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भिन्नरूचिहिं लोक

bhinnruchihin lok

इलाचंद्र जोशी

इलाचंद्र जोशी

भिन्नरूचिहिं लोक

इलाचंद्र जोशी

और अधिकइलाचंद्र जोशी

    रुचि की विभिन्नता भोजन से लेकर साहित्य-रसास्वादन तक सभी क्षेत्रों में पाई जाती है। इस रुचि के पीछे कोई वस्तुगत कारण नहीं होता, बल्कि मनोवैज्ञानिक कारण होता है। पर यह मनोवैज्ञानिक: कारण ऐसा प्रबल होता है कि दूसरों की किसी भी शिक्षा, निर्देशन या सुझाव का कोई प्रभाव उस पर सहज में नहीं पड़ता। जो व्यक्ति वाल्मीकीय रामायण की शैली का प्रेमी है और कालिदास के ‘रघुवंश’ की शैली को नापसंद करता है उसे आप ‘रघुवंश’ का प्रेमी पाठक नहीं बना सकते, फिर चाहे आप कैसे ही विद्वत्ता पूर्ण तर्क क्यों उपस्थित करें। यदि वह व्यक्ति विद्वान होगा तो संभवत: वह कालिदास के काव्य के विरुद्ध ऐसे-ऐसे साहित्यशास्त्रीय तर्क उपस्थित करेगा कि रघुवंश का प्रेमी मुँह बाए ताकता रह जाएगा। पर मुँह से कुछ उत्तर देने पर भी रघुवंश-प्रेमी अंतर्मन से प्रशंसा करेगा कालिदास के ही वाव्य की, क्योंकि उसकी वह रुचि किसी के सिखाने से नहीं बनी है, बल्कि उसका विकास उसकी अपनी निजी प्रवृत्तियों के विकास के अनुसार हुआ है।

    यदि केवल मूर्खों में ही रुचिभेद पाया जाता तो यह प्रश्न कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण होता। पर दो दिग्गज विद्वानों के बीच भी किसी विशेष साहित्यिक कृति के गुणों या अवगुणों के संबंध में मूलगत मतभेद पाया जा सकता है। प्रतिदिन के जीवन में इस तथ्य के ज्वलंत और अनुभव-सिद्ध प्रमाण मिलते रहते हैं। हर युग में, हर देश में, हर समाज में ऐसे व्यक्ति मिलते हैं जो अपनी व्यक्तिगत रुचि द्वारा किसी साहित्यिक रचना का विवेचन अथवा मूल्यांकन करना चाहते हैं, अपने विवेक द्वारा नहीं। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा करके वे ग़लती करते हैं। वास्तविकता यह है कि किसी की रुचि के संबंध में यह कहा ही नहीं जा सकता (कुछ विशेष अपवादजनक दृष्टांतों को छोड़कर) कि वह सही है या ग़लत क्योंकि कहने वाला स्वयं अपनी एक विशेष रुचि और संस्कार के अनुसार निर्णय करता है। कोई भी साहित्य-सर्जक, साहित्यालोचक या पाठक यह दावा नहीं कर सकता कि एकमात्र उसी की रुचि गाहित्यिक मूल्यांकन की अंतिम कसौटी है।

    इस साधारण से तथ्य पर ध्यान देने का फल यह देखने में आता है कि विभिन्न रुचियों के साहित्य-प्रेमी या साहित्यालोचक एक-दूसरे के प्रति खंगहस्त हो उठते हैं और किसी एक विशेष रचना के संबंध में मतभेद होने के कारण एक-दूसरे के जीवनव्यापी शत्रु बन बैठते हैं। रुचि वैभिन्य के कारण पारखियों के बीच मारपीट और हत्याकांड तक होते देखे गए हैं। एक बार विख्यात साहित्यालोचक हैज़लिट और एक दूसरे साहित्यकार के बीच दो सुप्रसिद्ध चित्रकारों की कृतियों की विशेषताओं के संबंध में बहस होने पर मारपीट हो गई और दोनों एक-दूसरे का गला घोंटकर मार डालने पर उतारू हो गए। विख्यात इटालियन कवि एरियोस्तो और तासो में कौन श्रेष्ठ है; इस बात को लेकर एक बार दो साहित्य-प्रेमियों के बीच द्वंद्व युद्ध हो गया, जिसके फलस्वरूप एक बुरी तरह घायल हो गया। घायल होने पर उसने यह स्वीकार किया कि उसने जिस कवि का पक्ष लिया था उसकी प्रमुख कृतियों को उसने कभी पढ़ा तक नहीं, केवल उसकी दो-चार छिटपुट पंक्तियाँ पढ़ी थीं जो उसे बहुत पसंद आई थीं!

    केवल दो-चार पंक्तियाँ प्रिय लगने के कारण। वह उस कवि की महानता सिद्ध करने के लिए अपनी जान तक दे डालने को तैयार हो गया। तब जो लोग अपनी रुचि के किसी कवि या साहित्यकार की पूरी रचनाएँ पढ़ चुके हों वे उसकी श्रेष्ठता के विरुद्ध कोई बात कैसे सुनने को राज़ी हो सकते हैं।

    और यह रुचिभेद युगों से चला रहा है। केवल साधारण लेखकों, कवियों ओर साहित्यालोचकों की बात में नहीं कह रहा हूँ। महान् से महान्, युगों से विख्यात और सुप्रतिष्ठित कवियों या कलाकारों की कृतियों के संबंध में बड़े से-बड़े विद्वान आलोचकों के बीच इस हद तक मतभेद पाया गया है कि वह खाई कभी भी पट सकेगी यह बात संदेहास्पद मालूम होने लगती है। शेक्सपीयर की रचनाओं में कलात्मक त्रुटियाँ दिखाने वाले लोग केवल उसी के युग में वर्तमान नहीं थे। अठारहवी, उन्नीसवीं और बीसवीं शती में भी कई बड़े-बड़े आलोचकों ने उसकी शैली को अपरिष्कृत और अनगढ़ बताया है। इसके विपरीत बहुत से दूसरे आलोचक (जो विरोधी आलोचकों की अपेक्षा कुछ कम विद्वान और जानकार नहीं है) शेक्सपीयर को मानवीय सत्ता से बहुत ऊपर उठाकर उस पर देवत्व का आरोप करते रहे हैं।

    कालिदास के युग में सौमिल्लक, कविपुत्र, घटखर्पर, दिङ्नाग आदि ऐसे कवि, साहित्यकार और साहित्यालोचक वर्तमान थे जो कालिदास की रचनाओं की बड़ी कड़ी आलोचना किया करते थे, ऐसा कहा जाता है। घटखर्पर को लोग परंपरा मे विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक, और कालिदास का समकालीन मानते हैं। समकालीन सही, कालिदास के कुछ समय बाद ही सही, उसने कालिदास को कभी बड़ा कवि नहीं माना। कालिदासीय विचारधारा और शैली का वह कट्टर विरोधी था। ‘कुमार-संभव’ में कालिदास की इन प्रसिद्ध पंक्तियों की तीव्र आलोचना उसने की थी :

    एको हि दोषो गुणसन्निपाते।

    निमज्जतीन्दो: किरणेष्विवांक:॥

    (बहुत से गुणों का सन्निपात होने से उसमें एक दोष ठीक उसी तरह विलीन हो जाता है जिस प्रकार चंद्रमा की असंख्य किरणों का प्रकाश उसके कलंक को छिपा देता है।)

    घटखर्पर ने इन लोक-प्रिय पंक्तियों की आलोचना करते हुए लिखा था :

    एको हि दोषो गुणसन्निपाते

    निमज्जतीन्दोरीति यो बभाषे

    नूनं दृष्टं कविनाऽपि तेन

    दारिद्र यदोषो गुणराशिनाशी॥

    अर्थात् ‘जिस कवि ने यह कहा है कि गुणों के सन्निपात में एक दोष चंद्रमा की किरणों के बीच कलंक की तरह छिप जाता है, उसने निश्चय ही इस बात पर ध्यान नहीं दिया—इस बात का अनुभव ही उसे कभी नहीं हुआ—कि एकमात्र दारिद्रय-दोष ढेरों गुणों को एकदम नष्ट कर देता है।’

    कालिदास ने ढेरों गुणों के बीच एक दोष के छिप जाने की बात कही थी और घटखर्पर ने ठीक उसके विपरीत बात कही—अर्थात् केवल एक बड़े दोष के भीतर गुणों के ढेर छिप सकते है। यदि सहनशीलता के साथ तटस्थ दृष्टि से देखा और सोचा जाए तो दोनों की बातों में सचाई मिलेगी—केवल दृष्टिकोण का अंतर है। पर यदि घटखर्पर से किसी ने पूछा होगा तो उसने अपने दृष्टिकोण को निश्चय ही अकाट्य और अंतिम सत्य बताया होगा और बहुत संभव है कि अपनी बातचीत में वह कालिदास को मूर्ख, अहम्मन्य और तिकड़मबाज़ी द्वारा आगे बढ़ा हुआ कवि मानता होगा। मैं उसकी ईमानदारी में संदेह नहीं करता, और यह कहकर उसकी बात टाली जा सकती है कि वह या तो मूर्ख था या ईर्ष्यालु। उसे मैं मूर्ख इसलिए मानने को तैयार नहीं हूँ कि उसने जो दृष्टांत उपस्थित किया है वह जीवन की यथार्थता की दृष्टि से पूर्णत: युक्ति-संगत है। ईर्ष्यालु वह हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता, पर जब वह अपनी बात के पक्ष में एक वज़नदार तर्क दे रहा है तब हमें उस तर्क के आधार पर ही उसकी मनोवृत्ति का परीक्षण करना चाहिए, कि अनुमान से।

    घटखर्पर के तर्क से यह मनोवैज्ञानिक अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि दरिद्रता की पीड़ा कैसी निर्मम और सर्वशोषी है, इसका अनुभव उसने स्वयं अपने जीवन संघर्ष के दौरान में किया होगा। फलत: जीवन के मूल्यों के संबंध में उसका एक निश्चित और विशेष मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण बन गया होगा और स्वभावत: साहित्यिक मूल्यांकन भी वह उसी यथार्थवादी दृष्टिकोण से किए जाने के पक्ष में हो गया। उसने ईमानदारी से यह सोचा होगा कि चूँकि कालिदास को दरिद्रता से लड़ने के लिए कोई संघर्ष कभी नहीं करना पड़ा इसलिए सत्य के यथार्थवादी पहलू की ओर वह ध्यान दे सका। इस तरह हम देखते हैं कि कालिदासीय मनोधारा उसकी रुचि के एकदम विपरीत पड़ती थी।

    रुचि से मेल बैठने पर कवि आलोचक को अपना शत्रु मानने लगता है और एक आलोचक दूसरे आलोचक को। यदि कालिदास के टीकाकार मल्लिनाथ की परंपरा से सुनी बात को हम प्रमाण मानें तो अपने विरोधी आलोचक दिङ्नाग की बातों से वह निश्चय ही चिढ़ता और उसे अपना परम शत्रु मानता होगा। इसीलिए उसने ‘मेघदूत’ रचना के समय अन्योक्ति के रूप में दिङ्नाग को इस पंक्ति द्वारा परास्त कर देना चाहा है :

    दिङ्नागानां पथि परिहरन् स्थूल हस्तावलेपान्।

    ‘दिङ्नागों के मोटे हस्तों (सूंडों) की फटकार को बचाकर तुम आगे बढ़ना।’

    दिङ्नाग को कालिदास निश्चय ही एक ऐसा मूर्ख समझता होगा, जो कलात्मक तत्वों की बारीकियों को समझने में असमर्थ है। और दिङ्नाग भी बदले में कालिदास को मूर्ख नहीं तो धूर्त अवश्य ही समझता होगा, जो केवल कलाप्रेमियों को प्रसन्न रखने और लच्छेदार शब्दों और उपमाओं द्वारा अपने आश्रयदाता राजा, सामंत या सामंतों की कृपा अपने ऊपर बनाए रखना चाहता हो, और काव्य के ‘गहन तत्वों’ की या तो जानबूझकर उपेक्षा करता हो या उन्हें समझता ही हो! दोनों की ईमानदारी में संदेह करने का कोई कारण मैं नहीं देखता, केवल दोनों की मनोवैज्ञानिक धाराओं में अंतर मानता हूँ।

    वररुचि ने निश्चय ही अपनी रचनाओं के किसी आलोचक के विपरीत दृष्टिकोण से झल्लाकर इस प्रसिद्ध श्लोक की रचना की होगी।

    इतर दु:खशतानि यदृच्छया

    वितर तानि सहे चतुरानन।

    अरसिकेषु रसस्य निवेदनं

    शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख॥

    ‘हे चतुरानन, तू और जितने भी दु:खों को मेरे ऊपर लादना चाहे शौक़ से लाद; उन सबको में सह लूँगा। केवल यह दुःख तू मेरे कपाल में मत लिख, मत लिख, मत लिख कि किसी अरसिक के आगे मुझे रस-संबंधी चर्चा करनी पड़े।’

    स्पष्ट है कि बड़ी ही मार्मिक पीड़ा की अनुभूति के बाद वररुचि की कलम से इस तरह की बात निकली होगी, तभी उसने ‘मत लिख’ पर तीन बार ज़ोर दिया है। पर प्रश्न यह उठता है कि अरसिक किसे माना जाए? ‘रसिक’ और ‘अरसिक’ ये सापेक्ष शब्द है। मैं जिस कविता या कहानी, नाटक या उपन्यास में रस पाता हूँ उसमें यदि आपको तनिक भी रस प्राप्त नहीं होता तो मेरे लिए आप अरसिक है, और आपकी प्रिय रचना में यदि मुझे अपनी रुचि के अनुकूल रस नहीं मिलता तो मैं आपके लिए अरसिक हूँ। इसका निर्णय करने वाला कोई तीसरा व्यक्ति होना चाहिए कि आपकी रुचि अधिक रसग्राही है या मेरी; पर यह तीसरा व्यक्ति भी अपने विशेष मनोवैज्ञानिक विकास के कारण तीसरी ही रुचि रखता हो इसका क्या निश्चय है? संभव है वह हम दोनों के अपने-अपने पसंद की कृतियों को नीरस और कुरुचिपूर्ण मानता हो और किसी तीसरी ही चीज़ को रसपूर्ण और कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण रामभक्ता हो। क्योंकि रुचि के संबंध में भी यह कहा जा सकता है कि ‘नको कविर्यस्य वच: प्रमाणम्।’ एक भी कवि या आलोचक अभी तक ऐसा नहीं उपजा जिसका वचन रस और रुचि के संबंध में अंतिम निश्चित सत्य के रूप में माना जा सके।

    यह ठीक है कि वररुचि अपनी रुचि को निश्चय ही श्रेष्ठ और सुंदर मानता होगा, जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है; साथ ही इस बात की घोषणा भी वह समय-समय पर अपने युग के साहित्यिक वर्ग के आगे करता रहता होगा कि अमुक कृति महान् और रसपूर्ण है, उसे पढ़कर तुम्हें आनंद प्राप्त होना चाहिए, और अमुक कृति निकृष्ट और नीरस है उससे तुम्हारे मन में घृणा पैदा होनी चाहिए। पर सभी साहित्य-प्रेमी उसके प्रवचनों के अनुरूप अपनी रसानुभूति और रुचि की दिशाएँ मोड़ते चलते होंगे, ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता। बहुत से दूसरे विद्वान् रसिकों की रुचि में और वररुचि की रुचि में निश्चय ही मूलगत अंतर पड़ जाता होगा और तब दोनों एक-दूसरे को मूर्ख यौर अरसिक केवल समझते ही होंगे बल्कि संभवत: मुँह से कहते भी होंगे।

    रुचि के क्षेत्र में डिक्टेटरशिप चल नहीं सकता। कोई व्यक्ति चाहे कैसा ही विद्वान् और ‘साहित्य-रस-मर्मज्ञ’ क्यों हो, वह अपनी रुचि को दूसरों के मन पर बलपूर्वक थोप नहीं सकता, क्योंकि रस-संबंधी रुचि विवेक द्वारा नहीं बल्कि अपने-अपने मनोवैज्ञानिक संस्कारों द्वारा बनती है। जब दो आलोचक पंत और निराला की कविताओं की तुलनात्मक आलोचना करते हुए पाए जाएँ और उनमें से एक पंत की कविता को श्रेष्ठ बताता हो और दूसरा निराला की कविता को, तब आपको यह समझ लेना चाहिए कि दोनों के बीच का झगड़ा पंत और निराला के काव्य साहित्य को लेकर उतना नहीं है जितना इस बात पर कि दोनों में से किसकी रुचि श्रेष्ठ है। क्योंकि पंत बड़े कवि हैं या निराला, इसका निश्चित निर्धारण कर सकने के लिए आपके पास कोई गणित का माप-दंड नहीं है; अपनी रुचि के अतिरिक्त और कोई दूसरा साधन आपके पास नहीं है जिसके द्वारा आप यह प्रमाणित कर सकें कि उक्त दो कवियों में से कोई एक महत्तर है।

    पंडितराज जगन्नाथ ने ठीक ही कहा है कि :—

    दधि मधुरं मधु मधुरं द्राक्षा मधुरा सिताऽपि मधुरैव।

    तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनोवात यत्र संलग्नम्॥

    दही भी मीठा होता है और मधु भी, द्राक्षा भी मीठी होती है और शक्कर भी; पर ये सब चीज़ें सबके लिए समान रूप से मीठी नहीं होतीं। जिसका मनोबात इनमें से जिस विशेष वस्तु से संलग्न हो—अर्थात् जिसकी रुचि जिसमें हो—उसके लिए वही (विशेष) मीठा होता है।

    मनोबात को आधुनिक भाषा में हम मनोवैज्ञानिक संस्कार कह सकते हैं। चाहे पंडितराज जगन्नाथ हों चाहे कल्लू मोची, आप किसी को भी प्रमाण द्वारा यह नहीं समझा सकते कि दही नीरस चीज़ है और मधु से बढ़कर उसका स्वाद नहीं हो सकता। यदि पंडितराज दही के प्रेमी रहे होंगे तो कोई भी मधुप्रेमी अपनी रुचि के आरोपण द्वारा दही के प्रति उनके सहज झुकाव को कम कर सका होगा।

    जो बात दही और मधु के संबंध में कही जा सकती है वह विभिन्न कवियों और साहित्य-सर्जकों की कृतियों के संबंध में कही जा सकती है। पंत का प्रेमी आलोचक चाहे लाख विद्वत्तापूर्ण तर्क उनकी कविता के पक्ष में उपस्थित करे वह निराला की कविता के सच्चे प्रेमी के मन पर से यह विश्वास हटाने में सहज में सफल नहीं हो सकता कि निराला की उड़ान को कोई दूसरा कवि पा नहीं सकता। उसी प्रकार कोई भी निराला-भक्त पंत-काव्य के किसी प्रेमी को सहज में उसके विश्वास-पथ से नहीं दिखा सकता। ऐसे मामलों में विवेक कोई काम नहीं देता। व्यक्तिगत संस्कार अक्सर आलोचना के प्रमुख अंग बन जाते हैं।

    आलोचकों की वैयक्तिक रुचि और रुचिभेद ने साहित्य के मानदंडों को बनाने, बदलने, बिगाड़ने, नई-नई उलझनें पैदा करने, साहित्यिक गति को रोकने और आगे बढ़ाने में, साहित्यिक इतिहास का साथ दिया है। पर वैयक्तिक रुचि की खामखयालियाँ ही सत्र कुछ नहीं है। सामूहिक रुचि अथवा युग-रुचि का भी बहुत बड़ा महत्त्व है। जब कालिदास ने एक नई शैली और नया दृष्टिकोण लेकर नाटक के क्षेत्र में पहले-पहल प्रवेश किया तब उनके सामने जो सबसे पहली और सबसे बड़ी रुकावट थी वह थी युग-रुचि। विद्वान् लोग इस संबंध में एकमत है कि ‘माल-विकाग्निमित्र’ कालिदास की सर्वप्रथम नाटक रचना रही होगी। इस नाटक की प्रस्तावना में जब सूत्रधार में उसका पारिपार्श्वक यह प्रश्न करता है कि आज किसका नाटक खेला जाएगा; तब उसे उत्तर मिलता है कि कालिदास नाम के एक नए कवि का। इस पर पारिपार्श्वक अत्यंत खिन्न होकर पूछता है कि भास, सौमिल्लक, कविपुत्र आदि पहले ही से जमे हुए, प्रतिष्ठित और प्रतिभाशाली कवियों के नाटकों को छोड़कर इस नए कवि कालिदास का नाटक क्यों खेला जा रहा है? इस पर सूत्रधार उत्तर देता है।

    पुराणमित्येव साधु सर्वं

    चापि काव्यं नयमित्यवद्यम्,

    संत: परीक्ष्यान्यतरं भजन्ते

    मूढ़: परप्रत्ययनेयवुद्धि:

    ‘जो कुछ पुराना है वह सब अच्छा ही हो, ऐसी कोई बात नहीं; और नया होने से ही कोई काव्य दोषी माना जा सकता है। मर्मज्ञ लोग पूरी छानबीन के बाद किसी साहित्यिक कृति की (चाहे वह पुरानी हो या नई) श्रेष्ठता या हीनता की परख करते हैं और मूढ़ लोग अपनी समझ से नहीं बल्कि दूसरों की बुद्धि के अनुसार चलकर गुण-अवगुण का विवेचन करते हैं।’

    कालिदास, शेक्सपीयर, गेटे और रवींद्रनाथ की तरह असाधारण प्रतिभाशाली कवि-आलोचक या आलोचक कवि विरले ही होते हैं जो अकेले युग-रुचि की दकियानूसी परंपरा पर हथोड़े चलाकर उसे अपनी रुचि के अनुसार मोड़ने में सफल सिद्ध होते हैं। उनकी इस सफलता का एक बहुत बड़ा कारण यह होता है कि उनकी रुचि उदार और दृष्टि व्यापक होती है। उनकी वैयक्तिक रुचि के भीतर युग-युग से विकसित विभिन्न रुचियाँ सन्निहित रहती हैं, और वे परस्पर विरोधी रुचियों की अलग-अलग विशेषता देख सकते, उनका पृथक्-पृथक् मूल्य आँक सकने और उनकी प्रकट विभिन्नता को एक सामंजस्य के मूत्र में पिरो सकने की समर्थता रखते हैं।

    भवभूति ने भी अपने युग की रुचि के विरुद्ध विद्रोह करके उसे अपनी निजी रुचि के अनुकूल मोड़ने का प्रयत्न किया था। पर संभवत: उसे इच्छानुसार बदलने में वह अपने जीवन में बड़ी कठिनाई का अनुभव करता रहा। फिर भी उसने हार नहीं मानी और युगोत्तर की आशा में बैठकर उसने अपने विद्रोह की घोषणा इन शब्दों में की :

    ये नाम केनचिदिह प्रवदन्त्यवज्ञां

    जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्न:।

    उत्पत्स्यते मम कोऽपि समानधर्मा

    कालो ह्ययं निरवधिविपुला पृथ्वी॥

    ‘जो लोग मेरे अथवा मेरी रचना के संबंध में अवज्ञा से बातें करेंगे वे भले ही जानकार हों, पर उनके लिए मेरा यह प्रयत्न नहीं है। कभी कहीं मेरा कोई समानधर्मा कवि या आलोचक अवश्य उत्पन्न होगा, जो मेरी रचनाओं का, मेरी कला का और मेरे दृष्टिकोण का महत्व समझेगा। क्योंकि काल सीमाहीन है और पृथ्वी विशाल है।’

    यहाँ पर भवभूति ने ‘समानधर्मा’ पर विशेष ज़ोर दिया है, जिससे स्पष्ट है कि वह रुचि वैभिन्य को किसी विशेष काव्य की परख के संबंध में पैदा होने वाली उलझनों का और विघ्नों का प्रधान कारण मानता था। वह इस तथ्य से भली-भाँति परिचित था कि केवल वही आलोचक उसकी नाट्य-कला में रस ले सकता है और उसकी विशेषताओं से परिचित हो सकता है जिसकी रुचि और धंत: प्रवृत्ति उसकी अपनी रुचि और प्रवृत्ति के अनुकूल पड़ती हो।

    जिस काव्यप्रेमी या आलोचक ने यह दोहा रचा कि—

    सूर-सूर तुलसी ससी उडुगरण केशवदास।

    अब के कवि खद्योत सम जहँ-तहँ करत प्रकास॥

    उसके संबंध में तुलसी के प्रेमियों की यह शिकायत स्वाभाविक है कि उसने सूर की कृष्णलीला को तुलसी की रामलीला से अधिक महत्व देकर तुलसी की महान् प्रतिभा के साथ न्याय नहीं किया है। पर जिसने सूर को सूरज के साथ बिठाया उसकी मनोधारा निश्चय ही कृष्ण लीला की ओर अधिक झुकी हुई होगी और सूर की सहज रसमयी कविता उसे अपने प्रेम में ब्रजवासियों के समान ही बहा ले जाती होगी। तुलसीदास की भाव और विवेक-समन्वित शैली उसके अंतर्प्राणों के तारों में झंकार भरने में असमर्थ रही होगी—अर्थात् वह उसके मनोबात के अनुकूल पड़ती होगी।

    इस तरह हम देखते हैं कि युग-युग में वैयक्तिक रुचिभेद का प्रश्न सही साहित्यिक मूल्यांकन में विघ्न उपस्थित करता रहता है। केवल कालिदास जैसे विवेकशील और उदारमना रसज्ञ ही रुचि वैचित्र्य के जाल में फँसने से बच जाते हैं, और विभिन्न रुचियों के कवियों की रचनाओं में रस-तत्व के विविध रूपों का आस्वादन बिना किसी विरोधी संस्कार के कर सकने में समर्थ सिद्ध होते हैं।

    कालिदास मानवीय रुचि के वैभिन्य से भली-भाँति परिचित थे, पर यह होने पर भी सौंदर्य-कला के किसी एक विशेष रूप को अन्य रूपों के ऊपर तरजीह उन्होंने कभी नहीं दी। वह सभी रूपों का उपभोग अलग-अलग ढंग से करना पसंद करते थे।

    रुचि-वैचित्र्य के संबंध में कालिदास का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ़ था। उनका कहना था कि लोग अपनी वैयक्तिक मानसिकता के अनुसार किसी विशेष प्रकार के सौंदर्य तत्त्व या रस-तत्त्व को पसंद करते हैं, पर योग्य परीक्षकों को सभी मानसिक संस्कारों के ऊपर उठकर उन सभी महत्वपूर्ण सौंदर्य या रस-तत्वों का समुचित मूल्यांकन तटस्थ दृष्टि से करना चाहिए। यही कारण था कि जहाँ एक ओर सीता और शंकुतला के प्रशांत, धीर, करुण और सुकुमार अंतर और बाह्य सौंदर्य का रस वह परिपूर्ण रूप से ग्रहण कर सके वहाँ ताड़का के समान विकराल नारी के प्रकट में अत्यंत जघन्य और बीभत्स रूप में भी उनकी उदार विवेकशील और सूक्ष्मदर्शिनी दृष्टि एक निराले ही सौंदर्य का दर्शन कर सकी। विश्वामित्र के तपोवन में जब ताड़का आविर्भूत होती है तब उस दृश्य का वर्णन करते हुए कालिदास ने लिखा है :

    ज्यानिनादमथ गृह्णती तयो

    प्रादुरास बहुलक्षपाछवि:।

    ताड़का चलकपालकुण्डला

    कालिकेव निबिड़ा बलाकिनी॥

    ‘राम के धनुष की डोरी की टंकार सुनते ही अमावस्या की रात के समान घोर कृष्णवर्ण ताड़का निरंतर हिलते हुए नर-कपालों के कुंडल धारण किए हुए इस तरह आविर्भूत हुई जैसे वर्षाकाल की काली बदली बगुलों की पाँति से सुशोभित हो।’

    बगुलों की पाँति से शोभित वर्षा की काली घटा से ताड़का के रूप की उपमा देकर कालिदास ने उपमा का औचित्य पूर्णतया क़ायम रखते हुए उस घिनौनी ताड़का में भी वह सौंदर्य तत्व देख लिया जो किसी भी विरोधी संस्कार वाले कवि के लिए असंभव था।

    राममन्मथशरेण ताड़िता

    दु:सहेन हृदये निशाचरी।

    गंधवद् धिर चंदनीक्षिता

    जीवितेष वसति जगाम सा॥

    ‘राम ही मानो मन्मथ थे, जिनके दु:सह बाण से पीड़ित होकर वह निशाचरी (राक्षसी अथवा अभिसारिका) रुधिर रूपी लाल चंदन से शोभित और गंधित होकर जीवितेष (यम या प्रियतम) के निवास की और चल पड़ी।”

    वैयक्तिक मानसिकता और युग-रुचि से ऊपर उठ सकने वाला कवि ही प्रकट में घृणित या बीभत्स लगने वाले दृश्यों या घटनाओं में भी निराला सौंदर्य-तत्व और अपूर्व रस-तत्व प्राप्त कर सकता है, कालिदास के ये दो श्लोक इस बात के प्रमाण है।

    अंत में रुचि वैचित्र्य के संबंध में स्वयं कालिदास का ही एक श्लोक उद्धृत करके में यह प्रसंग समाप्त करूँगा। इंदुमती के स्वयंवर में जब सुनंदा विभिन्न राजाओं के पास उसे ले जाकर एक-एक करके उनका परिचय देती हुई अंग देश के राजा के पास उसे ले गई और उनके गुणों की बहुत प्रशंसा कर चुकी, तब इंदुमती ने उससे कहा। “आगे बढ़ो।” उसके इस अवज्ञामूलक संक्षिप्त संकेत पर कवि की टिप्पणी इस प्रकार है :

    नासौ काम्यो वेद सम्यग्

    द्रष्टुं सा भिन्नरूचिहिं लोक:।

    “यह बात नहीं थी कि वह राजा सुंदर या काम्य हो, और यही बात थी कि इंदुमती ने उसे ठीक से देखकर उसके व्यक्तित्व का सम्यक् निरूपण किया हो। फिर भी जो वह राजा उसे भाया, इसका कारण केवल यही था कि लोगों की रुचि भिन्न-भिन्न होती है।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : देखा-परखा (पृष्ठ 45)
    • रचनाकार : इलाचंद्र जोशी
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संज
    • संस्करण : 1957
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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