रूप और नारी

roop aur nari

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

और अधिकसूर्यकांत त्रिपाठी निराला

    आकाश की आत्मा सूर्य का खुला हुआ प्रकाश ही पृथ्वी के ससीम सहस्रों पादपों के अखिल जीवों में रूप की कमनीय कांति खोल देता, भावना को पार्थिव एक स्वर्गीय कुछ कर देता, भीतर से उभाड़कर भूमा के प्रशस्त ज्योतिर्मंडल में ले आता है। उस स्वतंत्र प्रकाश के स्नेह-स्पर्श से सुप्त प्रकृति की तंद्रा छुट जाती, उसके सहस्रों रूप अपनी लाख-लाख आँखों से अपने ही विभिन्न अनेक अम्लान चित्रों को प्रत्यक्ष करते हैं, हृदय के अंधकार की अर्गला, जिसके कारण प्रकाश-पुंज प्रवेश नहीं कर पाता, खुलकर गिर जाती, ज्योति का जगमग प्रवाह, जो चारों ओर बहता हुआ सृष्ट जीवों की स्वाभाविक स्वतंत्रता का स्रोत खोलता फिरता है, हृदय में भर जाता है। मोह का मंत्र-मुग्ध आवेश कट जाता, पुलकित हो हृदय, अपने हलके ऐश्वर्य से प्रसन्न, खिल जाता, है, उसी तरह, जैसे ज्योति के एक ही लघु चुंबन से पुष्पों के प्राण खुल जाते, पल्लव प्रसन्न हो हिलने-डोलने, झूमने-घूमने लगते हैं।

    यह ज्योति: प्रवाह अरूप है। जड़ों में यह चेतन-संयोग ही गति है। प्रत्येक पद पर इसका अज्ञात स्पर्श जीव-जग करता रहता है, अन्यथा दूसरा चरण उठ नहीं सकता, उसे अपनी सत्ता का निश्चय नहीं हो सकता। वह वहीं निर्जीव प्रस्तर की तरह अचल है। उसमें स्वत: विचरण की शक्ति नहीं, पृथ्वी के साथ ही उसे अलक्ष्य के इंगित से महाकाश की परिक्रमा करनी पड़ती है। जीव को हर साँस में वह स्पर्श मिलता है।

    साहित्य में इस रूप की स्वतंत्र सत्ता को नारियों में स्थिर रूप दिया गया है। कलाविदों ने वहीं पुरुष और प्रकृति का सौहार्द, दोनों का अपार प्रेम, निरंतर योग देखा। आकर्षण दोनों के संभोग-विलास में ही है, वह और अच्छा जब एक ही आधार में हो। यही बीज-मंत्र है, जिसका जप कर उन्होंने नारियों के अगणित अपार रूपों में सिद्धि प्राप्त की। ये सिद्ध रूप परवर्ती काल के साहित्य की आत्मा में प्राणों का प्रवाह भरते गए हैं। बाह्य महाशून्य की चेतन स्पर्श से जगी हुई असंख्यों रूपसी अप्सराओं की तरह ये साहित्य की पृथ्वी पर चपल-चरण, नम्र, शिष्ट, भिन्न-भिन्न अनेक प्रकृति की श्री-शृंगारमयी, रूप के ऊषा-लोक में अपलक ताकती हुई, लावण्य की ज्योति से पुष्ट-यौवना युवती, कुमारिकाएँ हृदय-शून्य के चेतन स्पर्श से जगकर उठी हुई हैं, जो मूर्त बाह्य रूप-राशि ही की तरह अमर हैं, जिनसे बाह्य स्वतंत्रता की तरह अपार आंतरिक स्वतंत्रता मिलती है, और बाह्य के साथ अंतर के साम्य का निरुपद्रव संदेश।

    रूप की चंपा अपने स्नेह की छाया-डाल पर पल्लवों के भीतर अधखुली कोमल-सरल चितवन से अपरिचित संसार को देखती, जाने किस अज्ञात चंचल भावावेश में डोलकर अपने गृह के पत्र-द्वार बंद कर लेती है; अरूप के इस चपल रूप-स्पर्श से कवि के मस्तिष्क की सुप्त स्मृतियाँ तत्काल आँखें खोल देतीं, रूप की स्वर्णच्छवि चित्त के चित्र-पट पर अपनी संपूर्णता के साथ सुडौल अंकित हो जाती है। वह उस मूक वाणी में प्राणों का संचार कर देता है—वही प्राण, जिसका अनुभव, पुलक अभी-ही-अभी उसे रोमांचित कर चुका है। साहित्य के एक पृष्ठ में एक विकच नारी-मूर्ति, तम के अतल प्रदेश से मृणाल-दंड की तरह अपने शत-शत दलों को संकुचित संपुटित लेकर, बाहर आलोक के देश में, अपनी परिपूर्णता के साथ खुल पड़ती है। जड़ों में प्राण संचरित हो जाते, रूप में भुवन मोहिनी ज्योति:स्वरूपा नारी।

    तरंगों की अंग-संचालन-क्रिया, अविराम-प्रवाह, पुन:-पुन: आकाश के प्रति उठकर उनकी चुंबन-चेष्टा, सहस्रों भंगिमाएँ, उठ-उठ बारंबार गिरना, गिर-गिर उठने की शक्ति प्राप्त करना, उत्थान और पतन के बीच इतना ही विराम प्राप्त कर क्रमश: बढ़ते ही जाना प्रत्यक्ष कर कवि के हृदय का, आदि-सृष्टि के रहस्य का बंद द्वार खुल जाता है; किस तरह, कितने दु:साध्य अध्यवसाय के पश्चात्, सहस्रों निष्फल-सफल चेष्टाओं के भीतर से आधार पद्म की सुप्त शक्ति जाग्रत् हो सहस्रार में परमप्रिय ब्रह्म से मिलती है, वह दर्शन कर लेता है। जीवन की पराजय का फिर उसे भय नहीं रह जाता। अविराम प्यास, चिरंतन कामना, जिसे सदा ही बहती हुई लहरों में वह देखता है, साहित्य के हृदय में प्रिया के रूप-तृष्णा से अपने अनुभव सत्य की इस तरह की पंक्तियाँ छोड़ जाता है—

    “जनम अवधि हम रूप निहारनु

    नयन तिरपित भेल।

    लाख-लाख युग हिये हिय राखनु

    तयो हिय जुन गेल।”

    भावना के हृदय में रूप की विदग्धता की आग भर देता है—नारी भावनामयी बन रूप के शिखर पर चिरकाल बैठी रहती है, अमर अक्लांत वह अनुपम मूर्ति माइकेल ऐंजेलों की भावना मूर्ति की तरह मनुष्य-जाति के हृदय की जाग्रत् देवी, शक्ति की अपार महिमा, सौंदर्य की प्रेयसी प्रतिमा वनकर मनुष्य समाज को स्वतंत्र विचारों की ओर मौन इंगित से बढ़ाती हुई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुछ चुनी हुई साहित्यिक पुस्तकें (पृष्ठ 154)
    • रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
    • प्रकाशन : गंगा फ़ाइन आर्ट प्रेस
    • संस्करण : 1934

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