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उलटी दलील

ulti dalil

बालमुकुंद गुप्त

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बालमुकुंद गुप्त

उलटी दलील

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    कौन कहता है कि हिंदी मुर्दा ज़बान है? वह हिंदी ही तो है, जो हिंदुस्तान के हर एक कोने में थोड़ी बहुत समझी जा सकती है। बाक़ी वह 'काफ़' और 'गाफ़' से भरी हुई गले में अटकने वाली मौलवियाना उर्दू तो आपके दस पाँच मौलवी ही बोलते होंगे। 'पैसा अख़बार' कहता है कि हिंदी के बेतक़ल्लुफ़ बोलने वाले बहुत कम हैं। हम कहते हैं कि नहीं हिंदी सभी बोलते हैं। आपकी उर्दू ही बोलने वाले बहुत कम हैं। आप क़सम खाकर कहें कि आपके पंजाबी मुसलमानों में जो लोग शिक्षित हैं और बी.ए., एम.ए. हैं, उनमें से भी सौ में पाँच-सात शुद्ध उर्दू बोल सकते हैं या नहीं? हमसे आपकी दो दफ़े मुलाक़ात हुई है। आपके उर्दू बोलने पर हमको हँसी तो बहुत आई, परंतु आए की बेइज्ज़ती के ख़्याल से उसमें नुक़्ताचीनी नहीं की। आप कैसे कहते हैं कि हिंदी मुर्दा है? हिंदी में इस समय जैसे अख़बार निकलते हैं, हमको तो आशा नहीं है कि वैसी उन्नति आप अपने अख़बार की बीस साल में भी कर सके। बस, आपका एक 'पैसा अख़बार' ही तो उर्दू में सबसे अधिक बिकता है। यहाँ तक उर्दू की करामात है। परंतु हिंदी में कई ऐसे अख़बार हैं जो 'पैसा अख़बार' के बराबर ही नहीं, उससे अधिक बिकते हैं। रही यह बात कि उर्दू तेज़ लिखी जाती है या हिंदी इसकी भी काशी में परीक्षा हो चुकी है। श्रीमान् लाटूश, जो कुछ दिनों के लिए मैकडानल साहब के छुट्टी जाने पर पश्चिमोत्तर के छोटे लाट हो चुके हैं, नागरी प्रचारिणी सभा में इसका तमाशा देख चुके हैं। और मात्रा छूटने की आपने ख़ूब कही। हिंदी लिखने वाले तो मात्रा छोड़ते हैं हिंदी में कुछ का कुछ पढ़ा जाता है। यह तो उर्दू ही है, जिसमें ‘कुल जिस्म तख्ता हो गया’ का ‘कुल चश्म पोख्ता हो गया’ पढ़ा जाता है और नुक़्तों के हेर-फेर से जानी और ‘नामी’ में कुछ भेद नहीं रहता।

    —भारतमित्र, 18 जून, 1900 ई.

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 7)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला
    • संस्करण : 2008

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