत शिष्य ने जो कहा उससे उनका आश्चर्य और बढ़ गया। शिष्य ने कहा, “ए बूढ़े ब्राह्मण, पूछा ताछा, मुँह उठाए घुसे जा रहे हो! गुरुआइन के बच्चा हो रहा है। तुम अंदर नहीं जा सकते।”

ब्रह्मा ने झिझकते हुए उसे बताया कि वह कौन हैं और क्यों आए हैं। बच्चा गर्भ से बाहर आने ही वाला है, उनके पास समय बहुत कम है। यह जानकर कि वे ब्रह्मा हैं शिष्य ने अपना उत्तरीय कमर पर बाँधा और दंडवत करके उनसे क्षमा याचना की।

ब्रह्मा के पास समय बिलकुल नहीं था। वे तुरंत भीतर जाना चाहते थे। पर शिष्य अड़ गया कि जब तक वे यह नहीं बता देते कि वे नवजात शिशु के भाग्य में क्या लिखने जा रहे हैं वह उन्हें भीतर नहीं जाने देगा। ब्रह्मा ने कहा, “वत्स, यह तो मैं भी नहीं जानता कि मेरी लेखनी शिशु के ललाट पर क्या लिखेगी। जैसे ही शिशु गर्भ से बाहर आएगा मैं लेखनी उसके ललाट पर रख दूँगा। लेखनी आप ही उसके पिछले कर्मों के अनुसार उसका भाग्य लिख देगी। मेरा समय नष्ट मत करो। मुझे अंदर जाने दो।”

शिष्य ने कहा, “जाओ, पर लौटते समय आपको बच्चे का भाग्य मुझे बताना होगा।”

ब्रह्मा ने जल्दी से कहा, “ठीक है”, और कुटिया में चले गए। कुछ ही क्षणों में वे बाहर गए। शिष्य ने पूछा कि उनकी लेखनी ने क्या लिखा?

ब्रह्मा ने कहा, “बताता हूँ वत्स! परंतु स्मरण रखना, यदि तुमने यह बात किसी को बताई तो तुम्हारे शीष के सहस्र टुकड़े हो जाएँगे। तुम्हारी गुरुआइन के पुत्र हुआ है। उसका जीवन बहुत दरिद्रता में बीतेगा। एक भैंस और एक बोरी धान के अतिरिक्त उसके पास कभी कुछ नहीं होगा। इन्हीं के सहारे इनका जीवन कटेगा। क्या किया जा सकता है?”

“क्या? महान ऋषि के पुत्र का ऐसा भाग्य?” शिष्य चीख़ उठा।

“मैं इसमें क्या कर सकता हूँ! यह सब पिछले जन्मों का फल है। जो कर्म पिछले जन्म में किए उनका परिणाम तो भुगतना ही होगा। पर जो मैंने कहा वह भूल मत जाना? यदि तुमने किसी को यह रहस्य बताया तो तुम्हारे शीष के सहस्र टुकड़े हो जाएँगे।”

इतना कहकर ब्रह्मा अंतर्ध्यान हो गए। शिष्य मूर्तिवत खड़ा रह गया। यह सोचकर उसका हृदय फटा जा रहा था कि कैसा विकट जीवन नवजात शिशु की प्रतीक्षा कर रहा है। पर वह किसी से इसकी चर्चा नहीं कर सकता था। ऋषि तीर्थयात्रा से लौट आया। पत्नी और पुत्र को स्वस्थ देखकर उसे प्रसन्नता हुई। विद्वान तपस्वी के सानिध्य में शिष्य का दुख विस्मृत हो गया।

गहन अध्ययन में तीन बरस पलक झपकते बीत गए। वृद्ध ऋषि ने फिर तुंगभद्रा नदी के स्रोत की यात्रा पर जाने का निश्चय किया। इस बार भी उसकी पत्नी गर्भवती थी। पत्नी को उसे शिष्य और मित्र की पत्नी की देखरेख में छोड़ना पड़ा। इस बार भी ब्रह्मा प्रसव के समय आए। उन्हें तो आना ही था। शिष्य भी उनकी बाट जो रहा था। ब्रह्मा को फिर द्वार पर रुकना पड़ा और शिष्य को वचन देना पड़ा कि उसकी लेखनी वह बता देगा। वापस जाते समय उन्होंने शिष्य को कहा, “इस बार पुत्री हुई है। मेरी लेखनी ने लिखा है कि यह वेश्यावृति से जीवनयापन करेगी। प्रत्येक रात्रि इसे देह बेचनी होगी। परंतु जो मैंने पिछली बार कहा वह स्मरण रखना। यदि तुमने यह बात किसी को बताई तो तुम्हारे शीष के सहस्र टुकड़े हो जाएँगे।”

ब्रह्मा चले गए, पर शिष्य को भयंकर आघात दे गए। पावन ऋषि की पुत्री और वेश्या! इससे उसे इतना दुख हुआ कि उसके लिए उसे शब्द नहीं मिल रहे थे। कई दिनों तक वह इस बात से व्यथित रहा। अंततः उसने यह कहकर अपने मन को सांत्वना दी कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना भाग्य है। वही उसके जीवन का नियंता है।

ऋषि तीर्थयात्रा से लौट आया। शिष्य और दो बरस वहाँ रहा। दो बरस के पश्चात शिष्य ने हिमालय की यात्रा पर जाने का निश्चय किया। अब गुरु का पुत्र पाँच बरस का हो गया था और पुत्री दो बरस की। बढ़ते बच्चों को देखता तो यह सोचकर उसका हृदय पीड़ा और क्षोभ से भर जाता कि कैसा घृणित जीवन उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। यद्यपि यह कहकर वह बार-बार अपने मन को समझाता कि भाग्य से कोई बच नहीं सकता।

गुरु की आज्ञा लेकर एक दिन उसने उस कुटिया और ऋषि-परिवार से विदा ली और हिमालय की ओर निकल पड़ा। उसने कई नगर देखे, कई तपस्वियों-मुनियों से मिला, उनके साथ रहा और ज्ञान प्राप्त किया। बीस बरस यहाँ-वहाँ भटकता वह संसार को और मनुष्य के स्वभाव को समझता रहा और प्रारब्ध की लीला पर चिंतन करता रहा। फिर उसने गुरु के आश्रम पर जाने का निश्चय किया जहाँ उसने अध्ययन आरंभ किया था।

वहाँ पहुँचकर उसे पता चला कि उसके गुरु ब्रह्मलीन हो गए हैं और गुरुपत्नी भी अब इस संसार में नहीं रही। व्यथित हृदय लिए वह गुरु के बेटे-बेटी को ढूँढ़ने निकट के नगर में गया। शीघ्र ही उसे एक दरिद्र व्यक्ति दिखा जो भैंस लिए जा रहा था। चिथड़े पहने इस आदमी को उसने तत्काल गुरुपुत्र के रूप में पहचान लिया। ब्रह्मा की निर्मम लेखनी ने उसके माथे पर जो लिख दिया वह होकर रहा। उसका हृदय भारी हो गया। अपने महान गुरु के पुत्र को एक भैंस के सहारे निर्वाह करते देखकर उसने कैसे सहन किया यह वही जानता है। उसके पीछे-पीछे वह उस झोंपड़ी तक गया जहाँ वह पत्नी और दो मरियल बच्चों के साथ रहता था। जमा-जत्था के नाम पर झोंपड़ी में धान ही एक बोरी के अलावा कुछ नहीं था। चिंतित गृहणी उसमें से रोज़ थोड़ा धान निकालती, उसे कूटती और भात बनाती थी। बोरी ख़ाली हो जाती तो जैसे तैसे बचाए पैसों से एक बोरी धान और जाता, बस। ऐसा जीवन वे जी रहे थे जैसा कि ब्रह्मा की लेखनी ने लिख दिया था।

शिष्य ने गृहस्वामी को उसके नाम से पुकारा और बातचीत शुरू की। पूछा, “मुझे पहचाना?”

अजान आदमी के मुँह से अपना नाम सुनकर गृहस्वामी चक्कर में पड़ गया। शिष्य ने उसे बताया कि वह कौन है और विनती की कि वह उसकी सलाह पर चले। शिष्य प्रौढ़ हो चला था और तपस्वी लगता था। गृहस्वामी उससे प्रभावित हुआ। शिष्य ने कहा, “वत्स, जैसा मैं कहूँ वैसा करो। कल प्रातः भैंस और धान की बोरी को हाट में ले जाओ और जितने में भी बिके बेच दो। मन में किसी प्रकार की शंका मत लाना। उन पैसों से भोज की सामग्री लेते आना। कल संध्या तक सब-कुछ समाप्त कर देना। अगले दिन के लिए एक पैसा भी बचाकर मत रखना। निर्धनों को खाना खिलाना और नगर के श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दान देना। तुम्हें इस पर कभी पश्चाताप नहीं होगा। मैं तुम्हारे पिता का शिष्य हूँ और तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा हूँ। मुझ पर विश्वास रखो।”

पर गृहस्वामी को भरोसा नहीं हुआ, “यदि कल सब बेच दूँगा तो हम चारे जनों का पेट कैसे भरेगा? तुम ब्राह्मण लोग मेरे जैसे निर्धनों को हमेशा यही सलाह देते हो कि अपना सबकुछ दान दे दो। इसमें तुम्हारा क्या जाता है ! तुम्हें तो कुछ मिलता ही है!”

गृहणी ने कहा, “तुम्हारे पिता इनके गुरु रहे हैं। ये सिद्ध-पुरुष लगते हैं। अवश्य ही ये कोई ऐसी बात जानते हैं जो हम नहीं जानते। एक दिन इनका कहनामानकर तो देखो!”

पत्नी के समर्थन से गृहस्वामी का संदेह दूर हो गया। अगले दिन यद्यपि मन में कुछ चिंता थी फिर भी उसने भैंस और धान की बोरी को बेच डाला। उन पैसों से जितनी सामग्री आई वह उसके परिजनों के साथ-साथ दोनों जून पचास-पचास ब्राह्मणों को खिलाने के लिए पर्याप्त थी। सो उस दिन जीवन में पहली बार उसने परिजनों के अतिरिक्त दूसरों को भोजन कराया। इस अपूर्व दिन की समाप्ति के बाद वह सोया तो अवश्य, पर उसे नींद नहीं आई। आधी रात को वह उठ बैठा। उसके पिता का शिष्य झोंपड़ी के बाहर धरती पर सो रहा था। आहट से शिष्य की आँखें खुल गईं। उसने जानना चाहा कि बात क्या है। गृहस्वामी ने कहा, “महाराज, जैसा आपने कहा मैंने किया। कुछ घड़ी में दिन निकल आएगा। पत्नी और बच्चों को मैं क्या खिलाऊँगा? घर में धान का एक दाना भी नहीं है और भैंस ही है जिसका दूध पिला सकूँ।”

सिद्ध-पुरुष ने उसे एक थैली दिखाई जिसमें इतना धन था कि उससे एक भैंस और एक बोरी धान ख़रीदा जा सके और कहा कि वह निश्चित होकर सो जाए और सवेरे देखे कि क्या होता है।

गृहस्वामी सो गया। पर बुरे सपनों ने नींद में भी उसका पिंड नहीं छोड़ा। भोर से पहले ही वह उठ बैठा। उठते ही वह कुएँ पर हाथ-मुँह धोने के लिए गया। मुँह धोते-धोते उसने टूटे-फूटे छप्पर की ओर देखा जहाँ वह अपनी भैंस बाँधता था। सवेरे उठते ही पहला काम वह उसे चारा डालने का करता था। उसने सोचा, आज छप्पर में भैंस है और उसे चारा डालना है। पर यह देखकर वह दंग रह गया कि वहाँ एक भैंस खड़ी है। “धत् तेरे की!” धिक्कार है इस निर्धनता पर! भैंस है ही नहीं और तुम भैंस के सपने देख रहे हो!” यह सोचते हुए वह दीया लेने के लिए भीतर गया। वह दीया लेकर वापस आया तो क्या देखता है कि छप्पर के नीचे सचमुच भैंस बँधी है और पास ही धान की बोरी रखी है। उसकी प्रसन्नता का पार रहा। वह भागा-भागा पिता के शिष्य के पास गया। शिष्य ने कहा, “भले मानुष! इसमें इतनी प्रसन्नता की क्या बात है! भैंस और बोरी को हाट में बेच दो और परिजनों और ब्राह्मणों को फिर बढ़िया भोज दो!”

गृहस्वामी ने आज बिलकुल आगा-पीछा नहीं सोचा। भैंस और धान को बेचकर घरवालों और पचास पंडितों को भव्य भोज दिया। एक पैसा भी बचाकर नहीं रखा। ऋषिपुत्र के घर में ऐसा प्रतिदिन होने लगा। हर सुबह उसे एक भैंस और धान की बोरी मिलती। उन्हें बेचकर हर दिन वह भोज का आयोजन करता। इस तरह एक महीना बीत गया। तपस्वी को विश्वास हो गया कि उसके गुरुभाई के जीवन में अब यह स्थाई सच्चाई है। उसका और उसके परिवार का जीवन सरलता से कट जाएगा। एक दिन उसने गृहस्वामी से कहा, “जब मैंने देखा कि मेरे गुरु के पुत्र का जीवन बहुत कष्टमय है तो मुझे कुछ करना ही था। जो मैं कर सकता था मैंने किया। अब तुम सुख से हो। जो कर रहे हो वह करते रहना। अगले दिन के लिए कुछ भी बचाकर मत रखना। यदि रखा तो बुरे दिन फिर लौट आएँगे। तुमने कुछ भी बचत की तो सौभाग्य तुम्हें छोड़कर चला जाएगा।”

ऋषिपुत्र ने अपने सौभाग्य को अपनी आँखों से देखा था। उसे अपने हाथों से हुआ था। उसने सिद्ध-पुरुष का बहुत-बहुत आभार माना और वचन दिया कि वह उनके निर्देश का अक्षरशः पालन करेगा। सिद्ध-पुरुष ने कहा, “अब मैं चलूँगा। मुझे किसी और का भी उद्धार करना है। तुम्हारी बहन कहाँ है? बीस वर्ष पहले जब मैं गया वह दो वर्ष की थी। देखूँ, उसका जीवन कैसा चल रहा है।”

बहन की बात छिड़ते ही ऋषिपुत्र की आँखें भर आईं। बोला, “उसका नाम मत लीजिए! वह हमारे लिए मर चुकी है। मुझे उस पर लज्जा आती है। ऐसी प्रसन्नता की घड़ी में मैं उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहता।” शिष्य को भली भाँति स्मरण था कि ब्रह्मा की निर्मम लेखनी ने उसके माथे पर क्या लिखा था। कहा, “कोई बात नहीं। मुझे केवल इतना बता दो कि वह है कहाँ?”

गृहस्वामी ने जैसे-तैसे अटकते हुए कहा, “वह पास ही के गाँव में रहती है। वह ग्रामणी है।”

गुरुभाई, उसकी पत्नी और बच्चों को आशीर्वाद देकर सिद्ध-पुरुष ने विदा ली। अब वह गुरु की बेटी के लिए कुछ करना चाहता था। वह उस गाँव की ओर चल पड़ा जिसमें वह रहती थी। गोधूलि की वेला में वह उसके घर जा पहुँचा और द्वार खटखटाया। उसके धँधे में दूसरी बार द्वार खटखटाने की अपेक्षा या प्रतीक्षा नहीं की जाती। संन्यासी को द्वार पर देखकर उसे आश्चर्य हुआ।

“मुझे पहचाना?” संन्यासी ने पूछा। पर वह कुछ स्मरण कर सकी। संन्यासी ने अपना परिचय दिया। यह जानकर कि वे उसके पिता के शिष्य हैं वह फूट-फूटकर रोने लगी। आज पुनः यह स्मरण करके कि वह महान ऋषि की पुत्री है उसकी आँखों से गंगा-यमुना बहने लगीं। वह संन्यासी के पैरों में गिर पड़ी। रुँधे गले से उसने बताया कि कैसे भूख उसे इस रास्ते पर ले आई और वह कितनी दुखी है! संन्यासी ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “पुत्री, यह देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है कि कैसे जीने की विवशता ने तुम्हें इस अधम मार्ग पर धकेल दिया। परंतु अब भी तुम इससे छुटकारा पा सकती हो। यदि तुम मेरा कहा मानोगी तो एक भिन्न जीवन जी सकोगी। आज रात उसी के लिए द्वार खोलना जो सच्चे मोतियों का कलश तुम्हें दे। आज की रात यह करके देखो। प्रातः मैं पुनः आऊँगा।”

जैसा जीवन उसे जीना पड़ रहा था उससे उसे घृणा थी। अतः संदेह होते हुए भी तपस्वी की बात उसने स्वीकार कर ली। उसने द्वार भीतर से बंद कर लिया। ग्राहक द्वार खटखटाते तो वह भीतर से ही कह देती कि उसका दाम बढ़ गया है। अब वह मोतियों से भरे कलश से कम स्वीकार नहीं करेगी। ग्राहकों ने सोचा वह पगला गई है और वापस चले गए। रात ढलने लगी तो उसे चिंता हुई। गाँव में ऐसा कौन है जो उसे मोतियों का कलश दे सके!

पर ब्रह्मा की भविष्यवाणी झूठ कैसे हो सकती है! रात्रि का तीसरा प्रहर बीत गया और कोई ग्राहक नहीं आया तो ब्रह्मा ने युवक का रूप धरा और मोतियों का कलश लेकर उसके यहाँ आए। अब स्वयं ब्रह्मा उसके प्रेमी थे।

तड़के वह चला गया। ऋषिपुत्री ने तपस्वी को बताया कि अंततः एक भव्य पुरुष मोतियों का कलश लेकर आया। तपस्वी जानता था कि उसका परामर्श व्यर्थ नहीं जाएगा। कहने लगा, “आज से तुम पवित्रतम स्त्रियों में से एक हो। संसार में ऐसे बिरले ही हैं जो तुम्हारे साथ एक रात बिताने का मोल चुका सके। अतः जो व्यक्ति कल रात्रि को मोतियों का कलश लेकर आया वह प्रत्येक रात्रि को आएगा। वह तुम्हारा एकमात्र प्रेमी और पति होगा। दूसरा कोई तुम्हें छू भी नहीं सकेगा। तुम केवल जैसा मैं कहता हूँ करती जाओ। रात्रि में जो मोती मिले वे सब सवेरे बेच देना और उन पैसों से निर्धन को भोजन कराना। एक पैसा या अन्न का एक दाना भी बचाकर मत रखना। संध्या तक सब-कुछ व्यय कर डालना। जिस दिन तुमने कुछ भी बचाकर रखा उस दिन तुम अपने पति से हाथ धो बैठोगी और तुम्हारा घृणित जीवन पुनः प्रारंभ हो जाएगा। यह कर सकोगी?”

ऋषिपुत्री तुरंत तैयार हो गई। तपस्वी ने उसके घर के पास ही पेड़ के नीचे डेरा डाला, जिससे देख सके कि उसकी युक्ति काम करती है या नहीं। उसे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि उसमें बाल भर भी अंतर नहीं आया।

अपने गुरु के पुत्र और पुत्री के जीवन के मोड़ से जब वह संतुष्ट हो गया तो उसने ऋषिपुत्री से अनुमति ली और तीर्थयात्रा पर निकल गया।

तीर्थयात्रा पर रवाना होने के दिन वह काफ़ी रात रहते उठ गया। चाँदनी रात थी। कव्वों की काँव-काँव सुनकर उसे भोर का भ्रम हुआ। सो वह उठा और यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया। वह कुछ ही दूर गया होगा कि उसे सामने से एक रूपवान पुरुष आता दिखा। उसके एक हाथ में भैंस की रस्सी थी, कंधे से मोतियों की गठरी झूल रही थी और सर पर धान की बोरी रखी थी।

तपस्वी ने पूछा, “आर्य, आप कौन हैं और इस समय कहाँ जा रहे हैं?”

यह सुनकर उस व्यक्ति ने धान की बोरी को नीचे पटका और रुआँसे स्वर में बोला, “देखो, तुम्हारे गुरु के पुत्र के लिए प्रतिरात्रि धान की बोरी ढो-ढोकर मेरे सर के बाल उड़ गए हैं। यह भैंस भी उसी के लिए है। उसके पश्चात भैंस बदलकर मुझे उसकी बहन के जाना होगा। मेरी लेखनी ने उनका जैसा भाग्य लिखा वह तुम्हारे जैसे घाघ व्यक्ति की कृपा से मेरे गले पड़ गया। उनके जन्म पर मैंने जो वचन दिया वह पूरा करना ही होगा। इस झंझट से तुम मुझे कब विदा करोगे?” कहते-कहते ब्रह्मा रो पड़ा। हाँ, यह कोई और नहीं, स्वयं ब्रह्मा था—भाग्यविधाता ब्रह्मा।

तपस्वी ने कहा, “जब तक आप उन्हें सहज सुखी जीवन प्रदान नहीं कर देते!” ब्रह्मा ने ऐसा किया तभी उसका फँदा कटा।

इस प्रकार भाग्य और ब्रह्मा हार गए।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 86)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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