कला में जीवन की अभिव्यक्ति
kala mein jivan ki abhivyakti
(एक)
समाज की तरह साहित्य में भी लोकोक्तियाँ बनती जा रही है, जिनमें से यह उक्ति प्राय: सुनाई पड़ती है—‘कला कला के लिए।’ इस उक्ति के आधार पर हमारे यहाँ यह धारणा कुछ-कुछ फैल चली है कि दिन-रात के इस हँसते-रोते विश्व से पृथक् कला कोई भिन्न वस्तु हैं, जिसका अस्तित्व केवल लिखने-पढ़ने के संसार तक ही सीमित है, प्रत्यक्ष जीवन की एकतारता के साथ उसका कोई संबंध नहीं। और इसीलिए, साहित्य के जड़वत् मूक-पृष्ठों पर चाहे जो लिख दिया जाए, उस लिखित भाग को हिला-डुलाकर जीवन उससे यह प्रश्न नहीं कर सकता कि, तुम्हारा हमारे अभ्युदय में क्या संबंध है, तुम मेरे उपवन में फूल लगा रहे हो या बबूल? आग बरसा रहे हो या बरसात की झड़ी? तुम विध्वंसक हो या स्रष्टा?
‘कला कला के लिए’ का कोई भ्रांत लेखक कदाचित् कहेगा—जीवन को कला में यह प्रश्न करने का अधिकार नहीं। वह तो केवल ‘कला’ है, जीवन का सगोत्रीय नहीं कि उसके कृत्यों के लिए पंचायत की जाए अथवा उसके कारनामों का लेखा-जोखा लिया जाए। तब क्या कला जीवन से जाति-बहिष्कृत हैं? परंतु बात तो ऐसी नहीं जान पड़ती। जिस प्रकार जीवन मानव-शरीर धारण कर समाज के सम्मुख उपस्थित होता हैं, उसी प्रकार कला, ग्रंथ का शरीर धारण कर जीवन के सम्मुख उपस्थित होती है। किसी भी कलात्मक ग्रंथ को शीशेदार अलमारी में बंद कर या टेबुल पर रखकर हम नुमाइशी वस्तुओं की तरह केवल देखते भर नहीं, केवल उसकी छपाई-सफ़ाई या जिल्दसाज़ी को देखकर आँखों की हवस भर ही नहीं मिटाते; बल्कि उसे हम पढ़ते हैं, कानों से सुनते हैं, मस्तिष्क से सोचते हैं और हृदय से हृदयंगम करते हैं। इस प्रकार जब किसी ग्रंथ का संबंध हमारे आँख, कान, मन और वाणी में जुड़ जाता है, तब उसकी कला भला हमारे जीवन से पृथक से हो सकती है। थोड़ी देर के लिए यदि हम उसकी कला को नुमाइशी वस्तु के रूप में ही श्लाघ्य समझ लें तो भी उनकी नुमाइश में, उसके प्रदर्शन में, जो एक रस मिलता है, वह क्योंकर? यदि एक शव के सम्मुख—जिसकी संपूर्ण इंद्रियाँ अपने स्थान पर यथावत् साकार है—किसी कलात्मक ग्रंथ को उपस्थित कर दें, तब उसे क्या उस रस की उपलब्धि होगी? नहीं, क्योंकि वह चेतना जो अनुभूतिशील है, वहाँ है कहाँ चेतना के कारण ही तो जीवन, जीवन बना हुआ है और जीवन के कारण ही कला रसमय और सहृदय-संवेद्य बनी हुई है। तब, कला जीवन से विच्छिन्न कैसे हो सकती है? यों निष्प्रभ शरीर से जिस प्रकार चेतना लुप्त हो जाती है उसी प्रकार और निष्प्राण होकर भले ही जीवन से पृथक हो जाए।
(दो)
तो क्या ‘कला कला के लिए’ का कथन निरर्थक है? ऐसा तो नहीं प्रतीत होता। यह कथन तो अपने भीतर एक निगूढ़ पहेली छिपाए हुए हैं। उस पहेली की तह तक न पहुँच सकने के कारण ही कला के संबंध में ग़लत-फ़हमियाँ फैल रही हैं। और वह बेचारी अबलाओं की तरह ही दुष्ट दृष्टियों द्वारा कदर्थित हो रही है।
‘कला कला के लिए’ की आवाज़ उस समय उठनी चाहिए जब समाज की तरह साहित्य भी रूढ़ि-ग्रस्त होकर विकासहीन और प्रभाव-रहित हो जाए। देश काल के अनुसार नियोजित किसी विशेष विधान को ही जब समाज सब कुछ मानकर लकीर का फ़क़ीर हो जाता है, तब उसकी प्रगति ही अवरुद्ध नहीं हो जाती बल्कि उसका अस्तित्व भी ख़तरे में पड़ जाता है। यही हाल साहित्य का भी है। ऐसी स्थिति में जिस प्रकार समाज के रंगमंच पर युग प्रवर्तक महाप्राण पुरुष खड़े होकर नूतन पथ-प्रदर्शन करते हैं, उसी प्रकार साहित्य की रंग-भूमि पर आकर हमारे अमर कलाकार कला को भी नूतन गति-विधि दे जाते हैं। साहित्य के भीतर से जीवन को किस प्रकार जगाना चाहिए, इसके लिए वे मानवी मनोविज्ञान के अनुसार कला के नूतन नियमों और नूतन रूप-रंगों की सृष्टि करते हैं, और उनके द्वारा जीवन की उस चिरंतन चेतना को जाग्रत करते हैं, जो शरीर (बाह्य रूप-रंग) के परिवर्तनशील आवरण में आत्मा की भाँति है।
ऊपर निर्देश कर चुके हैं कि मानवी मनोविज्ञान के अनुसार ही युग-प्रवर्त्तक कलाकार समय-समय पर कला को नूतन रूप-रंग प्रदान करते हैं। समय के प्रवाह के साथ ज्यों-ज्यों मनुष्य की सरलता नष्ट होती जाती है, ज्यों-ज्यों उसमें विषमताएँ बढ़ती जाती हैं, त्यों-त्यों उसका मनोविज्ञान भी जटिल होता जाता है। इस जटिलता के कारण ही कला को मनुष्य के सम्मुख नाना प्रकार से उपस्थित करना पड़ता है। किसी सीधे-सादे युग में मनुष्य से सिर्फ़ यही कह देना पर्याप्त रहा होगा कि सच बोलो और मनुष्य ने सच को अपना लिया। परंतु मनुष्य सत्यवादी होकर अप्रियवादी भी हो गया, तब उससे कहना पड़ा—‘अप्रिय सत्य मत बोलो।’ मनुष्य ने इस पाठ को भी ग्रहण कर लिया। परंतु किसी युग का, शिशु की तरह सुबोध आज्ञाकारी मानव-समुदाय चिरसहज नहीं रह सका, उसमें जीवन की वक्रता भी आ गई। तब साहित्यकारों को उससे वेदांत के सूत्र रूप में ही नहीं, बल्कि विशद कथा-रूप में भी आत्मीयता जोड़ने की आवश्यकता जान पड़ी। परंतु मनुष्य की चेतना कानों में ही नहीं, आँखों में भी समाई हुई है। अतएव मनुष्य सदैव से जो सुनता आया है, उसका आँखों-द्वारा भी समाधान चाहने लगा। उसकी इस इच्छा की पूर्ति नाटकों द्वारा हुई। इस प्रकार वाणी ने समाज के भीतर साहित्य द्वारा क्रमशः विविध प्रवेश किया। आज काव्य, कथा, उपन्यास, नाटक, इत्यादि विविध उपहारों को लेकर साहित्य मानव समाज के साथ अपनापन बढ़ा रहा है। यदि कोर्ड आज यह कहे कि “तुम आप्त सूत्रों में ही बातचीत करो, वाणी का इतना विस्तार करने की आवश्यकता नहीं,” तो जिस प्रकार यह आदेश निरर्थक हो सकता है, उसी प्रकार यह परामर्श भी अनावश्यक होगा कि किसी समय में साहित्य के लिए जो अमुक-अमुक नियम थे, आज भी उन्हीं नियमों पर चलो। अथवा कोई छायावाद की कविताओं के लिए ब्रजभाषा के कवित्त सवैयों या पुराने लक्षण-ग्रंथों का नियम लागू करें और कहे कि इसके बिना कविता हो ही नहीं सकती, जिस प्रकार यह बात हास्यास्पद हो सकती है, उसी प्रकार किसी युग-विशेष के कला-संबंधी नियमों को ही अपनाकर साहित्य की सृष्टि करने का आदेश देना भी निरर्थक हो सकता है। केल के पूर्व-परिचित विधान जिस युग के साहित्य में प्रचलित हुए थे, उस युग के मनोविज्ञान के अनुसार वे यथेष्ट थे, किंतु आज के विधान आज के मनोविज्ञान के अनुसार प्रभावशाली होने चाहिए। इस प्रकार ‘कला कला के लिए’ का समझदार लेखक कह सकता है कि कला स्वावलंबिनी है, किसी युग-विशेष की रूढ़ियों पर आश्रित नहीं। यदि साहित्यिक रूढ़ियों का शासन कला पर जबरन लागू किया जाएगा तो स्वतंत्रता कलाकार को कहना ही पड़ेगा—कला कला के लिए है, रूढ़ियों के लिए नहीं। कला अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखकर ही अपना विकास कर सकती है। उसमें नित्यनतन कुशलता का माद्दा है, इसी लिए वह ‘कला’ है, चाहे वह ललित कला हो (जिससे हमें मानसिक रस मिलता है), चाहे वह उपयोगी कला हो (जिससे हमें व्यावहारिक लाभ होता है)। इस प्रकार कला प्रत्येक रूप में जीवन से संबद्ध हैं।
(तीन)
कला लक्ष्य नहीं, लक्षणा है, साध्य नहीं, साधन है, अभिप्रेत नहीं, अभिव्यक्ति है। लक्ष्य या अभिप्रेत तो जीवन है, जिसे मानव समाज अनेक प्रकार से पाने का प्रयत्न करता है। साहित्य भी उनमें से एक ‘प्रकार’ है। यह प्रकार अपकारपूर्ण भी हो सकता है, अतएव इसे मंगल और मनोरम बनाने के लिए ही कला को साधन बनना पड़ा। साहित्य में कला का अर्थ है—मनोहर। जीवन में जो कुछ सत्य है, शिव है, कला उसे ही ‘सुंदर’ (मनोहर) बनाकर साहित्य द्वारा संसार के सम्मुख उपस्थित करती है। कला साहित्य का बाह्यरूप है, जीवन उसका अंत स्वरूप। कला अभिव्यक्ति है; जीवन अभिव्यक्त। सुंदर शरीर जिस प्रकार अंतश्चेतन का नयनाभिराम प्रकाशन करता है उसी प्रकार कला साहित्य की जीवनमयी अंतरात्मा की मनोरम अभिव्यक्ति करती है। परंतु ‘विष-रस-भरा कनक घट जैसे’ के अनुसार, जिस प्रकार सुंदर शरीर में विषाक्त हृदय का होना संभव है, उसी प्रकार मनोहर कला-द्वारा जीवन का दूषित किया विकृत रस भी उपस्थित हो जाना साहित्य में असंभव नहीं है और प्राय: इसी कोटि के कलाकार अपने बचाव के लिए कह उठते हैं—‘कला, कला के लिए’ अर्थात् कला ने यदि अपने कलित रूप को व्यक्त कर दिया है तो उसका अस्तित्व सार्थक है, उसे उसी के लिए देखना चाहिए। यह विचार ठीक ऐसा ही जान पड़ता है, जैसे यह कहा जाए—‘सुंदरता, सुंदरता के लिए’। नि:संदेह सुंदरता, सुंदरता का आदर्श हो सकती है, किंतु वह सुंदरता, वह कला, शोभाशालिनी ‘विष-कन्या’ की भाँति प्राण-घातक भी हो सकती है। ऐसी कला साहित्य के लिए एक अभिशाप है। अतएव कला की सार्थकता केवल ‘सुंदरता’ में नहीं है, बल्कि उसके मंगलप्राण होने में है।
निदान, हम तो ‘कला कला के लिए’ का संकेत इसी अभिप्राय में ग्रहण कर सकते हैं कि कला रूढ़ि-रहित हो; उसे नाना परिवर्तनों-द्वारा कल्याणमयी चेतना को व्यक्त करने की स्वतंत्रता हो। यह स्वतंत्रता कला के लिए ही नहीं, जीवन के लिए भी वांछित है। किंतु स्वतंत्रता ही रहे, वह स्वेच्छाचारिता न बन जाए। स्वेच्छाचारिता भी उतनी ही अशोभन है, जितनी की परतंत्रता।
(चार)
जब हम स्वतंत्रतापूर्वक जीवन को गतिशील करते है, तब मनुष्यता के धरातल पर ‘जीवन’ एक सरिता के रूप में प्रवाहित होता हुआ दीख पड़ता है। सरिता का जीवन स्वतंत्र है, इसीलिए वह प्रगतिशील है। यदि उसे हम परतंत्र कर दें तो वह ‘जीवन’ एक सरोवर के रूप में संकीर्ण और दूषित हो जाएगा। यदि इस परतंत्रता की प्रतिक्रिया में जीवन स्वेच्छाचारिता के लिए उद्बुद्ध हो जाए तो? ‘चूल्हे से निकले तो कड़ाई में गिरे’ वाली बात हो जाएगी। स्वेच्छाचारिता से जीवन की नदी में ‘बाढ़’ आ सकती है, जिससे अपना जीवन तो पंकिल हो ही जाएगा, साथ ही समाज भी तबाह हो जाएगा यह ठीक है, कि बाढ़ भी ‘जीवन’ का एक रूप है, किंतु क्षणिक रूप। बाढ़ द्वारा यदि नदी समुद्र बन जाना चाहे तो वह जीवन का माधुर्य्य खो देगी—
‘वह जाता बहने का सुख,
लहरो का कलरव, नर्तन।
बढ़ने की अति इच्छा में,
जाता जीवन से जीवन।’
अपने-अपने व्यक्तित्व के अनुसार प्रत्येक की एक मर्यादा है, समुद्र भी अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। जीवन का शाश्वत रूप बढ़ी हुई नदी में नहीं, बल्कि स्वाभाविक गति से बहती हुई सरिता में है। सरिता स्वतंत्र है, वह किसी बंधन से बाँधी नहीं जा सकती। परंतु जो स्वतंत्रता को अपनाता है, वह दूसरो के बलात् बंधन से तो नहीं बँधता, परंतु आत्ममर्यादा के लिए वह स्वयं ही प्रसन्नतापूर्वक एक मुक्त बंधन मनोनीत कर लेता है। सरिता का सीमित जीवन अपने दोनों तटों में निर्बंध है, परंतु उसकी वही सीमित निर्बंधता उसका ‘मुक्त बंधन’ भी है। इसीलिए सरिता की कवि-आत्मा कह सकती हूँ—
‘बंदिनी बनकर हुई में
बंधनों की स्वामिनी-सी।’
जीवन की तरह कला में भी इसी प्रकार मर्यादा का आत्म-स्वीकृत बंधन होना चाहिए, तभी वह स्वतंत्र जीवन की स्वतंत्र कला हो सकती है।
सरिता का आत्ममर्यादाशील जीवन ही हमारा परिपूर्ण आदर्श है—
‘आत्मा है सरिता के भी,
जिससे सरिता है सरिता।
जल-मल है, लहर-हलर रे,
गति-गति, सुति-सृति चिरभरिता।’
उस आत्मामयी सरिता में सजलता भी है, ऋतु-कुंचित पथों की वक्रता भी है—इसलिए उसमें गति है; उसमें निर्मलता भी है लहरों की रसिकता भी। परंतु सब कुछ मर्य्यादित है। कथा-साहित्य में कला-द्वारा जीवन की ऐसी ही लौकिक अभिव्यक्ति चाहिए। जीवन की यह अभिव्यक्ति क्या ‘यथार्थ’ नहीं है?
(पाँच)
साहित्य में यथार्थवाद के नाम पर अँधेरा हुआ है। क्या लज्जा-रहित वास्तविकता को ही यथार्थता कह सकते हैं? तब ऐसी वास्तविकता में कला की क्या ख़ूबी है? कला तो वास्तविकता को सँभालती-सँवारती है, इसीलिए वह कला है। कला का अस्तित्व ही आदर्श का मंगल का सूचक है।
भगवान् ने अपने अनेक अवतारों में से एक अवतार कलाकार का भी लिया था। मानव जीवन के सबसे बड़े कलाकार कृष्ण हैं। वे ‘नटवर’ हैं, ‘मुरलीधर’ हैं, उनके स्वरूप में कला मूर्तिमान् है। उस कलाकार का कौशल तो देखिए। भरी सभा में जब दुर्योधन, कला की पांचाली को विवस्त्र कर देना चाहता है, तब न जाने किस अज्ञात कक्ष से कलाकार कृष्ण, पांचाली के लिए अंचल-पर-अंचल बढ़ाकर अनंतदुकूला वसुंधरा की भाँति उसे शोभान्वित कर देता है।
सुंदरता यदि कला है, परिच्छद है, तो यथार्थ उसका शरीर है और आदर्श उसकी मंगल आत्मा शरीर अपनी स्थूल यथार्थता के कारण प्रशस्त नहीं है, वह महान् है अपनी आत्मा के कारण इस दृष्टि से यदि हम देख सकें तो विशाल शरीरवाले कितने ही नर-पशुओं की अपेक्षा सूक्ष्मकलेवरा चींटी में अधिक मंगल चेतना मिल सकती है।
जब सूक्ष्मतम ज्योतिर्मयी आत्मा शरीर का इतना बड़ा आवरण अपनाए हुए हैं, (उसे भी नग्न रूप में उपस्थित होने में लज्जा मालूम पड़ती है) तब उस शरीर (यथार्थ) की भी मर्यादा का ध्यान रखना ही पड़ेगा। वह राजमहिषी जिस पालकी (शरीर) में प्रवास कर रही है, वह पालकी भी अनावृत कैसे रह जाए। आत्मसम्मान की वस्तु रहे, वह कौतुक या तमाशे की चीज़ न बने; वह अधिकारी द्वारा समझने और मनन की वस्तु हो, इसीलिए वह आवरण-पर-आवरण ग्रहण करती है।
जिस प्रकार शरीर आत्मा का माध्यम है, उसी प्रकार यथार्थ आदर्श का माध्यम। यथार्थ—आदर्श को किस प्रकार समाज के सामने उपस्थित करे, उसे उचित रूप से हृदयंगम करने में ही कलाकार की विशेषता है। घोर-से-घोर कलुषित व्यक्ति भी, जब अपना फ़ोटो खिंचवाने जाता है, तब वह अपने को इस ‘पोज़’ में साकार करना चाहता है कि वह लोक-दृष्टि को सुदर्शन जान पड़े। फिर साहित्य के चित्रों में विकृति की लालसा क्यों? साहित्य में व्यक्ति और समाज के चित्रों को उपस्थित करते समय कलाकार को फ़ोटोग्राफ़र से अधिक कला कुशलता दिखानी पड़ती है। यथार्थ को वह इस ‘तर्ज़’ से उपस्थित करता है कि वास्तविकता तो प्रकट हो ही जाती है, साथ ही जो अलक्ष्य (आदर्श) है, वह भी लक्ष्य में आ जाता है। किसी फ़ोटो में चिपटी नाक को देखकर बिना फ़ोटोग्राफ़र के कहे भी स्वयमेव शुक-नासिका का आदर्श सामने आ जाता है। यथार्थ—मनोवैज्ञानिक निरीक्षकों के लिए एक सांकेतिक आधार है। यथार्थ की अभिव्यक्ति का अच्छा ‘तर्ज़’ कला का आदर्श है, जीवन की अभिव्यक्ति का अच्छा ढंग यथार्थ का आदर्श।
(छ:)
कलाकार सब जगह बोलता नहीं, तो भी, उसके चित्रण की प्रत्यक्ष वास्तविकता से अप्रत्यक्ष वास्तविकता (अभीप्सित आदर्श) का बोध हो जाता है। आधुनिकतम कलाकार स्वयं नहीं बोलता, वह संकेत से ही अधिक काम लेता है। परंतु जो लोग कथासाहित्य को कला की दृष्टि से नहीं, बल्कि धर्म और नीति की दृष्टि से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए पौराणिक कहानियों में उपदेश-मूलक आदर्श भी हैं। समाज का यह धर्म-पीड़ित वर्ग ऐसा है, जो संकेत की भाषा नहीं समझ सकता। वह रूढ़िग्रस्त मूढ़ है। वह सुझाने से नहीं, बल्कि समझाने से ही समझता है। हमारे अमर कथाकार स्व० प्रेमचंद जी ने इस वर्ग के पाठकों की साहित्यिक रुचि को उन्नत करने में बहुत हाथ बँटाया है; केवल नैतिकता के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना के रूप में भी।
(सात)
सर्वश्री रवींद्रनाथ, प्रेमचंद और शरतचंद्र हमारे वे स्वनाम-धन्य कलाकार हैं, जिन्होंने आधुनिक विश्वसाहित्य में भारत का मस्तक ऊँचा किया है। प्रेमचंद और शरतचंद्र आदर्शवादी कलाकार थे। श्री रवींद्रनाथ ठाकुर इनके बजाए एक भिन्न प्रकार के कलाकार थे। उनकी सभी कथा-कृतियों को यथार्थवाद और आदर्शवाद के मापदंड से मापना अवांछित प्रयत्न करना होगा। उनकी कला नि:संदेह कला के लिए भी है। वह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के आदर्शों के लिए ही नहीं, अपितु केवल मानसिक रस-सचरण के लिए भी है। वह रस निर्विष है, इसीलिए ‘विषकन्या’ के रूप-रस की तरह घातक नहीं, स्वास्थ्यदायक है। इस प्रकार की कृतियों में आदर्श तो नहीं ढूँढा जा सकता, किंतु यथार्थ हो सकता है, यद्यपि यथार्थ के लिए ही लिखा जाना इनके लिए आवश्यक नहीं होता। उनका यथार्थ कवि का यथार्थ (भाव) है, जिसमें जीवन के ऊर्ध्ववातावरण का सत्य रहता है।
हाँ तो, प्रेमचंद और शरतचंद्र आदर्शवादी कलाकार थे यद्यपि प्रेमचंद जी अपनी आदर्शवादी के लिए विश्रुत हैं शरतचंद्र अपनी यथार्थवादिता के लिए, परंतु प्रेमचंद अपनी सभी कृतियों में आदर्शवादी नहीं थे, इसके विपरीत शरतचंद्र अपनी सभी कहानियों और उपन्यासों में एक-से आदर्शवादी थे। प्रेमचंद जी की अनेक कहानियों में तो हम ‘कला, कला के लिए’ की ही बात पा सकते हैं। उनकी सर्वांगसुंदर कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ को ही लीजिए, इसमें किस आदर्श का उपदेश है? वह तो केवल एक मानसिक रस प्रदान करती है—जिससे हृदय तृप्त होता है। प्रेमचंद जी मुख्यत: अपने उपन्यासों में ही आदर्शवादी थे। इनके उपन्यासों में केवल सामयिक समाज और राष्ट्र का साहित्यिक इतिहास ही नहीं है, बल्कि जिस प्रकार के पाठकों के लिए उन्होंने अपने आदर्श उपस्थित किए हैं, उनके मानसिक विकास के अनुसार मानवी मनस्तत्त्व भी हैं।
राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त की भाँति प्रेमचंद जी राष्ट्रीय उपन्यासकार थे। राष्ट्रीय प्रश्नों के साथ समाज का जहाँ तक संबंध है, वहीं तक उन्होंने समाज को अपनाया है। ‘गोदान’ इसका अपवाद है, जिसमें सामाजिक प्रश्न को सामाजिक रूप में ही दिखलाया है। प्रेमचंद जी से भिन्न शरतचंद्र सर्वथा सामाजिक उपन्यासकार थे, यद्यपि अपवाद-स्वरूप ‘पथेर दाबी’ में वे भी राष्ट्रीय कलाकार के रूप में प्रकट हुए। अपनी कहानियों और उपन्यासों में शरतचंद्र ने जिन सामाजिक प्रसंगों का निर्देश किया है, राष्ट्रीय प्रश्नों से उनका राजनीतिक लगाव नहीं। राष्ट्र के स्वतंत्र या परतंत्र किसी भी युग में वे प्रसंग ज्यों के त्यों रहेंगे। राष्ट्रीय प्रश्नों का संबंध यदि शासकों की राजनीति से है तो शरतचंद्र के सामाजिक प्रश्नों का संबंध व्यक्तियों की रीति-नीति और अनुभूति से। शरद बाबू उसी रीति-नीति को सुलझाना चाहते है। इसके लिए सहृदयता और सहानूभूतिपूर्ण उनका एक विशेष दृष्टिकोण है। वह दृष्टिकोण उनकी छोटी-सी-छोटी कहानी से लेकर बड़े-से-बड़े उपन्यास में प्रकट हुआ है। प्रेमचंद का आदर्श व्यक्त है, शरतचंद्र का आदर्श अव्यक्त प्रेमचंद का आदर्श पंचनद की तरह उद्घोष करता है तो शरतचंद्र का आदर्श अंतःसलिला की तरह भीतर ही भीतर सूक्ष्म संवेदन को जाग्रत करता है। प्रेमचंद जी के आदर्श में जनमत का व्यक्तित्व है, शरतचंद्र के आदर्श में प्रतिमतित्व।
(आठ)
आदर्श को यदि हम संकुचित अर्थ में ग्रहण करेंगे, अथवा उसे जप-तप, पूजा-पाठ, जाति-धर्म तक ही केंद्रित करेंगे, तो यह हमारी ही भूल होगी। प्रेम, सहानुभूति, करुणा, ममता ये भी आदर्श के प्रतीक हैं; ये किसी जाति, धर्म और देश तक ही सीमित नहीं। आदर्श तो मनुष्यता की तरह विस्तृत आत्मा की तरह व्यापक है। देश-काल के विभेद से आदर्श नव-नव रूप धारण करता है। उस चिरनवागंतुक पथिक के लिए यथार्थ ‘गाइड’ का काम करता है। वह समाज की ऊँची-नीची गलियों से घुमाता हुआ आदर्श को उसके उज्ज्वल सिंहासन तक पहुँचा देता है। यथार्थ के बिना आदर्श गति-रहित है, आदर्श के बिना यथार्थ जीवन-रहित। आदर्श यदि राजपुरुष है तो यथार्थ उसका राजमंत्री। यह राजमंत्री ही राजपुरुष को मानवता के संरक्षण के लिए मंत्रणा देता है। यथार्थ चाहे तो अपने राजा के साथ विश्वासघात कर सकता है। जब वह विश्वासघात करता है तभी जन-रव क्षुब्ध हो उठता है। यों वह अपने स्थान पर सार्थक है।
- पुस्तक : संचारिणी (पृष्ठ 84)
- रचनाकार : शांतिप्रिय द्विवेदी
- प्रकाशन : द इंडियन प्रेस लिमिटेड
- संस्करण : 1939
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