भक्त-कवि
bhakta-kavi
रमेश ने कहा, संतों के काल में मनुष्य जीवन में सत्य की उपलब्धि के लिए जो चेष्टा की गई, उसका फल यह हुआ कि मनुष्यों में सत्य को मूर्तिमान देखने के लिए विकलता हुई। पहले कृच्छ साधना और उग्र साधना के द्वारा यतिगण सत्य का साक्षात्कार किया करते थे। संसार से विरक्त होकर, मनुष्य जीवन को तुच्छ समझकर, वासनाओं से दूर रहकर, सभी क्लेशों को सहकर, कठोर नियमों और उग्र साधनों से उन्होंने सत्य के दुर्गम स्थान को देख लिया। माया का बंधन उन्होंने छिन्न-भिन्न कर डाला। जीवन और मृत्यु के द्वंद्व से वे अलग हो गए। विश्व के प्रवाह से उनमें कोई विकार नहीं आया। वे सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुके। उनकी गणना मनुष्यों में नहीं, देवों में होने लगी। लोग उनकी पूजा करने लगे। उनके बाद जो भक्त आए वे भगवान की लीला को पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देखना चाहते थे। वे उसके आनंद-रस का उपभोग करना चाहते थे। इसीलिए वे विश्व के प्रवाह को क्षण भर भी रोकना नहीं चाहते थे। वे तो चाहते थे कि नदी के प्रवाह के समान माया का प्रवाह बहता रहे, क्योंकि वे जानते थे कि यदि विश्व का प्रवाह रुक जाएगा तो समस्त सौंदर्य का प्रवाह स्थिर होकर मृत्यु पुंज में परिणत हो जाएगा।
महेश ने कहा, पहले साधकगण असीम और निराकार के ध्यान में मग्न होकर रूप और रस से दूर हट गए थे। परंतु भक्तों का सौंदर्यप्रिय मन जैसे भाव के लिए उत्सुक था वैसे ही रूप के लिए व्याकुल था। चिरकाल से असीम इस रूप-सीमा के लिए और सीमा के लिए व्याकुल है। यही प्रेम की व्याकुलता है, यही मिलन की आकांक्षा है, इसी प्रेम से ही विधाता की सृष्टी है।
रमेश ने कहा, यही वैष्णव धर्म का मुख्य सिद्धांत है। वह प्रवृत्ति को ध्वंस नहीं करता। किंतु प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति को क्रमश: आध्यात्मिकता की ओर ले जाना चाहता है। स्वभाव की उपेक्षा कर किसी अति मानवीय आदर्श के अनुसंधान में व्यस्त रहने से उसका विपरीत ही फल होता है। विषय को छोड़कर विषयी को पकड़ने की चेष्टा करना, मनुष्य को छोड़कर मनुष्यत्व के पीछे दौड़ना, इंद्रिय को छोड़कर रस ग्रहण करने जाना, विडंबना मात्र है। इसीलिए वैष्णवों ने भगवान के अवतारवाद का इतना समादर किया। वैष्णव कवि मनुष्यों में भगवान के स्वरूप को उपलब्ध करना चाहते थे। इन्हीं के कारण देवत्व में मनुष्यत्व का और मनुष्यत्व में देवत्व का भाव आरोपित हुआ। कबीर के निराकार राम तुलसीदास जी के साकार राम हुए। इसी प्रकार कृष्ण का भी रूप वृंदावन विहारी हो गया। सूरदास जी का कथन है कि हमारी समस्त इंद्रियाँ हरि की ओर आकृष्ट होनी चाहिए।
सोई रसना जो हरिगुण गावै।
नैनन की छवि यहै चतुरवा ज्यों मकरंद मुकुंदहि ध्यावै।
निर्मल चित्त तौ सोई साँचो कृष्ण बिना जिय और न भावे।
श्रवणनि की जु यहै अधिकाई सुनि रस कथा सुधा-रस प्यावै।
करतेई जो श्यामहिं सेवैं चरणन चलि वृंदावन जावै।
सूरदास जैये बलि ताके जो हरि जू से प्रीति बढावै।
महेश ने कहा, संतों की रचनाओं में सत्य की सरल मूर्ति है। परंतु ब्रज-साहित्य के नायक हैं श्रीकृष्ण, जो प्रेम और सौंदर्य के आगार हैं। इन्हीं को आदर्श मानकर मध्ययुग के कवियों ने अपनी कल्पना की रश्मिछटा से अपूर्व सौंदर्य की सृष्टि की। संतों के विवेक और विराग का स्थान प्रेम और अनुराग ने लिया। विवेक लोक मर्यादा की रक्षा करता है और प्रेम उस मर्यादा को अतिक्रमण कर जाता है। विराग का लक्ष्य ज्ञान है, पर अनुराग ज्ञान का तिरस्कार करता है। विशुद्ध प्रेम लोकातीत, उच्छृंखल होता है। वह किसी भी बंधन को स्वीकार नहीं करता। वह लोक-मर्यादा का उल्लंघन कर, लोक-लज्जा को छोड़कर, लोक-निंदा को ग्रहण कर अपने में ही सार्थकता प्राप्त करता है। उसका मूल्य संसार निर्धारित नहीं कर सकता। गोपियों का तो कथन था—
नैना ढीठ अतिही भए।
लाल लकुट दिखाए त्रासी नैकहूँ न नए।।
तोरि पलक कपाट घूँघट ओट मेटि गए।
मिले हरि को जाइ आतुर जे हैं गुणनि मए।।
मुकुट कुंडल पीत पट कटि ललित भेस ठए।
जाई लुब्धे निरखि वह छवि सूर नंद-जए।।
गोपियों का धर्म गोपियों का ही धर्म है। जो प्रेम की अंतिम अवस्था में पहुँच चुके हैं वही इस तत्व को समझ सकते हैं।
रमेश ने कहा, बात यह है कि धर्म कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो बाहर से आरोपित की जाती हो। भक्तों ने प्रेम से ही अमृत-तत्व की प्राप्ति की। उसी से उनकी ज्ञान-ज्योति भी प्रकट हुई। उनमें अपने और पराए का भेद नहीं रह गया। उनमें तन्मयता आ गई। भाव की यह तन्मयता ही भक्त कवियों की सबसे बड़ी विशेषता है। उनका मन अन्यत्र सुख पा ही नहीं सकता—
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।।
जैसे उड़ि जहाज को पच्छी फिरि जहाज पर आवै।।
कमल नैन को छाँड़ि महातम और देव को ध्यावै।।
परम गंग को छाँड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै।।
जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फल खावै।।
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरि कौन दुहावै।।
महेश ने कहा—सूरदास ने निराकारवाद और निवृत्ति-मार्ग को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वैष्णव-धर्म की यथार्थ बात को माना। वह यह कि स्वयं जगदीश्वर मनुष्य का जन्म लेकर मानव-जीवन के समस्त दु:खों और वेदनाओं को स्वीकार करता है। ईश्वर भी एक स्थान में मनुष्य है। वह दूर नहीं है। वह स्वर्ग में नहीं है। वह इसी मर्त्यलोक के सुख-दुख और उत्थान-पतन में है। मानव-जीवन में जो विभिन्नता है, जो क्षुद्रता है, जो दुर्बलता है, उसे स्वीकार कर सूरदास ने मनुष्य-जीवन को ईश्वर के आनंद और प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में दिखलाया है। समस्त मानव-जीवन को ईश्वर से परिपूर्ण मानकर देखने के धर्म को छोड़कर ग्रहण करने योग्य दूसरा कौन धर्म है। जीवन के सुख-दुख, हानि-लाभ, संयोग-वियोग और आशा-निराशा में उसी की लीला है। इसी द्वंद्व से वह आनंद और प्रेम को पूर्ण करता है। तभी तो कृष्ण ने कहा है—
रुकमिनि मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
वा क्रीड़ा खेलत यमुना तट बिमल कदम की छाँहीं।।
सकल सखा अरु नंद यसोदा वे चिततें न टराहीं।
सुत हित जानि नंद प्रतिपालें बिछुरत विपति सहाहीं।।
जद्यपि सुख निधान द्वारावति तउ मन कहुँन रहाहीं।
सूरदास प्रभु कुंजबिहारी सुमिरि सुमिरि पछताहीं।।
रमेश ने कहा, सूरदास के वर्णन की विशेषता यह है कि वे दर्शक की भाँति, एक भक्त और अनुरक्त सखा की भाँति श्रीकृष्ण चंद्र जी की लीलाओं का वर्णन करते हैं। उनके वर्णन में प्रेम है, उल्लास है और भक्ति है परंतु वियोग की व्याकुलता नहीं है। ऐसा जान पड़ता है कि मानो उन्होंने श्रीकृष्णचंद्र जी की समीपता प्राप्त कर ली थी। कदाचित् यही कारण है कि लोग उन्हें उद्धव का अवतार मानते हैं। वियोग की व्याकुलता मीराबाई के पदों में है। उनमें वेदना है, अतृप्ति है, अकांक्षा है और लालसा है। प्रेम की इस व्याकुलता में उन्होंने लोक-लज्जा को तिलांजलि दे दी, परलोक की भी उन्होंने परवाह न की। जब उनके नेत्रों में एक बार मुरलीधर बस गए तब उनके लिए स्वर्ग-सुख भी मिथ्या हो गया।
जबसे मोहि नंद-नंदन दृष्टि पड़यो माई।
तब से परलोक लोक कछू न सुहाई।
हृदय में प्रीतम की छवि अंकित हो गई, पर अभी तो संबंध उनसे केवल नाम का है, उनसे मिलन कब होगा यह कौन जाने। इसका उपाय, इसकी युक्ति कौन बताएगा। प्रिय के परम धाम तक पहुँचने के लिए कितने संकट, कितनी विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। एक तो विषम पथ है, फिर अभी तो बंधन से ही मुक्त नहीं हुए। ऐसी असहाय, निरुपाय अवस्था में सद्गुरु ने ऐसी कृपा की कि भगवान घर पर ही आकर मिल गए। ये बातें मीरा के पदों में हैं। उनमें विरह की व्याकुलता है और मिलन का आभास—
गली तौ चारौ बंद हुईं, मैं हरि से मिलूँ कैसे जाय।
ऊँची नीची राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय।
सोच सोच पग धरूँ जतने से बार-बार डिग जाए।
ऊँचा नीचा महल पिया का हमसे चढ्या न जाय।
पिया दूर पंथ म्हारा कीना, सुरत झकोला खाय।
कोस कोस पर पहरा बैठ्या पैंड पैंड बटमार।
हे बिधना कैसी रचि दीन्ही दूर वस्यो गाम हमार।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सतगुरु दई बताय।
जुगन जुगन तें बिछुड़ी मीरा घर में लीन्हा आय।
मैंने कहा, सूरदास और मीरा की भक्ति में प्रेम का प्राबल्य है, पर गोस्वामी तुलसीदास जी की भक्ति में सेवा भाव है। भगवान उनके उदार स्वामी हैं जो बिना सेवा के भी अपने आश्रित जनों पर कृपा करते हैं। सेवकों से भूल होती है। बात यह है जो आर्त होते हैं, जो स्वार्थी, दीन और दु:खी हैं, वे कभी विचार कर कोई बात कह नहीं सकते। उनकी बातों से किसी को भी बुरा नहीं मानना चाहिए। अपनी हानि की आशंका से व्याकुल होने पर लोग देव को गाली देने लग जाते हैं। इसी प्रकार पीड़ा और भय से भक्तजन भगवान को भी कुछ का कुछ कह डालते हैं। पर भगवान क्षमाशील हैं। वे सब अपराध भूलकर कृपा करते हैं। सेवक की बिगड़ी हुई बात को स्वामी सुधार लेते हैं। भगवान शोभा, शील, ज्ञान और गुण के निधान हैं। वे अत्यंत सुंदर और उदार हैं। वे सज्जनों को सुख देने वाले, समस्त पापों को नष्ट करने वाले और वासनाओं के विकारों को दूर करने वाले हैं। मुक्ति के लिए उन्हीं का ध्यान करना चाहिए। उसके लिए योग, यज्ञ और संयम की ज़रुरत ही नहीं। यही भाव तुलसीदास जी की रचनाओं में विद्यमान है।
महेश ने कहा, तुलसीदास जी ने अपने जीवन के आदि काल में कदाचित् सभी प्रकार के दु:ख सहे। इसी से उन्होंने एकमात्र भगवान का आश्रय लिया। इसीलिए उनके पदों में सर्वत्र दोष भाव है। माता और पिता से परित्यक्त, जन्म से ही भाग्यहीन, निरादार के पात्र, परान्नभोजी तुलसीदास जी पर भगवान ने ही तो कृपा की जिससे उन्होंने लौकिक और परलौकिक सुखों के साधन प्राप्त कर लिए। अपनी अनाश्रित अवस्था में अपने उदर-पोषण के लिए उन्होंने कुत्तों के टुकड़ों के लोभ से किस-किस की सेवा नहीं की, चार दानों के लिए बाल्यकाल में व्याकुल होकर घर-घर भटकते फिरे, पर यह तो भगवान का ही प्रभाव था कि उनके सेवक बनते ही वे गौरव-युक्त हो गए।
रमेश ने कहा, तुलसीदास जी का रामचिरतमानस हिंदी साहित्य का सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ है। उसमें कविता की दो धाराएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक तो ज्ञान की दो धारा है और दूसरी सौंदर्य की धारा है। पहली का लक्ष्य है परीक्षा। वह मनुष्य जीवन के अंतस्तल की परीक्षा करती है। उसके दोषों, उसकी निःसारता, उसकी दुर्बलता और उसके मिथ्या अंश को प्रकट करती है। इसीलिए रामचरितमानस केवल काव्य नहीं, नीति का भी ग्रंथ है। उसमें ज्ञान और प्रेम, सत्य और सौंदर्य का विलक्षण सम्मिलन हुआ है। तुलसीदास जी ने उन सभी भावों का वर्णन किया है जो मनुष्य मात्र के जीवन में पाए जाते हैं। परंतु उन भावों को उन्होंने आदर्श रूप में व्यक्त किया है। पिता, भ्राता, पति और पत्नी के सभी संबंध रामचरित में आदर्श रूप में विद्यमान हैं पर उनके भावों को प्रकट करते समय तुलसीदास जी यह कभी नहीं भूल सके हैं कि भगवान साक्षात् ईश्वर हैं और लोक मर्यादा की रक्षा करने के लिए वे पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। इसी से प्रेम और वियोग की बातों को उन्होंने बड़ी कोमलता से प्रकट किया है। संयम और धैर्य दोनों पद में प्रकट होते हैं। सौंदर्य-वर्णन में उनकी एक विशेषता है नेत्रों से ग्राह्य सौंदर्य हृदय में निवास कर लेता है और तब मेघपटल से निर्मुक्त चंद्रमा की भाँति उसमें पहले से अधिक निर्मलता और रमणीयता आ जाती है। उनके जिस रूप को देखकर सीता जी मुग्ध हों गई थीं उसमें पुरुष का यथार्थ सौंदर्य है जो शौर्य से युक्त है। पर शौर्य और सौंदर्य का चित्र अंकित कर देने से ही तुलसीदास जी को संतोष नहीं हुआ। इसी से उन्होंने कहा कि श्रीरामचंद्रजी संपूर्ण सुषमा और शील के निधान थे। इस प्रकार तुलसीदास जी ने सौंदर्य की तीनों अवस्थाओं का वर्णन किया है। हम नेत्रों से बाह्य सौंदर्य देखते हैं, हृदय में उसकी छवि को धारण करते हैं और बुद्धि से उसकी असीमता का आभास पाते हैं। नेत्रों से ग्राह्य सौंदर्य से इंद्रिय की तृप्ति होती है। हृदयगम्य सौंदर्य से हृदय तुष्ट होता है और बुद्धि के द्वारा सौंदर्य का निर्मलतम रूप प्रकट होता है। पहले से मोह, दूसरे से प्रेम और तीसरे से भक्ति और तन्मयता होती है। सीता जी के प्रेम में सर्वत्र लज्जा और संकोच है। उसमें आवेग नहीं, गंभीरता है। लज्जा और संकोच तो यहाँ तक है कि पार्वती जी से प्रार्थना करते समय भी वे अपने मनोभाव को स्पष्ट नहीं कह सकीं। सीता जी का रूप-वर्णन करते समय तुलसीदास जी ने यह सदैव ध्यान में रखा है कि वे जगदंबा का रूप वर्णन कर रहे हैं, जो कल्पना के अतीत है। वह तो केवल प्रेम, भक्ति और साधन से ही लक्ष्य हैं।
मैंने कहा, तुलसीदास जी का प्रकृति-वर्णन भी अन्य कवियों के वर्णन से सर्वथा भिन्न है। इस भिन्नता का कारण मुझे तो यह प्रतीत होता है कि तुलीसदास जी भक्त थे। संसार से उनका लौकिक संबंध छूट गया था। वे जिस रूप-सागर में निमग्न थे उसकी तुलना प्रकृति में तो है नहीं अतएव प्रकृति के विलास में भी उन्होंने विरक्त की तरह उन्हीं कठोर सत्यों का अनुभव किया है जो संसार में प्रत्यक्ष हैं।
रमेश ने कहा, सच तो यह है कि तुलसीदास जी ने सभी रसों पर भक्ति रस का सिंचन कर दिया है। शृंगार-रस में भक्ति का सम्मिश्रण होने से एक अपूर्व कोमलता आ गई है। इसी प्रकार करुण-रस में गंभीरता और वीर, रौद्र तथा वीभत्स रस में भी शांति की धारा बह गई है। युद्ध-स्थल में भी भगवान का रूप लोकाभीराम है और उनका युद्ध क्या है, मानो वर्षा काल में प्रकृति का विलास है।
महेश ने कहा, मैंने देखा है कि सभी भक्त-कवियों के संबंध में एक ही प्रकार की कथा प्रचलित है। सभी के संबंध में यह कहा जाता है कि वे पहले किसी स्त्री के प्रेम में पड़कर अपनी बुद्धि खो चुके थे। उसके बाद किसी के उपदेश से या अन्य किसी विशेष घटना से उनके हृदय में भगवद् भक्ति का सहसा प्रादुर्भाव हुआ और वे भगवान के अनन्य भक्त हो गए। इन कथाओं की घटनाएँ भले ही सच न हों, पर उनमें प्रेम और भक्ति का यथार्थ तत्व छिपा हुआ है। जब धर्म का चरम लक्ष्य ईश्वर से मिलन होता है तब साधना की गति रस की ओर होती है। हृदय में पहले प्रेम-रस का लक्ष्य संभोग की ओर होता है। उसकी ओर चित्त प्रेरित करने से दुर्बलता और विकार उत्पन्न होते हैं। तब मनुष्य दर्मति को प्राप्त होता है। जब संभोग की नि:सारता हृदय में अंकित हो जाती है तब प्रेम अपने यथार्थ रूप में प्रकट होता है। तब उसका लक्ष्य होता है योग। जब दु:ख और वेदना के द्वारा प्रेम का परिपाक होता है तब उसका रूप विशुद्ध होता है। समस्त विश्व से उसका संबंध हो जाता है। तब कोई क्षुद्र नहीं रहता, कोई हेय नहीं रहता। तब प्रेमी सभी को अपना लेता है।
रमेश ने कहा, इसी से प्रेमी का यथार्थ परिचय हमें सहानुभूति में मिलता है, भवावेश में नहीं। जिस प्रेम का अवसान निष्क्रिय भवावेश में होता है वह विकार-मात्र है।
मैंने कहा, पर वैष्णव साहित्य के कारण हिंदी-साहित्य में एक नए आदर्श की सृष्टि हो गई। राधा-कृष्ण के प्रेम में गद्गद होकर भक्त-कवियों ने जिस पवित्र शृंगार-रस की अवतारणा की उसी के कारण हिंदी-साहित्य में शृंगार-रस का आधिक्य हुआ। भक्ति का स्थान भावुकता ने ले लिया। हिंदी के कवियों ने कल्पना के द्वारा एक दूसरा ही जगत निर्मित कर डाला। वह कला का जगत है। उस जगत में वर्षा हो या ग्रीष्म, सौंदर्य की रश्मि-छटा सदैव बनी रहती है। वह प्रेम का निकेतन है। पर इसका अस्तित्व केवल कवि के हृदय में है। अपनी कल्पना के सौंदर्य में वे ऐसे डूब गए कि यथार्थ जगत की ओर उनकी दृष्टि गई ही नहीं। वर्षा-ऋतु में मेघागम देखकर वे किसी कल्पित वियोगिनी के विरह-दु:ख से विकल हो गए, पर देश के हाहाकार से उनका चित्त विकृत नहीं हुआ। जब मुगल साम्राज्य की श्मशान भूमि में भारतीय वैभव का चितानल जल रहा था तब वे नायिका मान करने का उपदेश दे रहे थे। भक्ति का अंत यहाँ हुआ और जब तक हिंदी में ब्रजभाषा का प्राधान्य बना रहा तब तक कवियों के लिए एकमात्र आदर्श नायक-नायिका का प्रेम-वर्णन ही था।
महेश ने कहा, यह सच है कि हिंदी के परवर्ती कवियों ने प्रेम के माधुर्य में ही कला की सार्थकता समझी, पर मैं इसमें दोष नहीं देखता। यह तो वैष्णव साहित्य का स्वाभाविक विकास है। वैष्णव साहित्य ने आत्मा के लिए शरीर और मन की उपेक्षा नहीं की है। यह सच है कि मनुष्य केवल शरीर नहीं है और न मन ही है। यह भी सच है कि आत्मा की अभिव्यक्ति में ही उसकी सत्ता की चरम सीमा है। पर शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के द्वारा ही उसके यथार्थ रूप का विकास होता है। जिन अवस्थाओं का अतिक्रमण करने से आत्मिक विकास होता है वे सभी कला के उपकरण हैं। अतएव मनुष्य के दैनिक जीवन में जो रसधारा बह रही है; जो सौंदर्य परिस्फुट हो रहा है, उसकी और यदि हिंदी के कवियों ने दृष्टिपात किया तो वह सर्वथा उचित है। हिंदी के इन कवियों ने तो आपकी ब्रजभाषा में कला का वह चमत्कार दिखलाया है कि भाषा ही स्वयं सौंदर्यमयी हो गई है। यदि कला का अस्तित्व केवल कला के लिए है तो हिंदी के इन कवियों ने उसी की सृष्टि की है।
रमेश ने कहा, और उस रस का आस्वादन केवल रसिक ही कर सकते हैं। सभी उसके अधिकारी नहीं हैं और सबके लिए उसकी सृष्टि भी नहीं हुई है। जो कला के मर्मज्ञ नहीं उनके लिए उसमें कुछ है भी नहीं, तभी तो आपको उस साहित्य में खोजने पर भी सार नहीं मिलता।
महेश ने कहा, मेरी समझ में तो भक्तिवाद का अंत एक अपूर्व कला की सृष्टि में हुआ है। यह मैं मानता हूँ कि उसमें कवियों की असंयत कल्पना है, पर इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने साहित्य में प्रेम-रस की धारा बहा दी है। सभी को श्याम के रंग में रंगकर उन्होंने एक कर दिया है। उसमें सगुण और निर्गुण का भेद नहीं, उच्च और नीच का विचार नहीं, भले और बुरे की पहचान नहीं।
- पुस्तक : बख्शी ग्रन्थावली खंड−7 (पृष्ठ 117)
- रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
- प्रकाशन : संपादक−नलिनी श्रीवास्तव
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