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पंडितों की पंचायत

panDiton ki panchayat

हजारीप्रसाद द्विवेदी

अन्य

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हजारीप्रसाद द्विवेदी

पंडितों की पंचायत

हजारीप्रसाद द्विवेदी

और अधिकहजारीप्रसाद द्विवेदी

    यह संयोग की बात कही जाएगी कि इस बार के एकादशी वाले झगड़े की सभा में मुझे भी उपस्थित रहना पड़ा। मैं बिलकुल ही नहीं जानता था कि काशी के पंचांग-निर्माताओं ने गाँव में रहने वाले विश्वासपरायण पंडितों को आलोढ़ित कर दिया है। वैशाख शुक्ल पक्ष की एकादशी किसी ने बृहस्पतिवार के दिन बता दी है और किसी ने शुक्र के दिन। अचानक जब एक दिन पंडितों की पंचायत में मुझे बुला भेजा गया तो एकदम शस्त्रहीन योद्धा की भाँति मुझे संकोच के सहित ही जाना पड़ा। सभा में उपस्थित पंडितों में से अधिकांश मुझे जानते थे, किसी-किसी के मत से मैं घोर नास्तिक भी था, फिर भी जाने क्यों इन्होंने मुझे बुलाने की बात का समर्थन किया। शायद इसलिए कि मैं कुछ ज्योतिष-शास्त्र से परिचित समझा जाता था और आलोच्य विषय का कुछ संबंध उक्त शास्त्र से भी था। जो हो, मैंने इसे पंडित-मंडली की उदारता ही समझी और शुरू से आख़िर तक अपना कोई स्वतंत्र मत व्यक्त करने का संकल्प-सा कर लिया।

    मैं जब सभास्थल पर पहुँचा तो विचार आरंभ हो चुका था। इसीलिए यह जानने का मौका ही नहीं मिला कि सभा का कोई सभापति या सरपंच है या नहीं। शायद इसका निर्वाचन ही नहीं हुआ था। मुझे देखते ही एक पंडित जी ने उत्तेजित भाव से कहा कि देखिए 'विश्वपंचांग’ वालों ने क्या अनर्थ किया है। इन लोगों का गणित तीन लोक से न्यारा होता है। भई, सब जगह ज़बरदस्ती चल सकती है, लेकिन शास्त्र पर ज़बरदस्ती नहीं चलेगी। मैंने मन ही मन इसका अर्थ समझ लिया। यह मुझे युद्ध-क्षेत्र में डटने की ललकार थी। मैं हँसकर रह गया।

    शास्त्र पर ज़बरदस्ती! मेरी भावुकता को ज़बरदस्त धक्का लगा। मेरा विद्रोही पांडित्य तिलमिला कर रह गया। क्षण भर में मेरे सामने संपूर्ण ज्योतिषिक इतिहास का रूप खेल गया। एक युग था, जब हमारे देश में लगध मुनि का अत्यंत सूक्ष्म गणित प्रचलित था! लेकिन पंडितों का दल संतुष्ट नहीं हुआ, उसने किसी भी प्राचीन शास्त्र को प्रमाण मानकर अपना अनुसंधान जारी रखा। गणना सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती गई। अचानक भारतवर्ष के उत्तरी-पश्चिमी किनारे पर यवन-वाहिनी का भीषण रण-तूर्य सुनाई पड़ा। देश के विद्यापीठ—गांधार से लेकर साकेत तक—एकाधिक बार विध्वंस्त हुए। भारतवर्ष कभी जीतता रहा, कभी हारता रहा। कभी सारा भारतीय साम्राज्य समृद्धशाली नगरों से भर गया, कभी श्मशान-परिणत जनपदों के हाहाकार से झनझना उठा। पर अनुसंधान जारी रहा। भारतीय और ग्रीक पंडितों के ज्ञान का संघर्ष भी चलता रहा। हठात् ईसा की चौथी शताब्दी में भारतीय ज्योतिष के आकाश में कई ज्वलंत ज्योतिष्क पिंड एक ही साथ चमक उठे। भारतीय गणना बहुत परिमाण में यावनी विद्या से समृद्ध हुई। यावनी विद्या हतदर्प होकर भारतीय गौरव को वरण करने लगी। उस दिन नि:संकोच भारतीय पंडितों ने घोषणा की—यवन म्लेच्छ हैं सही, पर इस (ज्योतिष) शास्त्र के अच्छे जानकार हैं। वे भी ऋषिवत् पूज्य हैं, ब्राह्मण ज्योतिष की तो बात ही क्या है! (गर्गसंहिता)

    मैंने कल्पना के नेत्रों से देखा महागणक आचार्य वराहमिहिर न्यायासन पर बैठकर तत्काल प्रचलित पाँच सिद्धांतों के मतों का विचार कर रहे हैं। इनमें दो विशुद्ध भारतीय मत के प्राचीनतर सिद्धांत है, दो में यावनी विद्या का असर है, पाँचवा (सूर्य-सिद्धांत) स्वतंत्र भारतीय चिंता का फल है। वराहमिहिर ने पहले दोनों यावनी प्रभावापन्न सिद्धांतों की परीक्षा की! पौलिश का सिद्धांत अच्छा मालूम हुआ, रोनक भी उसके निकट ही रहा। आचार्य ने छोटी-मोटी भूलों का ख़याल करते हुए साफ़ कह दिया—अच्छे हैं। फिर 'सूर्यसिद्धांत' की जाँच हुई। आचार्य का चेहरा खिल उठा। यह और भी अच्छा था। और अंत में ब्रह्म और शाकल्य के सिद्धांतों की बारी आई। आचार्य के माथे पर ज़रा-सा सिकुड़न का भाव दिखाई दिया, उन्होंने दोनों को एक तरफ़ ठेलते हुए कहा—उहुँ! ये दूर-विभ्रष्ट हैं।

    पौलिशकृतः स्फुटोऽसौ तस्यासन्नस्तु रोमकः प्रोक्तः

    स्पष्ठतरः सावित्रः परिशेषौ दूर-विभ्रष्टौ। (पंचसिद्धांतिका)

    उस दिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि आचार्य को शास्त्र पर ज़बदस्ती करने वाला कहे। क्योंकि वह स्वतंत्र चिंता का युग था, भारतीय समाज इतना रूढ़िप्रिय और परापेक्षी नहीं था। वह ले भी सकता था और दे भी सकता था। मैंने देखा ब्रह्मगुप्त के शिष्य भास्कराचार्य निर्भीक भाव से कह रहे हैं—इस गणितस्कंध में युक्ति ही एकमात्र प्रमाण है, कोई भी आगम प्रमाण नहीं। यह बात सोलह आने सही थी और भारतीय पंडित-मंडली को सही बात स्वीकार करने का साहस था। पर आज क्या हालत है!

    मैं जिस समय यह चिंता कर रहा था, उसी समय पंडित लोग 'निर्णयसिंधु' और 'धर्मसिंधु' के पन्ने उलट रहे थे। नाना प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध ऋषियों, पुराणों और संहिताओं के वचन पढ़े जा रहे थे और उनकी संगतियाँ लगाई जा रही थीं। मैं उद्विग्न-सा होकर सोच रहा था कि ये निबंध-ग्रंथ क्यों बनाए गए? मुझे ऐसा लगा कि पश्चिम में एक आत्मविश्वासी धर्म का जन्म हुआ है जो किसी से समझौता करना नहीं जानता, किसी को मित्र नहीं मानता। उसके दाहिने हाथ से कठोर कृपाण के आक्रमण से बड़ी-बड़ी सभ्यताओं के लौह-प्राचीर चूरमूर हो जाते हैं, और बाँए हाथ के अमृत आश्वासन से पराजित जन-समूह एक नए जीवन और नए वैभव के साथ जी उठता है। जो एक बार उसके अधीन हो जाता है वही उसके रंग में आपादमस्तक रंग जाता है। वह इस्लाम है।

    इस्लाम विजय-स्फीत-वक्ष होकर भारतीय संस्कृति को चुनौती देता है, उसके बारंबार आक्रमण से उत्तरी भारत संत्रस्त हो उठता है और कुछ काल के लिए समूचा हिंदुस्तान त्राहि-त्राहि की मर्मभेदी आवाज़ से गूँज उठता है। धीरे-धीरे उत्तर के विद्यापीठ दक्षिण और पूर्व की ओर खिसकते जाते हैं। महाराष्ट्र नवीन आक्रमण से मोर्चा लेने के लिए कटिबद्ध होता है और भारतीय विश्वास के अनुसार सबसे पहले अपने धर्म की रक्षा को तैयार होता है। भारतीय पंडितों ने कभी इतनी मुस्तैदी के साथ स्तूपीभूत शास्त्र-संग्रह की छानबीन नहीं की थी, शायद भारतीय संस्कृति को कभी ऐसी विकट ललकार के सुनने की संभावना नहीं हुई थी। क्षणभर के लिए ऐसा जान पड़ा कि भारतीय मनीषा ने स्वतंत्र चिंता को एकदम त्याग दिया है, केवल टीका, केवल निबंध, केवल संग्रह-ग्रंथ! शास्त्र के किसी अंग पर स्वतंत्र ग्रंथ नहीं लिखे जा रहे है। सर्वत्र टीका पर टीका, तिलक पर तिलक, तस्यापि तिलक—एक कभी समाप्त होने वाली टीकाओं की परंपरा।

    देखते-देखते टीका-युग का प्रभाव देश के इस छोर से उस छोर तक व्याप्त हो जाता है। महाराष्ट्र, काशी, मिथिला और नवद्वीप टीकाओं और निबंधों के केंद्र हो उठते हैं। शास्त्र का कोई वचन छोड़ा नहीं जाता है, किसी भी ऋषि की उपेक्षा नहीं की जा रही है, पर भयंकर सतर्कता के साथ प्रचलित लोक नियमों का ही समर्थन किया जाता है। इस नियम के विरोध में जो ऋषि-वचन उपलब्ध होते हैं उन्हें 'ननु’ के साथ पूर्व पक्ष में कर दिया जाता है और उत्तर पक्ष सदा स्थानीय आचारों का समर्थन करता है। पंडितों की भाषा में इसी को संगति लगाना कहा जाता है। संगति लगाने का यह रूप मुझे हतदर्प भारतीय धर्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी जान पड़ी। मैं ठीक समझ नहीं सका कि शास्त्रीय वचनों के इन विशाल पर्वतों को खोदकर ये चुहियाँ क्यों निकाली जा रही हैं।

    यह जो एकादशी व्रत का निर्णय मेरे सामने हो रहा है, जिसमें बीसियों आचार्यों के सैकड़ो श्लोक उद्धृत किए जा रहे हैं, अपने-आप में ऐसा क्या महत्त्व रखता है जिसके लिए एक दिन सैकड़ों पंडितों ने परिश्रम-पूर्वक सैकड़ों निबंध रचे थे और आज आसेतु हिमाचल समस्त भारतवर्ष के पंडित उनकी सहायता से व्रत का निर्णय कर रहे हैं? क्या श्रद्धापूर्वक किसी एक दिन उपवास कर लेना पर्याप्त नहीं था! यदि एकादशी किसी दिन 55 दंड से ऊपर हो गई, या किसी दिन उदयकाल में सकी, या किसी दिन दो बार उदयकाल में गई, तो क्या बन या बिगड़ गया? किसी भी एक दिन व्रत कर लेना क्या पर्याप्त नहीं है। मुझे 'ननु', 'तथाच' और 'उक्तैच' की धुआँधार वर्षा से मध्ययुग का आकाश इतना आविल जान पड़ा कि बीसवीं शताब्दी का ज्ञानलोक अनेक चेष्टाओं के बाद भी निबंधकारों की असली समस्या तक नहीं पहुँच सका। मैंने फिर एक बार सोचा, शास्त्रीय वचनों के इन विशाल पर्वतों को खोदकर यह चुहिया क्यों निकाली जा रही है।

    लेकिन आज चाहे कुछ भी क्यों जान पड़े, टीका-युग का प्रारंभ नितांत अर्थहीन नहीं था। मुझे साफ़ दिखाई दिया, भारतवर्ष की पदध्वस्त संस्कृति हेमाद्रि के सामने खड़ी है, चेहरा उसका उदास पड़ गया है, अश्रु-अंध-नयन कोटरशायी-से दिख रहे हैं, वदन-कमल मुरझा गया है। हेमाद्रि का मुखमंडल गंभीर है, भूदेश किंचित् कुंचित हो गए हैं, विशाल ललाट पर चिंता की रेखाएँ उमड़ आई हैं, अधरोष्ठ दाँतो के नीचे गया है—वे किसी सुदूर को वस्तु पर दृष्टि लगाए हैं। यह दृष्टि कभी अर्थहीन नहीं हो सकती, वह किसी निश्चित सत्य पर निपुण भाव से आबद्ध है। शायद वह भारतवर्ष के विच्छिन्न रस्म और रवाजों की बात होगी, शायद वह स्तूपभूत शास्त्रों के मतभेद की चिंता होगी, शायद वह संपूर्ण आर्य-सभ्यता को एक कठोर नियम-सूत्र में बाँधने की चेष्टा होगी, शायद वह नवागत प्रतिद्वंद्वी धर्म की अचिंतनीय एकता के जवाब की बात होगी—पर वह थी बहुत दूर की बात। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं रहा। जिस पंडित के लिए समग्र शास्त्र हस्तामलकवत् थे, जिसकी आँखों के सामने भारतीय संस्कृति नित्य कुचली जा रही थी, उस महामानव का कोई प्रयत्न निरर्थक नहीं हो सकता।

    अगर सारा भारतवर्ष एक ही दिन उपवास करे, एक ही दिन पारण करे, एक ही मुहूर्त में उठे-बैठे, तो निश्चय ही वह एकसूत्र में ग्रंथित हो जाए। हेमाद्रि और उनके अनुयायियों का यही स्वप्न था, वह सफल हुआ। आज की यह पंचायत उसी सफलता का सबूत है। इस समय यह विचार नहीं हो रहा है कि विश्व पंचांग का मत मान्य है या और किसी का, बल्कि इस बात का निर्णय होने जा रहा है कि वह कौन-सा एक—और केवल एक—दिन होना चाहिए जब सारे भारत के गृहस्थ एक ही चिंता के साथ उपोषित होंगे। आज की सभा का यही महत्त्व है।

    हेमाद्रि का स्वप्न सफल हुआ; पर उद्देश्य नहीं सिद्ध हो सका। भारतवर्ष एक ही तिथि को व्रत और उपवास करने लगा, एक ही मुहूर्त में उठने-बैठने के लिए बद्धपरिकर हुआ; पर एक नहीं हो सका। उसकी कमज़ोरी केवल रस्मों और रवाजों तक ही सीमित नहीं थी, यह तो उसकी बाहरी कमज़ोरी थी। जातियों और उपजातियों से उसका भीतरी अंग जर्जर हो गया था, हज़ारों संप्रदायों में विभक्त होकर उसकी आध्यात्मिक साधना शतच्छिद्र कलश की भाँति संग्रहहीन हो गई थी—वह हतज्योति उल्का-पिंड की भाँति शून्य में छितराने की तैयारी कर रहा था।

    लेकिन डूबते-डूबते भी सँभल गया। तकदीर ने तन्त पर उसकी ख़बर ली, ज्यों ही नाव डगमगाई, त्यों ही किनारा दिख गया। और भी सुदूर दक्षिण से भक्ति की निविड़ घन-घटा दिखाई पड़ी, देखते-देखते यह मेघखंड सारे भारतीय आसमान में फैल गया और आठ सौ वर्षो तक इसकी जो धारासार वर्षा हुई, उसमें भारतीय साधना का अनेक कूड़ा बह गया, उसके अनेक बीज अंकुरित हो उठे। भारतवर्ष नए उत्साह और नए वैभव से शक्तिशाली हो उठा। उसने उदात्त कंठ से दृढ़ता के साथ घोषित किया—प्रेमापुमर्थों महान—प्रेम ही परम पुरुषार्थ है! विधि और निषेध, शास्त्र और पुराण, नियम और आचार, कर्म और साधना, इन सबके ऊपर हैं। यह अमोघ महिमाशाली प्रेम। प्रेमी जाति और वर्ण से ऊपर है, आश्रम और संप्रदाय से अतीत है।

    जिन दिनों की बात हो रही है, उन दिनों भारतवर्ष का प्रत्येक कोना तलवार की मार से झनझना रहा था, बड़े-बड़े मंदिर तोड़े जा रहे थे, मूर्तियाँ विध्वस्त की जा रही थीं, राज्य उखाड़े जा रहे थे। विच्छिन्न हिंदू-शक्ति जीवन के दिन गिन रही थी और साथ ही दो भिन्न दिशाओं से उसे संहत करने का प्रयत्न चल रहा था। विच्छेद और संघात के दो परस्पर-विरोधी प्रयत्नों से एक अज्ञातपूर्व दशा की सृष्टि हुई। हिंदू सभ्यता नई चेतना के साथ जाग उठी। आज जो आलोचना चल रही है, वह उसी नई चेतना का भग्नावशेष है। उसमें कोई स्फूर्ति नहीं रह गई है। नीरस और प्रलंबमान तर्क-जाल से उकताकर मैं उद्विग्न हो रहा था। जी में आया, यहाँ से उठ चलूँ और इस विचार के आते ही मेरी कल्पना वहाँ से उठाकर मुझे अन्यत्र ले चली।

    मुझे ऐसा जान पड़ा, मैं सारे जगत् के छोटे-मोटे व्यापार को देख सकता हूँ। मेरी दृष्टि समुद्र पार करके अद्भुत कर्ममय लोक में पहुँची। यहाँ के मनुष्यों में किसी को फ़ुरसत नहीं जान पड़ी, सबको समय के लाले पड़े थे। सारे द्वीप में एक भी ऐसा गाँव नहीं मिला, जहाँ घंटों तक एकादशी व्रत के निर्णय की पंचायत बैठ सके। सभी व्यस्त, सभी चंचल, सभी तत्पर! मैं आश्चर्य के साथ इनकी अपूर्व कर्म-शक्ति देखता रह गया। यहाँ से लाल, काली, नीली आदि अनेक तरह की तरंगें बड़े वेग से निकल रही थीं और सारे जगत के वायुमंडल को मुहूर्त भर में तरंगित कर देती थीं। भारतवर्ष के शांत वायुमंडल पर भी ये बार-बार आघात करती हुई नज़र आई। वह भी कुछ विक्षुब्ध हो उठा। ये विचारों की लहरें थीं।

    मैं सोचने लगा, यूरोप से आए हुए नए विचार किस प्रकार नित्यप्रति हमारे समाज को अज्ञात भाव से एक विशेष दिशा की ओर खींचे लिए जा रहे हैं। पुस्तकों, समाचार-पत्रों, चलचित्रों और रेडियो आदि के प्रचार से हमारे समाज के विचार में भयंकर क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। भयंकर इसलिए कि अभी तक यह समाज इस क्रांतिकारी विचार के महाभार को संभालने के योग्य नहीं हुआ है—उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं। उसके कंधे दुर्बल हैं, उसकी छाती धड़क रही है। हम संत्रस्त की तरह इन विचारों को देखते हैं; पर जब अज्ञात भाव से ये ही हमारे अंदर घर कर जाते हैं तो या तो हम जान ही नहीं सकते या यदि जान सकते हैं तो घबरा उठते हैं। आज की सभा भी इसी घबराहट का एक रूप है।

    जिस दिन तक भारतीय ज्योतिष-शास्त्र के साथ इस नवीन विचार का संघर्ष नहीं चला था, तब तक दृश्य और अदृश्य गणना नामक दो अद्भुत शब्दों का आविष्कार नहीं हुआ था। साधारण दिमाग़ को यह समझ में नहीं आवेगा कि गणना—ज्योतिष की प्रत्यक्ष गणना—दृश्य और अदृश्य एक ही साथ कैसे हो सकती है। पंडित लोग इस बात को इस प्रकार समझाते हैं—पहली तरह की गणना वह जिसे हमारे प्राचीन आचार्यों ने बताई है। यह ऋषिप्रोक्त गणना है। इस पर से अगर ग्रह-गणित करो तो कुछ स्थूल आता है, अर्थात् इस स्थान पर से ग्रह कुछ इधर-उधर हटा हुआ नज़र आता है। पर आधुनिक वैज्ञानिक गणना से वह ठीक स्थान पर दिखता है। यह तो कहा नहीं जा सकता कि ऋषियों की गणना ग़लत है, असल बात यह है कि वह अदृश्य गणना है, वह आसमान में ग्रहों को यथास्थान दिखाने की गणना नहीं है; बल्कि एकादशी आदि व्रतों के निर्णय करने की गणना है। ये व्रत भी अदृश्य हैं, इनके फल भी अदृश्य हैं, फिर इनकी गणना क्यों अदृश्य हो? दृश्य-गणना आधुनिक विज्ञान-सम्मत है। इसका काम ग्रहण, युति आदि दृश्य पदार्थों को दिखाना है। कुछ पंडित पहली गणना को ही मानकर पत्रा बनाते हैं, कुछ दूसरी के हिसाब से, कुछ दोनों को मिलाकर। इन दोनों को मिलाने से जिस 'दृश्यादृश्य' नामक विसंकुल गणना का अवतार हुआ है उसमें कई पक्ष हैं, कई दल हैं। कोई स्वप्न, कोई निरयण, कोई रैवत, कोई चैत्र, अनेक मत खड़े हुए हैं। झगड़ा बहुत-सी छोटी-मोटी बातों तक पहुँचा हुआ है। उदाहरण के लिए मान लिया जाए कि किसी प्राचीन पंडित ने कहा कि 'क' से 'ख' स्थान का देशांतर-काल एक घंटा है और आज के इस वैज्ञानिक युग में प्रत्यक्ष सिद्ध हो गया है कि एक घंटा नहीं, पौन घंटा है। अब कौन-सा मत मान लिया जाए? कोई एकादशी व्रत के लिए प्राचीन आचार्य की बात पर चिपटा हुआ है, दूसरा इतनी-सी बात में उदार होना पसंद करता है। इन अनेक झगड़ों के कारण एकादशी व्रत का निर्णय करना बड़ा मुश्किल हो गया है। प्रत्येक पन्ना अलग-अलग राय देता है, प्रत्येक पंडित अलग-अलग मत का समर्थन करता है। यह पश्चिमी विचारों के संघर्ष का परिणाम है। आज की इस छोटी-सी सभा का कोई भी पंडित यह बात ठीक-ठीक नहीं समझ रहा है। एकादशी व्रत का यह झगड़ा शारदा ऐक्ट से कम ख़तरनाक नहीं है, बाबू भगवानदास के प्रस्तावित क़ानून से कम उद्वेगजनक नहीं है। अगर ये क़ानून भारतीय संस्कृति को हिला सकते हैं तो यह झगड़ा और भी अधिक हिला देगा।

    लेकिन भारतीय संस्कृति क्या सचमुच ऐसी कमज़ोर नींव पर खड़ी है, कि कोई एक ऐक्ट, कोई एक क़ानून और एक विचार-विनिमय उसे हिला दे? मैं समझता हूँ नहीं। मेरे सामने छः हज़ार वर्षों की और सहस्त्रों योजन विस्तृत देश की विशाल संस्कृति खड़ी है, उसके इस वृद्ध शरीर में ज़रा भी बुढ़ापा नहीं है, वह किसी चिरनवीन प्रेरणा से परिचालित है। उसके मस्तिष्क में सहस्त्रों वर्ष का अनुभव है। लेकिन थकान नहीं है, उसकी आँखों में अनादि तेज झलक रहा है, पर आलस्य नहीं है! वह अपूर्व शक्ति और अनंत धैर्य को अपने वक्षःस्थल में वहन करती रही है। उसने अपने विराट परिवर्तनशील दीर्घ जीवन में क्या-क्या नहीं देखा है? कुछ और देख लेने में उसे कुछ भी झिझक नहीं, कुछ भी हिचक नहीं है। जो लोग इस तेजोमय मूर्ति को नहीं देख सकते वही घबराते हैं, मैं नहीं घबरा सकता।

    शास्त्र-चर्चा अब भी चल रही थी। मै सोचने लगा—क्या यह ज़रूरी नहीं है कि सभी पंचांग वाले एकमत होकर एक ही तरह का निर्णय करें? शायद नहीं। क्योंकि हमारा देश एक विचित्र परिस्थिति में से गुज़र रहा है। वह पुराना रास्ता छोड़ने को बाध्य है, किंतु नया रास्ता अभी मिला नहीं। वह कुछ पुराने के मोह में और नए के नशे में झूल रहा है। किसी दूसरे के दिखाए रास्ते से जाने की अपेक्षा ख़ुद रास्ता ढूँढ़ लेना अच्छा है। चलने दो, हम भिन्न-भिन्न मतों को, भारतीय जनमत स्वयमेव इनमें से अच्छे को चुन रहा है। इस दृष्टि से इस सभा का बड़ा महत्त्व है। यह भटके हुए लोगों का राह खोजने का प्रयास भी अच्छा है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सम्मेलन निबंध माला (भाग 2) (पृष्ठ 132)
    • संपादक : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल
    • रचनाकार : हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल

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