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श्री. रामचंद्र शुक्ल

shree० ramchandr shukl

नंददुलारे वाजपेयी

नंददुलारे वाजपेयी

श्री. रामचंद्र शुक्ल

नंददुलारे वाजपेयी

और अधिकनंददुलारे वाजपेयी

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी आलोचना के लिए युग-प्रवर्तक कार्य कर गए हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय तक हिंदी आलोचना अपने नए रूप में अवतरित नहीं हुई थी। तब तक वह लक्षण ग्रंथों में रसों, अलंकारों, नायकों और विशेष कर नायिकाओं की सूची-मात्र बनी हुई थी। वैसे, मैं यह मानता हूँ कि रस और अलंकार, नायक और नायिका साहित्यिक आलोचना के आधारभूत तत्व ये ही हैं, पर जिन लक्षण-ग्रंथों की बात मैं कह रहा हूँ उनमें इन तत्त्वों की मीमांसा बहुत ही स्थूल रूप से की गई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि साहित्य-शास्त्र अथवा साहित्यिक अनुशासन का कार्य इन लक्षण-ग्रंथों से नहीं सध सका। अनुशासन तो दूर, साहित्य का साधारण मार्ग-निर्देश अथवा अच्छे-बुरे की पहचान तक ये नहीं करा सके। फिर इन्हें आलोचना ग्रंथ किस अर्थ में कहा जाए, यह भी एक समस्या ही है।

    उदाहरण के लिए लक्षण-ग्रंथों में उल्लेख किए गए किसी भी रस के एक प्रसंग को ले लीजिए। मान लें हम 'शृंगार-रस' का कोई प्रसंग लेते हैं। लक्षण-ग्रंथ द्वारा हम यह तो जान गए कि उक्त उद्धरण शृंगार रस का है। किंतु वह रस कितने छिछले अथवा कितने सौम्य शृंगार का है इसकी तुलनात्मक और मनोवैज्ञानिक विवेचना हम साधारणतः लक्षण-ग्रंथों में नहीं पाते। दूसरी बात यह कि उस 'रस' विशेष की अभिव्यंजना कितनी शक्तिपूर्ण अथवा निःशक्ति प्रणाली से हुई है यह कलात्मक विवेचना भी उनमें कम ही दिखाई देती है। तीसरी बात कि उस छिछले अथवा सौम्य शृंगार की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है—किन परिस्थितियों की वह प्रतिक्रिया है और सामाजिक जीवन पर वह किस प्रकार का असर डालेगा, इसके जानने का भी कोई साधन नहीं रहता। चौथी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रचनाकार की अपनी मानसिक स्थिति का भी हमें पता नहीं लगता। आलोचना के ये ही प्रधान सूत्र हैं और लक्षण-ग्रंथों में इन्हीं का अभाव था।

    साहित्यिक ह्रास के युग में आलोचना का भी ह्रास हो जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के पूर्व जो दशा साहित्य की थी वही इन लक्षण-ग्रंथों की भी। दोनों ही संस्कारहीन, परंपराबद्ध और अंतर्दृष्टिरहित हो रहे थे।

    जिस प्रकार के लक्षण-ग्रंथ हिंदी में प्रस्तुत किए गए उन्हें देखते हुए यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि इन लक्षण-ग्रंथों का प्रस्तुत किया जाना किसी समुन्नत साहित्य युग में संभव था।

    भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से स्थिति में परिवर्तन हो चला। आँखें खुलीं और यह आभासित हुआ कि रस किसी छंद में नहीं है, वह तो मानव संवेदना के विस्तार में है। नायक-नायिका कवि जी की कल्पना में निर्माण होने के लिए नहीं हैं। प्रगतिशील संसार की नानाविधि परिस्थितियों और सुख-दुःख की तरंगों में डूबने उतराने और घुलकर निखरने के लिए हैं और काव्यकला का सौष्ठव भी अनुभूति की गहराई में है, शब्दकोष के पन्ने उलटने में नहीं।

    यह प्रकाश हमें इस बार पश्चिम से मिला। सुनने में यह बात आश्चर्यजनक मालूम देती है, पर यह सच है कि तुलसीदास का महत्व हमने डॉक्टर ग्रियर्सन से सीखा। उसके पहले गोसाईं जी के 'मानस' का एक धार्मिक ग्रंथ के रूप में आदर अवश्य था, पर काव्य तो बिहारीलाल, पद्माकर और केशव का ही उत्कृष्ट समझा जाता था। उसके पहले क्या उसके पीछे भी हमारे साहित्य में ऐसे ‘अन्वेषकों’ की कमी नहीं रही जिन्होंने बिहारी की होड़ में 'देव' को तो 'ला रखा पर कबीर, मीरा, रसखान और जायसी के लिए मौन ही रहे। हमारे विश्वविद्यालयों ने इन अन्वेषकों को सम्मानपूर्ण डिग्रियाँ भी दी हैं। रीतियुग के ये 'अपटूडेट' हिंदी प्रतिनिधि हैं।

    ठीक इसके विपरीत पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी साहित्य में रीतिकालीन परंपरा के घोर विरोधी और कट्टर नैतिकता के पक्षपाती थे। उन्होंने सामयिक आदर्शों को प्रधानता दी और पुराने कवियों के मुक़ाबले भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा श्री मैथिलीशरण जी के काव्योत्थान की सराहना की। किसी विशेष वाद अथवा विचारधारा का काव्य में प्रवेश होना ही उसके उत्कर्ष का साधक है, कुछ ऐसी धारणा द्विवेदी जी की थी। आज के कुछ प्रगतिशील आलोचकों का भी ऐसा ही मत है। वह विचारधारा या वाद काव्य की अपनी सत्ता के साथ एकाकार हो गया है या नहीं, यह वे नहीं देखना चाहते। अग्रगामिता का प्रसाद द्विवेदी जी मेरे विचार से यह दूसरी हद है। जो कुछ हो, इस को यह मिला कि कई बार प्रस्ताव किए जाने पर भी विश्वविद्यालयों ने उन्हें सम्मानित डिग्री देना अस्वीकार कर दिया। यही आशा भी की जाती थी!

    प्रतिभा किसी कठघरे में बंद नहीं रहती। यद्यपि द्विवेदी जी साहित्य की अपेक्षा भाषा के अधिक बड़े श्राचार्य थे पर साहित्य में भी उनकी पैनी निगाह पहुँच कर ही रही।

    इसी समय के आसपास पं० पद्म सिंह शर्मा भी आलोचना के क्षेत्र में आए। शर्मा जी 'बिहारी' की काव्यकला के बड़े प्रशंसक थे। वे उर्दू-फ़ारसी के भी पंडित थे और हिंदी में यदि उन्हें उर्दू-फ़ारसी का मुक़ाबला कर सकने वाला काव्य चमत्कार कहीं मिल सकता था तो बिहारी में ही। पर काव्य चमत्कार ही काव्य नहीं है, शर्मा जी इस बात से परिचित नहीं थे। उनमें इतनी भावुकता और रसज्ञता थी कि इन दोनों के अंतर को समझ सकें। तो भी उनका झुकाव चमत्कार और काव्यसज्जा की ओर अधिक था। उनकी शक्ति इस बात में थी कि उनकी निगाह अभिव्यक्ति के सौंदर्य या अलंकार पर हठात् जा टिकती थी। उनकी कमज़ोरी इस बात में थी कि उस सौंदर्य का परिचय कराने के लिए उनके पास 'क़लम तोड़ दी' वाली शैली का ही सहारा था। पर इसमें संदेह नहीं कि वे अभिव्यंजना-सौंदर्य के अद्भुत पारखी थे।

    काव्य अथवा कला का संपूर्ण सौंदर्य अभिव्यंजना का ही सौंदर्य नहीं है। अभिव्यंजना काव्य नहीं है। काव्य अभिव्यंजना से उच्चतर तत्त्व है। उसका सीधा संबंध मानव जगत और मानस-वृत्तियों से है, जब कि अभिव्यंजना का संबंध केवल सौंदर्यपूर्ण प्रकाशन से है। किंतु शर्मा जी प्रकाशन से ही नहीं प्रकाश से भी जानकारी रखते थे, यह बात उनके लेखों से यंत्र-तंत्र प्रकट होती है। विशेषकर आधुनिक कवियों के संबंध में लिखते हुए उन्होंने अपनी यह योग्यता प्रकट की है।

    हमारे कितने ही नए समीक्षक ज्ञात या अज्ञात रूप से शर्मा जी के ही रास्ते पर चल रहे हैं। नए कवियों के उद्धरण दे-देकर कुछ नपे-तुले वाक्यों में प्रशंसा कर देने तक ही उनकी समीक्षा सीमित है। शर्मा जी से वे किसी भी अर्थ में आगे नहीं बढ़ सके हैं, पर उनका उपहास करने में वे बहुत आगे हैं।

    इसी समय मेरे गुरुदेव अध्यापक श्यामसुंदरदास का 'साहित्यालोचन' ग्रंथ प्रकाशित हुआ जिसमें साहित्यसंबंधी कुछ सैद्धांतिक व्याख्याएँ, मनोवैज्ञानिक निरूपण और व्यावहारिक (साहित्य-तंत्र विषयक) निर्देश किए गए थे। इस ग्रंथ का बड़ा ही मार्मिक प्रभाव हिंदी के आलोचना-क्षेत्र पर पड़ा।

    हिंदी-आलोचना की इसी आरंभिक किंतु नवचेतन अवस्था में पं० रामचंद्र शुक्ल का आगमन हुआ। उन्होंने रस और अलंकार-शास्त्र को नवीन मनोवैज्ञानिक दीप्ति दी और उन्हें ऊँची मानसिक भूमि पर ला बिठाया। इस प्रकार रस और अलंकार हिंदी-समीक्षा से बहिष्कृत हो जाने से बचे। दूसरे शब्दों में शुक्ल जी ने समीक्षा के भारतीय साँचे को बना रहने दिया। यही नहीं, उन्होंने इस साँचे के लिए यह दावा भी किया कि भविष्य की साहित्य-समीक्षा का निर्माण इसी के आधार पर होना चाहिए।

    यह दावा करते हुए शुक्ल जी ने 'रस और अलंकार' आदि को लक्षण-ग्रंथों वाले निःशक्त रूप में रहने देकर उन्हें नवीन प्राणों से अनुप्राणित कर दिया। उन्होंने उच्चतर जीवनसौंदर्य का पर्याय बना कर 'रस और अलंकार' पद्धति का व्यवहार किया।

    जहाँ तक उनकी प्रयोगात्मक (व्यावहारिक) आलोचना है, उन्होंने तुलसी और जायसी जैसे उच्चतर कवियों को चुना और उनके ऊँचे काव्यसौंदर्य के साथ 'रस और अलंकार' का विन्यास करके 'रस-पद्धति' को पूर्व गौरव प्रदान किया और साथ ही उन्होंने काव्य की स्थापना ऐसी ऊँची मानसिक संवेदना के स्तर पर की कि लोग यह भूल ही गए कि रसों और अलंकारों का दुरुपयोग भी हो सकता है।

    मेरे कहने का मतलब यह है कि शुक्ल जी ने अपनी उच्च काव्यभावना के बल पर समीक्षा की जो शैली निर्धारित की वह उनके लिए ठीक थी। वे स्वतः तुलसी, सूर और जायसी जैसे कवियों की ही प्रयोगात्मक समीक्षा में प्रवृत्त हुए जिससे उनकी आलोचना के पैमाने आप ही आप स्खलित होने से बचे रहें। उत्थानमूलक, आदर्शवादी विचारणा से उनका कभी संपर्क नहीं छूटा।

    किंतु शुक्ल जी ने हिंदी-साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास भी लिखा है और यहाँ उन्हें सभी प्रकार के कवियों से संपृक्त होना पड़ा है। यहाँ शुक्ल जी ने अपने समीक्षा संबंधी पैमानों का प्रयोग अधिकतर सफलता के साथ किया है कि उनका साहित्यिक इतिहास कवियों और काव्य-धाराओं के मूल्य-निर्धारण में त्रुटिपूर्ण नहीं प्रतीत होता।

    अवश्य जहाँ-जहाँ और जब-जब शुक्ल जी ने अपनी काव्यमाप में कुछ व्यक्तिगत रुचियों को प्रवेश करने दिया है—उदाहरण के लिए कथात्मक साहित्य या प्रबंध-रचना को मुक्तक काव्य पर तरजीह दी और निर्गुणसगुण की दार्शनिक धाराओं में सगुण-पक्ष की वकालत की—वहाँ-वहाँ उन्हें अक्सर काव्य की परख करने में कठिनाई हुई है। डी० एल० राय में रवींद्रनाथ की अपेक्षा उच्चतर भावसंवेदन का निरूपण करना इसी प्रकार के पक्षपात का परिणाम है। इसी के फलस्वरूप उन्हें हिंदी के आधुनिक कवियों में भी कुछ अधिकारियों अथवा अल्प अधिकारियों को उचित से अधिक महत्व देना पड़ा है।

    संवेदना या रसानुभूति के आधार पर स्थिर होने वाली काव्य समीक्षा के लिए दो शर्तें अनिवार्य हैं—एक यह कि समीक्षक का व्यक्तित्व समुन्नत हो और दूसरी यह कि उसमें कला का मानसिक आधार ग्रहण करने की पूरी शक्ति हो—किसी मतवाद का आग्रह हो।

    शुक्ल जी में उच्च कोटि की काव्य रसज्ञता थी, इसमें संदेह नहीं। साथ ही उनकी कुछ निजी रुचियाँ और आग्रह भी थे जिन्हें उन्होंने दबाया नहीं। इसका मुख्य कारण यह है कि उनमें आलोचना के साथ-साथ रचनात्मक प्रेरणाएँ भी बड़ी प्रमुख थीं। स्वतंत्र रचना के लिए स्वतंत्र अभिरुचि का होना आवश्यक है, किंतु काव्य-समीक्षक को अधिक से निष्पक्ष होना चाहिए। साहित्य के वैज्ञानिक अनुसंधान कार्य के लिए यह निष्पक्षता बहुत आवश्यक है।

    रचनाकार और समीक्षक के लिए अलग-अलग रास्ते हैं। एक के लिए व्यक्तिगत अभिरुचि का अपार क्षेत्र खुला है, दूसरे के लिए उसकी गुंजाइश नहीं। उसे पूरी तटस्थता बरतनी होगी।

    यहाँ पूरी तटस्थता से हमारा मतलब निर्विकल्प या absolute तटस्थता से नहीं है। वह तो संभव नहीं है। समीक्षक अपने बाहरी (सामाजिक) और भीतरी (व्यक्तिगत) संस्कारों से बरी नहीं हो सकता। वह एक समय और एक वर्ग का लगाव छोड़ नहीं सकता। यहाँ तटस्थता से मेरा मतलब यह नहीं कि वह अपनी सामाजिक और संस्कार-जन्य इयत्ता खो दे। यह संभव भी नहीं है। इससे तो समीक्षक के अपने व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। मेरा मतलब सिर्फ़ यह है कि इन व्यक्तिगत पहलुओं के होते हुए भी जहाँ तक काव्य के कलात्मक स्वरूप और मनोभूमि के विश्लेषण का प्रश्न है, समीक्षक को तटस्थता क़ायम रखनी चाहिए।

    समीक्षा की तटस्थता से यह आशय निकालना चाहिए कि उस समीक्षा का सामाजिक संपर्क छूटा हुआ है। मैं इस संपर्क का लेख के आरंभ में ही आग्रह कर चुका हूँ और यह संपर्क छूट जाने से लक्षण-ग्रंथों के द्वारा समीक्षा क्षेत्र की जो दुर्दशा हुई उसका भी उल्लेख कर आया हूँ। शुक्ल जी की काव्य-समीक्षा में बड़े समारोह के साथ इस सामाजिक संपर्क का आवाहन है। यह हिंदी आलोचना के लिए बड़े महत्व की बात सिद्ध हुई। बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि नव्यतर सामाजिक प्रगति से (विशेषतः राजनीति से) घनिष्ट संबंध रहने के कारण शुक्ल जी साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियों से उतना अधिक तादात्म्य नहीं स्थापित कर सकें। जितना उनके जैसे इस क्षेत्र के अधिनायक से आशा की जाती थी।

    युग की संवेदनात्रों से समीक्षक का घनिष्ट परिचय होना चाहिए। तभी वह युग के साहित्य का आकलन सम्यक रूप से कर सकेगा। जिन नूतन स्थितियों और प्रेरणाओं से नवीन काव्य का निर्माण हुआ है, जिन नवीन वादों की सृष्टि हुई है और जो नई शैलियाँ साहित्य में अपनाई गई हैं, उनका जब तक परिचय नहीं, तब तक साहित्य का मूल्यांकन क्या होगा? किंतु घनिष्ट से घनिष्ट परिचय में भी तटस्थता समीक्षक के लिए अत्यावश्यक है। यह तटस्थता सफल विश्लेषण की पहली शर्त है।

    जिस प्रकार शुक्ल जी ने काव्य और कलाओं के सामाजिक संपर्क की आवाज़ उठाई, उसी प्रकार उन्होंने रचनाकार की व्यक्तिगत मनस्थिति का भी हवाला दिया है। रचयिता की मनस्थिति का पता लगाना आधुनिक काव्य-विवेचन आवश्यक समझता है। इसके लिए काव्यालोचक आज मनोविश्लेषण-विज्ञान की भरपूर सहायता लेना चाहते हैं। शुक्ल जी के समय यह विज्ञान हिंदी में कम व्यवहृत हुआ। इसका व्यवहार बड़ी विशेषज्ञता की अपेक्षा रखता है। रचनाकार के काव्य-निर्माण में उसके व्यक्तिगत संस्कारों का हाथ रहता है। वे संस्कार किस हद तक उसके काव्य को ऊँचा उठाते या नीचा गिराते हैं, यह प्रत्येक समीक्षक जानना चाहेगा। किंतु इसे जानने के साधन उतने आसान नहीं हैं जितना हम अक्सर समझा करते हैं। शुक्ल जी ने इस दिशा में आरंभिक कार्य का सूत्रपात कर दिया था।

    रचनाकार की मानसिक स्थिति का विश्लेषण उसके द्वारा निर्माण किए गए काव्यात्मक चरित्रों के आधार पर भी किया जाता है। कोई भी साहित्यिक रचना पढ़ने पर रचयिता के विचारों, उसकी मनोभावना और मूल प्रेरणा का सामान्य रूप से अंदाज़ लग जाता है पर मनोविश्लेषण-शास्त्र द्वारा उस विषय की विशेषज्ञता प्राप्त की जाती है। किंतु यदि रचनाकार के साथ अन्याय नहीं करना है तो बहुत अधिक सतर्कता के साथ हमें निर्णय करना होगा।

    शुक्ल जी बहुत अधिक वादों के पक्षपाती नहीं थे। यूरोप के साहित्यिक क्षेत्रों में जो शीघ्र-शीघ्र वाद-परिवर्तन होते रहे हैं उन पर शुक्र जी की आस्था नहीं थी। वे उन्हें बदलते हुए फ़ैशन जैसी चीज़ समझते थे। उनका ऐसा समझना एक दृष्टि से ठीक भी है। पर इस विषय में एक दूसरी दृष्टि भी है; वह यह कि यूरोप का साहित्य अतिशय समृद्ध साहित्य है। वहीं नई-नई कला-शैलियों का आविर्भाव और प्रचार होना स्वाभाविक है। प्रत्येक साहित्य अपनी समृद्धि की अवस्था में बहुविधि वेश-विन्यास करेगा ही। यह उसका अनिवार्य गुण है। तब देखना यह होगा कि कहाँ वह केवल फ़ैशन बन कर रह गया है और कहाँ उसमें गहराई आई है।

    ठेठ कला अथवा रचना-प्रणाली की मीमांसा अभी हमारे साहित्य में बहुत कम हुई है। यह साहित्यिक विवेचन का एक प्रधान अंग क़रीब-क़रीब सूना पड़ा है। यहाँ रचना-प्रणाली से हमारा मतलब भाषा शैली से नहीं है; बल्कि उस कारीगरी से है जो साहित्य को सौंदर्य या कला की वस्तु बनाती है।

    जिस प्रकार अनेक काव्यवादों की उलझन में शुक्ल जी नहीं पड़े, उसी प्रकार सामाजिक या राजनीतिक क्षेत्र की विचारधारात्रों की उन्होंने उपेक्षा की। कुछ लोग इसी कारण उन्हें कोरा साहित्यिक घोषित करते हैं। वे इसे उनकी एक प्रधान त्रुटि भी ठहराते हैं और उनका कहना है कि इसी कारण शुक्ल जी वास्तविक अर्थ में हमारे आधुनिक साहित्य का नेतृत्व नहीं कर सके। इस संबंध में हमें दो बातें कहनी हैं। एक यह कि शुक्ल जी की एक विशेष सामाजनीति अथवा सामाजिक सिद्धांत (जिसमें राजनीति भी सम्मिलित है) अवश्य था। संभव है वह सिद्धांत अपनी पूरी रूप-रेखा के साथ उपस्थित किया गया हो पर उसका एक सामान्य रेखाचित्र हमें शुक्ल जी की सभी मुख्य रचनाओं में मिलता है। बल्कि कहीं-कहीं तो उनका पिष्टपेषण खटकने भी लगता है। वह सिद्धांत क्या है, इसे शुक्ल जी के सभी पाठक जानते हैं। उसे उन्होंने लोकधर्म का सिद्धांत कहा है और भारतीय वर्णाश्रम धर्म के साँचे के अंतर्गत उसे ढालने की चेष्टा की है। वर्णाश्रम धर्म से शुक्ल जी का आशय हिंदू धर्म से ही नहीं है बल्कि किसी भी ऐसे सामाजिक संगठन से है जिसमें कर्तव्यों और अधिकारों के समीकरण की चेष्टा की गई हो।

    शुक्ल जी का लोक-धर्म का सिद्धांत मध्यवर्ग की उन आदर्शात्मक प्रेरणाओं से ओत-प्रोत है जो बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण की विशेषता थी। अपने स्वाभाविक गांभीर्य के कारण शुक्ल जी 'रामचरित मानस' के महाकाव्योचित प्रसंगों में रम गए थे। इससे यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि आधुनिक समय के लिए उनकी कोई चिंतना नहीं थी।

    दूसरी बात यह है कि आज की हमारी विचारणा वर्गों के आधार पर या ठहरी है। इसके पहले वह राष्ट्रीयता के आधार पर स्थित थी और अब भी बहुत अंशों में स्थित है। शुक्ल जी के विचारों में हिंदू-समाज-पद्धति और आदर्शवाद का प्रधान स्थान हैं। उसे एक सार्वदेशिक व्यवस्था का रूप शुक्ल जी ने दिया है। वह कहाँ तक व्यवहार्य है, यह एक दूसरा प्रश्न है। वह कहाँ तक नई विचारधारा और शब्दावली से मेल खाती है, यह और भी अलग प्रश्न है।

    यदि शुक्ल जी में अपने समय और समाज की सीमाएँ हैं तो सवाल यह है कि इन सीमा से बचा कौन है? महत्त्व सीमाओं का नहीं है महत्त्व है सीमाओं के भीतर किए गए काम का। शुक्ल जी ने अपने समय की एक अर्द्धजागृत साहित्य-चेतना को दिशाज्ञान दिया। रास्ता सुझाया ही नहीं, स्वयं आगे-आगे चले और मंज़िल तय किए। विषर्यस्त लक्षण-ग्रंथों की परंपरा को साहित्य-शास्त्र की पदवी पर पहुँचाया, उसे आदर्शात्मक स्वरूप दिया। अपने उच्चकोटि के व्यक्तित्व और अध्ययन की छाप वे साहित्य पर छोड़ गए हैं। प्रांजलता और महाकाव्योचित औदात्त्य के लिए यह युग शुक्ल जी को स्मरण करेगा। साहित्य-समीक्षक की हैसियत से सब से बड़ी बात शुक्ल जी मैं यह नहीं है कि उन्होंने उच्चतर काव्य को निम्नतर काव्य से अलग किया, बल्कि उन्होंने वह ज्ञान दिया कि हम भी उस अंतर को पहचान सकें। यह उनका पहला काम था। तुलसी, जायसी और सूर की समीक्षाओं द्वारा उन्होंने हिंदी-आलोचना को सुदृढ़ भित्ति पर स्थापित किया। यह भित्ति इतनी मज़बूत है जितनी भारत की किसी भी प्रांतीय भाषा की भित्ति हो सकती है। शुक्ल जी की सब से बड़ी विशेषता है समीक्षा के सब अंगों का समान रूप से विन्यास। अन्य प्रांतीय भाषाओं में समीक्षा के किसी एक अंग को लेकर शुक्लजी की टक्कर लेने वाले अथवा उनसे विशेषता रखने वाले समीक्षक मिल सकते हैं पर सब अंगों का समान विकास उनका-सा कोई कर सका है, मैं नहीं जानता। जितना उत्कर्ष उन्हें साहित्य के सिद्धांतों का निरूपण करने में प्राप्त हुआ उतनी ही दक्षता उन्हें उन सिद्धांतों का व्यावहारिक प्रयोग करने में हासिल हुई। पांडित्य में उनकी अप्रतिहत गति थी, विवेचना की उनमें विलक्षण शक्ति थी। वे आलोचक या समीक्षक मात्र नहीं थे, सच्चे अर्थ में साहित्य के आचार्य थे।

    समीक्षक की हैसियत से शुक्ल जी का आदर्श बहुत ऊँचा है और उनका एक संदेश है जिसे आज के समीक्षकों को स्मरण रखना चाहिए। वह संदेश यह है कि साहित्य की समीक्षा किसी एक अंग या पहलू पर समाप्त हो जानी चाहिए बल्कि वह सब अंगों को ध्यान में रख कर की जानी चाहिए। आज हिंदी में जो कोई समीक्षा के जिस किसी कोने को पकड़ पाता है उसे ही खींच चलता है। यह समझने की ज़रूरत नहीं समझी जाती कि इस खींच-तान से साहित्य का कोई लाभ नहीं है, बल्कि इससे साधारण पाठकों में भ्रम ही फैला करता है। शुक्ल जी ने इस प्रवृत्ति को साहित्यिक कनकौआ उड़ाना कहा है, और उन्होंने इसका ठीक ही नामकरण किया है। यह प्रवृत्ति हमें साहित्य की समीक्षा में बहुत दूर तक नहीं ले जा सकती, साहित्य की अंतरात्मा के दर्शन तो करा ही नहीं सकती।

    शुक्ल जी ने हिंदी समीक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। वे नए युग के विधायक थे। यद्यपि हम यह कहेंगे कि शुक्ल जी की व्यक्तिगत अभिरुचियों और धारणाओं ने विशुद्ध काव्यालोचना में सदैव सहायता ही नहीं पहुँचाई, अनेक बार अड़चनें भी डाली। और शुक्ल जी की समीक्षा में युग की सीमाएँ भी स्वभावतः मौजूद हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी (पृष्ठ 56)
    • रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी
    • प्रकाशन : इंडियन बुकडिपो
    • संस्करण : 1949

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