काव्य की आठ माताएँ

kavya ki aath matayen

कन्हैयालाल सहल

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    राजशेखर ने अपनी काव्य-मीमांसा में काव्य की आठ माताओं का उल्लेख किया है जैसा कि निम्नलिखित पद्य से स्पष्ट है—

    स्वास्थ्यं प्रतिभाऽभ्यासो, भक्तिर्विद्वत्कथा बहुश्रुतता।

    स्मृतिदार्ढ्यम्निर्वेदश्च, मातरोऽष्टौ कवित्वस्य॥

    अर्थात् स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, विद्वत्कथा, बहुश्रुतता, स्मृति की दृढ़ता और अनिर्वेद—ये काव्य की आठ माताएँ हैं। इन आठ माताओं मे पहला स्थान राजशेखर ने ‘स्वास्थ्य’ को दिया है। ‘स्वास्थ्य’ से राजशेखर का चाहे जो अभिप्राय रहा हो, इस शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ को लेकर यदि हम विचार करें तो कहा जा सकता है कि काव्य के लिए सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि कवि की मनोदशा काव्य की रचना करने जैसी हो, कवि अपने में स्थित हो, प्रकृतिस्थ हो। ‘स्वास्थ्य’ शब्द का अर्थ है ‘अपने में स्थित होना'। मछली जब जल में रहती है तब वह अपनी प्रकृति में स्थित है, योगी जब समाधिस्थ है तब वह अपनी प्रकृति में स्थित है, हरि-रस का पान करने वाला भावुक भक्त जब भावोन्माद के वशीभूत होकर झूमने लगता है और जब उस पर एक प्रकार की ख़ुमारी छा जाती है, तब वह अपनी प्रकृति में स्थित है; जैसा कि कबीर ने कहा है—

    “हरि-रस पीया जाणिये, कबहुं जाए ख़ुमार।

    मेमंता घूमत फिरे, नाहीं तन की सार।”

    इसी प्रकार कवि भी जब हृदय की योग-दशा में पहुँच जाता है, तभी वह सुंदर काव्य की सृष्टि कर पाता है। इस प्रकार का भावयोग ही कवि का ‘स्वास्थ्य’ कहा जा सकता है। मिल्टन के लिए तो प्रसिद्ध है कि अंधे हो जाने के बाद अर्ध-रात्रि के समय भी यदि वे भाव-योग की अवस्था में पहुँच आते तो अपनी लड़कियों को जगाकर पंक्तियों पर पंक्तियाँ उन्हें लिखाते चले जाते थे। राजस्थान के महाकवि श्री सूर्यमल्ल मिश्रण के लिए भी कहा जाता है कि जब वे भावावेश की अवस्था में होते उस समय उनके मुख से निकली हुई कविता को लिपि-बद्ध करने के लिए एक साथ कई लेखकों की आवश्यकता हुआ करती थी। ‘स्वास्थ्य’ को यदि हम सर्व प्रचलित सामान्य अर्थ में ग्रहण करें तब भी काव्य रचना के लिए ‘स्वास्थ्य’ आवश्यक है।

    काव्य की आठ माताओं का उल्लेख करने के पहले राजशेखर ने कहा है कि प्रतिभा ही काव्य का एक मात्र हेतु है किंतु जब वह प्रतिभा और व्युत्पत्ति के तुलनात्मक महत्व का विवेचन करने लगता है तब वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों सम्मिलित रूप मे ही काव्य के हेतु कहे जा सकते हैं। मम्मट ने भी अपने काव्य-प्रकाश में कहा है कि प्रतिभा, लोक, शास्त्र, काव्यादि के अवेक्षण से उत्पन्न निपुणता तथा काव्यों के आदेशानुसार अभ्यास—ये तीनों जब सम्मिलित रूप में दिखलाई पड़ते हैं तभी काव्य का सच्चा हेतु उपस्थिन होता है। प्रतिभा के बिना यदि काव्य रचना में कोई प्रवृत्त होता है तो उसका प्रयास उपहासास्पद समझा जाता है। ऐसा भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति में काव्य-निर्माण की प्रतिभा ना हो किंतु अभ्यास के अभाव में प्रतिभा का स्फुरण हो, प्रतिभा प्रच्छन्न ही रह जाए। इसीलिए 'रस गंगाधर' के प्रणेता पंडितराज जगन्नाथ ने कहा है कि कुछ काल तक काव्य-रचना में असमर्थ होते हुए भी कभी-कभी व्युत्पत्ति और अभ्यास के कारण किसी-किसी व्यक्ति में प्रतिभा का प्रादुर्भाव हो जाता है।

    राजशेखर के मतानुसार काव्य की चौथी माता है ‘भक्ति’। भक्ति का अर्थ केवल ईश्वर-भक्ति नहीं, भक्ति को सभी भावों के उपलक्षण के रूप में ग्रहण करना चाहिए। कवि के लिए भाव-प्रवणता अत्यंत आवश्यक है। कविता केवल बौद्धिक व्यापार नहीं, वह मुख्यत: हृदय का कीड़ा-क्षेत्र है। काव्य के द्वारा हृदय ही कागज़ पर उतारा जाता है; कविता वास्तव में हृदय की वाणी है, भावुकता की भाषा है। तत्वज्ञान भी जब कविता के क्षेत्र में पदार्पण करता है तब वह अपना काला चोगा उतार कर भावुकता का रागारुण बाना धारण कर लेता है। विद्वत्कथा को राजशेखर ने जो काव्य की एक माता के रूप में स्वीकार किया है उसका मुख्य कारण यह है कि विद्वानों की कथा सुनते रहने से बड़ी प्रेरणा मिलती है; व्युत्पत्ति और अभ्यास का प्रयत्न भी मनुष्य करने लगता है। विद्वत्कथा के द्वारा पुराने संस्कार भी संजन हो उठते हैं।

    बहुश्रुत होना कवि के लिए अनिवार्यत: आवश्यक है। आज के युग में तो बहुश्रतता और भी वाँछनीय हो गई है। प्राचीन जमाने का कवि जब काव्य लिखने बैठता था, उस समय यातायात के साधनों के अभाव तथा प्रेमादि की असुविधा के कारण वह अपनी सीमाओं से बँधा रहता था किंतु आज वैज्ञानिक उन्नति के कारण वस्तुओं की कटी-छंटी सीमाएँ विलीन हो रही हैं, विश्व का साहित्य आज हमारे सामने पड़ा है। आज का कवि केवल अपने देश की विचार-धारा से ही प्रभावित नहीं होता; दूसरे देशों की विचार धारा भी उसे किसी किसी रूप में प्रभावित किए रहती है।

    जहाँ तक स्मृति की दृढ़ता का सवाल है, कवि के लिए उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जब कवि काव्य-रचना में प्रवृत्त होता है, उस समय तन्मयता के कारण उसकी चेतना एक विशेष बिंदु पर केंद्रित हो जाती है; स्मृति की दृढ़ता के कारण इतर वस्तुओं को वह एक प्रकार से आत्म-विस्मृत किए रहता है।

    अनिर्वेद से तात्पर्य है खिन्नता का अभाव। काव्य का वातावरण उल्लास का वातावरण है। कवि दु:ख को भी जब अपने काव्य का विषय बनाता है तब दु:ख भी उसके लिए सुखद रूप धारण कर लेता है; बहुत से कवि तो अपने दु:ख को हलका करने के लिए कभी-कभी दूसरों के दु:ख का वर्णन करते देखे गए हैं। राजशेखर ने काव्य की जिन आठ माताओं से हमारा परिचय कराया है, उन्हें हम इस लेख द्वारा अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समीक्षायण (पृष्ठ 119)
    • रचनाकार : कन्हैयालाल सहल
    • प्रकाशन : आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली
    • संस्करण : 1950

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