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भावी साहित्य और संस्कृति

bhavi sahitya aur sanskriti

इलाचंद्र जोशी

इलाचंद्र जोशी

भावी साहित्य और संस्कृति

इलाचंद्र जोशी

और अधिकइलाचंद्र जोशी

    इधर कुछ वर्षों से देश में एक नई जाग्रति की लहर उठी है, संदेह नहीं। एक नूतन स्फूति, देश के स्नायु-तंतुओं में संचारित हुई है। पर इस उन्मीलन का स्वरूप मुख्यत: राजनीतिक है। यह आवश्यक अवश्य है, पर निगूढ़ शिक्षा और विशुद्ध संस्कृति से उसका तनिक भी संबंध नहीं है। असल बात यह है कि इस समय समस्त संसार का चक्र ही इस गति ओर इस नियम से चल रहा है कि उसके निपीड़न से अनेक युगों की साधना से प्रतिष्ठित संस्कृति और साहित्य प्राणहीन, निस्पंद से हो गए हैं। यदि वर्तमान युग को राजनीतिक युग कहा जाए, तो कोई अत्युक्ति होगी। राजनीति के बिना कोई भी सभ्य समाज किसी भी युग में प्रतिष्ठित नहीं रह सकता, इसमें संदेह नहीं, पर यह युग स्वार्थ से भरी हुई अत्यंत हल्के ढंग की ओछी, पोपली राजनीति के तुच्छ धूम्रोद्गार से समस्त विश्व प्रकृति को आच्छादित कर लेने की झूठी धमकी देता है। इस युग के कोलाहल से ऐसा भास होने लगता है जैसे मानव जीवन का अंतिम और श्रेष्ठतम आदर्श केवल राजनीति की स्वार्थ-पूर्ण खींचा-तानी में ही समाहित है। सामूहिक मानव के सच्चे कल्याण पर जीवन को निरंतर विकास की ओर गति देने वाले मूल आध्यात्मिक तत्वों पर अतींद्रिय रहस्यों पर मानवात्मा की चिरकालिक साधना पर से सभी देशों, सभी जातियों का विश्वास ही एक तरह से हट गया है। यही कारण है कि विगत महायुद्ध के बाद, संसार भर में अभी तक कोई ऐसी महत्वपूर्ण साहित्यिक अथवा दार्शनिक रचना नहीं निकली, जो मानव-मन, मनुष्य जीवन की अंतरतम साधना पर प्रकाश डालती हो।

    ऊपर की भूमिका से मेरा आशय यह है कि हमारे राष्ट्र का भाग्य भी वर्तमान संसार की राजनीतिक जटिलता से संबंधित है, इसलिए वह भी आभ्यंतरिक संस्कृति की संपूर्ण उपेक्षा करके उसी आब-हवा में बह जाने के चिह्न प्रकट कर रहा है। ये लक्षण अच्छे नहीं। यदि राजनीतिक महत्वाकांक्षा के साथ ही साथ समानांतर रेखा में भीतरी संस्कृति का विकास, पूर्ण स्वाधीनता से होने दिया जाएगा, तो सुदूर भविष्य में किसी विशेष महत्वपूर्ण परिणाम में हम नहीं पहुँचेंगे, यह निश्चित है।

    अब प्रश्न यह है कि हमारी भावी संस्कृति और साहित्य का विकास किस रूप में हो? मैं आप लोगों को कोई नया मार्ग, कोई नवीन आदर्श दिखाने का दुस्साहस नहीं कर सकता। हमारे पूर्वजों ने जिस उज्ज्वल प्रतिभापूर्ण जीवन का महत् आदर्श, जिस अमर संस्कृति का श्रेष्ठ निदर्शन हम लोगों के लिए छोड़ दिया है, उसी को फिर से संपूर्ण आत्मा से अपनाने का प्रस्ताव में आप लोगों के मनन के लिए उपस्थित करता हूँ। जिस प्रकार ग्रीक और रोमन युगों में दो अपूर्व सभ्यताओं की परिणति संसार ने देखी है, उसी प्रकार रामायण और महाभारत के युगों में भी भारतवर्ष में दो परिपूर्ण सभ्यताओं ने अपना अप्रतिहत रूप विश्व को दिखाया था। विशेषत: महाभारत युग की बात में कहना चाहता हूँ। इस युग में भारतीय संस्कृति जिस परिपूर्णता को पहुँच गई थी, वह अत्यंत आश्चर्यजनक थी, इसमें वह युग वीरता का उतना नहीं, जितना ज्ञान और प्रतिभा का था। शक्तिपूर्ण और स्वस्थ ज्ञान को उस समय के वीरों ने प्रत्येक रूप में नि:संशय, द्विधारहित होकर अपनाया है। नीति, अनीति और दुर्नीति की किसी झिझक ने उनके आदर्श की खोज में बाधा नहीं पहुँचाई। यही कारण है कि शक्ति और ज्ञान को उन्होंने चरमावस्था में पहुँचाया और प्रतिभा में जन्म लेकर प्रतिभा में ही वे विलीन हो गए।

    महाभारत के वीर बाह्य जगत् में जीवन-भर राजनीति के चक्र में ही घूमते रहे, पर अंतर्जगत् के प्रति एक पल के लिए भी उन्होंने उपेक्षा नहीं दिखाई। मैं इसी आदर्श के प्रति आप लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। राजनीतिक अबस्थाएँ युग-युग में और आजकल तो वर्ष-वर्ष बल्कि मास-मास में बदलती रहती है, पर मानव-मन की संस्कृति का विकास-क्रम चिरंतन है।

    महाभारत-युग की संस्कृति में क्या विशेषता थी? उसका अनुसरण किस रूप में हमें करना होगा? इसका उत्तर पाने के लिए हमें अत्यंत निष्पक्ष भाव से प्रेरित होकर कठिन परिश्रमपूर्वक महाभारत का अध्ययन और मनन करना होगा। जिस प्रकार कोई इतिहासज्ञ ऐतिहासिक सत्व की खोज के लिए किसी विशेष संस्कार द्वारा अंध होकर निर्विकार हृदय से अध्ययन करता है, जिस प्रकार कोई कीट-तत्त्ववेत्ता बिना किसी प्रत्यक्ष लाभ की दृष्टि से, केवल विशुद्ध सत्य के ज्ञान की लालसा से प्रेरित होकर कीट-जगत के भीतर प्रवेश करता है, उसी प्रकार समस्त धार्मिक तथा नैतिक कुसंस्कारों को त्याग कर हमें अमिश्रित, निष्कलंक सत्य के अन्वेषण की कामना के उद्देश्य से महाभारत के गहन वन में प्रवेश करना होगा।

    इस दृष्टि से विचार करने पर आप देखेंगे कि वह युग कितना स्वाधीन, कैसा निर्द्वंद्व और स्वच्छंद था। उस युग के लोग विचार-स्वातंत्र्य को सर्वोपरि महत्व देते थे। इस युग के ‘रेजियेन्टेशन’ को कोई कल्पना उस युग के लोग स्वप्न में भी नहीं कर सकते थे। ‘फ़्री वर्ल्ड’—मुक्त संसार—का वास्तविक आदर्श उसी युग में देखने को मिल सकता था, जब कि आज वह केवल एक नारा बनकर रह गया है। महाभारत युग में किसी भी व्यक्ति को इस बात की खुली छूट थी कि वह किसी भी धार्मिक अथवा सामाजिक विषय पर मुक्त हृदय से अपना सुस्पष्ट मत व्यक्त कर सकता था और सबको सभी विषयों में समान स्वतंत्रता प्राप्त थी। आप क्या वेद-निंदक है? आइए, आप इस कारण महाभारत के वीरों के समाज से कदापि बहिष्कृत नहीं हो सकते, यदि आप में कोई वास्तविक शक्ति वर्तमान है। आप क्या जारपुत्र हैं? कोई परवा की बात नहीं, आपकी आत्मा में यदि पराक्रम का एक भी बीज है, तो यहाँ सहर्ष ये लोग आपका स्वागत करेंगे। आप क्या जुआरी हैं? घबराइए मत, आपके हृदय में कोई सच्ची लगन है, तो ये लोग कदापि आपको केवल इसी एक कारण से दूषित नहीं समझेंगे। पाँच पतियों के होते हुए भी इन्होंने द्रौपदी को सीता के समकक्ष स्थान दिया है, ये ऐसे आत्म-विश्वासी, शक्तिशाली महात्मागण हैं। बाह्याचार की दृष्टि से अनेक अक्षम्य दोषों के होते हुए भी इन्होंने समस्त संसार के मुख से यह स्वीकार कराया है कि पंच पांडव देवता-तुल्य प्रतिभाशाली पुरुष थे।

    मैं महाभारत से आप लोगों को क्या शिक्षा लेने के लिए कहता हूँ? सत्य बोलो, प्राणियों पर दया करो, क्रोध का त्याग करो, व्यभिचार से अलग रहो, जीव-हित में लगे रहो, ये सब अत्यंत साधारण, रात-दिन सामाजिक जीवन में लागू होते रहने वाले उपदेश आपको एक अत्यंत तुच्छ स्कूल पाठ्यपुस्तक में मिल सकते हैं। युग-विवर्तनकारी महाभारत-कार से आपको इन क्षुद्रातिक्षुद्र नीति-वाक्यों से लाख गुना अधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्वों की प्रत्याशा करनी चाहिए। महाभारत इन उपदेशों को अत्यंत उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। उक्त महाकाव्य में सर्वत्र समाज के बाह्याचार के नियमों की ध्वंसलीला ही दृष्टिगोचर होगी। सब देशों ने, सर्वकाल ने, धर्म और नीति के जो तत्व प्रतिपादित किए हैं, महाभारत के मनीषियों ने उनके प्रति वृद्धांगुष्ठ प्रदर्शित करके प्रबल फूत्कार से उन्हें उड़ा दिया है। संसार भर का साहित्य और इतिहास छान डालिए। आपको कहीं भी ऐसा दृष्टांत नहीं मिलेगा, जिसमें किसी अत्यंत उन्नत चरित्र तथा आदर्श-स्वरूप प्रमाणित की गई और मानी गई स्त्री के पाँच पति हों। यह तथ्य यदि सत्य था, यदि वास्तव में ऐतिहासिक दृष्टि से द्रौपदी के पाँच पति थे, तो भी कोई डरपोक लेखक अपने काव्य में इस बात को गर्व के साथ प्रकट करता, बल्कि छिपाता। यदि यह बात सत्य नहीं, एक रूपक-मात्र है, तो इससे कवि का साहस और भी अधिक दुर्जय होकर प्रकट होता है—वह एक ऐसी काल्पनिक बात को अपना आदर्श बना गया है जो साधारण नैतिक दृष्टि में अत्यंत निंदनीय है। पर वह तो लोकोत्तर पुरुषों का (देवताओं का नहीं) अगम्य चरित्र चित्रित करना चाहता था और साथ यह भी चाहता था कि साधारण जन-समाज भी लोकोत्तर महापुरुषों की बुद्धि के निकट तक पहुँच जाए। महाभारत से पता चलता है कि पराशर घोर व्यभिचारी थे, उनके पुत्र वेदव्यास परस्त्री-गामी थे और घृतराष्ट्र तथा पांडु अपने बाप के लड़के नहीं थे। वेदव्यास के वरेण्य पिता अंध कामुक थे। पांडव—हाँ, महाभारत के मुख्य नायक पांडव भी—अपने पिता के पुत्र नहीं थे, यद्यपि इस तथ्य को कवि ने रूपक के छल से किसी अंश तक छिपाने की चेष्टा की है। और पांडवों की श्रद्धेय माता कुंती कौमार्यावस्था में ही एक पुत्र प्रसव कर चुकी थीं। (कर्ण की उत्पत्ति सूर्य के समान तेजस्वी किसी लोकोत्तर पुरुष से हुई थी, यह निश्चित है। कवि ने उसे स्वयं सूर्य बतलाकर इस घटना पर गंभीरता का पर्दा डाला है, ताकि कर्ण जैसे वीर का जन्मोत्सव कोई हँसी में उड़ाए।)

    मैं आप लोगों से पूछना चाहता हूँ कि इन सब बातों को आप तर्क के किस ब्रह्मास्त्र से उड़ा देना चाहते हैं? मैं प्रार्थना करूँगा कि इन्हें यथारूप स्वीकार कीजिए। इनसे यही पता चलता है कि या तो वह युग घोर बर्बर-युग था या ज्ञान की उन्नततम सीढ़ी पर चढ़ चुका था। धन्य है उस कवि के साहस को, जिसने कोई बात छिपाई, क्योंकि वह विश्वात्मा के अंतरतम केंद्र में पहुँच चुका था, और जिसने केंद्र पकड़ लिया हो, उसे वृत्त की बाहिरी परिधि से क्या सरोकार! बल्कि परिधि के बाहर जाने में ही उसे आनंद प्राप्त होता है। महाभारत के महात्माओं का लक्ष्य प्रकृति के बाह्यरूप को भेदकर उसके अंतस्तल पर केंद्रित था, इसलिए वे केवल कर्तव्यवश होकर बाह्य नियमों का पालन करते थे। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि वह प्रतिभा का युग था। बुद्धि जब पराकाष्ठा को पहुँच जाती है, तब वह सृष्टि की भी अपूर्व लीला दिखाती है और संहार की भी। सृजन में उसे जो आनंद प्राप्त होता है, विनाश में भी वह उसी का अनुभव करती है। महाभारत के प्रकांड युद्धकांड ने कर्म और ज्ञान के जिस सूक्ष्म सामंजस्यात्मक तत्त्व का सृजन किया, वह अब तक अज्ञात रूप में हमारे रक्तकणों में संचारित हो रहा है। और संहार तथा विनाश का जो रूप उसने दिखाया, उसे आज तक यह देश नहीं भूल पाया।

    अपने ही रक्त से संबंधित लोगों की हत्या का उपदेश कृष्ण के अतिरिक्त और किस धर्मोपदेशक ने दिया है? नीति, दया, हिंसा तथा अहिंसा की दृष्टि से इसकी सफ़ाई देना मूर्खता का द्योतक होगा। मैं कह चुका हूँ कि वह विश्वात्मा के अत्यंत गूढ़तम प्रदेश में दृष्टि डालने वाली प्रतिभा का भी ध्वंसोपदेश है। वेदों की निंदा आप इस बीसवीं शताब्दी में भी करने का दम नहीं भर सकते; पर गीताकार को देखिए, वह कैसे छूमंतर से उन्हें तुच्छ कर देता है। किसी सहृदय किंतु जटिल मानसिक-स्थिति-संपन्न जुआरी का चरित्र-चित्रण करने का साहस इस अनीति के युग में भी आपको नहीं होगा, क्योंकि धर्मात्मा आलोचक अथवा नीतिनिष्ठ संपादकगण आपको संत्रस्त करेंगे, पर महाभारतकार का आत्मबल देखिए। वह एक ऐसे जुआरी को धर्मराज की पदवी देता है, जो अपनी स्त्री तक को हार गया। बात यह है कि उसका निष्कलुष हृदय बाह्य दोषों को देखकर अपने चरित-नायक की भीतरी प्रतिभा को परखता है। लोकोत्तर पुरुष का काल्पनिक आदर्श भी महाभारत के प्रत्यक्ष सत्य चरित्रों के अगम्य रहस्य के आगे निस्तेज पड़ जाता है। पाश्चात्य जगत अभी तक कृष्ण के युग को असभ्य युग समझता है और हम लोग केवल अंध-भक्ति से उस युग को श्रेष्ठ मानते है—उसकी विशेषताओं की परख द्वारा नहीं, दोनों भ्रामरी माया के फेर में है। इतिहासकारों के कथनानुसार भारत युद्ध को 4000 वर्ष व्यतीत हो चुके। क्या उसका मर्म समझने के लिए चार हज़ार वर्ष और बीतेंगे? आश्चर्य नहीं।

    ज्ञान और शक्ति किसी भी रूप में हों उन्हें ग्रहण करो, यही उपदेश इस समय हम कृष्ण-युग से ले सकते हैं। तभी वास्तविक संस्कृति के पास हम पहुँच सकेंगे। पाश्चात्य जगत् आज बुद्धि और शक्ति में हमसे कई गुना अधिक श्रेष्ठ इसलिए है कि उसने अंजान में इस मूल रहस्य को पकड़ा है। साधारण सामाजिक दृष्टि से प्रकट में निंद्यवृत्ति में भी वहाँ के मनीषियों को यदि यथार्थ शक्ति का आभास मिला है, तो उन्होंने उसी दम उसे अपनाया है, पर हम लोग अपनी दुर्बल धर्म-नीति का पचड़ा लेकर पग-पग में झिझक, बात-बात में द्विविधा और असमंजस के फेर में पड़े हैं। साहित्य को ही लीजिए। हम लोग चाहते हैं कि उसमें भी हमें धार्मिक या राजनीतिक उपदेश मिलें। पर ग्रीक ट्रेजेडियों में और शेक्सपीयर के श्रेष्ठ नाटकों में व्यभिचार, घृणा, क्रोध और प्रति-हिंसा की ज्वाला के अतिरिक्त हम क्या पाते हैं? तब क्यों संसार ने ऐसी रचनाओं को सिर-माथे चढ़ाया है? असल बात यह है कि उक्त वृत्तियों के मूल में—मनुष्य की सामूहिक अवचेतना में—एक ऐसी शक्ति छिपी है, जिसे साधारण मनुष्य देख नहीं पाता, पर कवि या दार्शनिक उस सुप्त शक्ति को जागरित करके पाठकों की आत्मा में एक अपूर्व बल संचारित कर देता है।

    प्रसिद्ध ग्रीक नाटककार सोफाक्लीज की सर्वश्रेष्ठ रचना ‘ईडियुस’ में एक ऐसे दिल दहलाने वाले व्यभिचार का विकट वर्णन है कि उसका स्पष्ट उल्लेख करने से अनेक पाठक मुझे फांसी देने का प्रस्ताव करेंगे। स्वयं मेरी लेखनी का साहस नहीं होता, पर इस निंदनीय व्यभिचार के नायक के उच्छलित भावावेग का क्रंदन ऐसी ख़ूबी से नाटककार ने दिखाया है कि उसके प्रति समवेदना स्वत: उमड़ उठती है। इस व्यभिचार से जिस कन्या की उत्पत्ति हुई है, उसके चरित्र के माहात्म्य से सारा यूरोपीय साहित्य आप्लुत है। शेक्सपीयर की ट्रेजेडियों में पाप के मंथन से जिस प्रबल आध्यात्मिक शक्ति का प्रवेग प्रवाहित हुआ उससे सभी पाश्चात्य काव्यमर्मज्ञ परिचित हैं। इन नाटकों में केवल हत्या, प्रतिहिंसा और घृणा का विस्फूर्जन और गर्जन हुंकृत हुआ है। फिर भी इनमें अगाध रस का अनंत स्रोत कहाँ से उमड़ा? कारण वही है जो मैं ऊपर बता चुका हूँ। निखिल प्राण की रहस्यमयी शक्ति उनमें छिपी है। पाप भी यदि शक्तिपूर्ण है, तो वह श्रेष्ठ है, और पुण्य भी यदि दुर्बल है तो वह तुच्छ है। प्रसिद्ध रूसी कवि पुश्किन ने कहा है: “अधम सत्य से वह असत्य कई गुना अधिक श्रेष्ठ है जो हमारी आत्मा को उन्नत, जाग्रत करता है।”

    साधारण मनुष्य तुच्छ पाप और तुच्छ पुण्य को तौलकर अपना जीवन-यापन करता है, इसलिए उसके लिए पाप से बचकर चलना बहुत आवश्यक है। ऐसे संसारी पुरुष को कभी कोई पाप में फँसने का उपदेश नहीं दे सकता, पर प्रचंड प्रतिभाशाली पुरुष सांसारिक भले-बुरे से संबंधित होकर भी उससे बिल्कुल परे है, इसलिए वह तथाकथित वृहद पाप को ही अपने उन्नत आदर्श का संबल स्वरूप बनाकर महा प्रस्थान की ओर दौड़ता है। सांसारिक पुरुष प्रतिदिन के व्यावहारिक जगत् के सुख-दुख को लेकर ही व्यस्त रहता है, पर प्रतिभाशाली व्यक्ति इन बंधनों को नहीं मानना चाहता और इनसे बहुत गहरे में सामूहिक मानव की मूलगत अनुभूतियों का मर्म समझने में मग्न रहता है। राष्ट्र की वास्तविक संस्कृति इन इने-गिने लब्ध-प्रतिभ मनीषियों के द्वारा ही प्रतिष्ठित होती है, इसलिए उन्हीं के लिए मेरा यह लेख है। विशेष करके उन नवीन-हृदय, तरुण महात्माओं के प्रति में निवेदन कर रहा हूँ, जिनको अंतर्निहित प्रतिभा भविष्य में राष्ट्र को आलोकित करेगी।

    प्रतिभा अत्यंत रहस्यमयी है। वह जब ‘दुर्बलता’ भी प्रकट करना चाहती है, तो वह वज्र से भी अधिक सबल, समुद्र के गर्जन से भी अधिक प्रलयंकर होकर व्यक्त होती है। शेक्सपीयर के नाटक, रूसो की स्वीकारोक्तियाँ, डास्टाएव्यकी के उपन्यास इसके दृष्टांत स्वरूप है। गेटे का ‘फ़ौस्ट’ भी अपनी दुर्बलता के कारण अमर शक्तिशाली प्रतीत होता है। इस ‘दुर्बलता’ का वर्णन फ़ाउस्ट ने अपनी दो आत्माओं से संबंधित प्रसिद्ध ‘स्वगत-भाषण’ में अत्यंत सुंदरतापूर्वक किया है। लेख के बढ़ जाने के भय से इसका अनुवाद में यहाँ पर नहीं दे सकता। अपनी ‘दुर्बलता’ का सहारा लेकर बायरन ने ‘चाइल्ड हेरल्ड’ जैसे वीर-काव्य की रचना की थी।

    बायरन का उल्लेख करते हुए मुझे स्वामी रामतीर्थ की एक बात याद आई है। उन्होंने कहा है कि बाह्य दुर्बलताओं से कभी मनुष्य की वास्तविक प्रकृति पर विचार नहीं करना चाहिए। इसके दृष्टांत-स्वरूप उन्होंने बायरन को लिया है। सभी साहित्य-रसिकों को मालूम होगा कि इंग्लैंड में बायरन के ऊपर एक अत्यंत बीभत्स लांछन लगाया गया था, जिसका निराकरण अब भी नहीं हुआ है, और जो पाश्चात्य नीतिनिष्ठों के हृदय में अब भी विभीषिका उत्पन्न करता है। इस संबंध में एक भारतीय महात्मा का कहना है कि हमें बायरन को इस बाह्यनीति की दृष्टि से नहीं देखना होगा, उसकी प्रतिभा इसके परे थी! ‘डान जुआन’ के लेखक के प्रति यह उदार भाव एक वास्तविक वेदांती के ही योग्य है।

    इन सब बातों से मेरा तात्पर्य केवल इतना ही है कि राष्ट्र के प्राणों में यदि उच्चतम संस्कृति के बीज बोना चाहें तो हमें पाप-पुण्य, अंधकार-आलोक सभी तत्त्वों को अपनाना होगा। सब प्रकार के भावों को ग्रहण करके उनमें से ज्ञान, प्राण और शक्ति को शोषना होगा। ‘कल्चर’ शब्द कृषि और कर्षण का पर्यायी है। सभी जानते हैं कि अच्छी कृषि के लिए सारवान खाद की आवश्यकता होती है। और खाद ऐसी चीज़ है, जो अधिकांशत: कोई निर्मल परिष्कृत वस्तु नहीं होती। इसलिए मैं कहता हूँ केवल निर्बल नीति को जकड़े रहने की चेष्टा अनुर्वरता की परिचायक है। हमारी संस्कृति सृष्टि-रूपिणी होनी चाहिए, बंध्या नहीं। यदि ‘गंदगी’ में ही हमें ज्ञान, प्राण और शक्ति का बोध होता है, तो नि:संशय होकर उसकी जड़ खोदनी होगी। अपनी पुनीत नीति को बाह्य स्पर्श से अछूता रखने के लिए अत्यंत सावधान होकर मिट्टी के स्पर्श से बच-बचकर चलने की चेष्टा अत्यंत हास्यापद और जड़ मोहात्मक है। हमारी वर्तमान जड़ता का कारण ही यही है। हमें निद्वंद्व, द्विविधा-हीन, नि:संशय होकर ज्ञान के समस्त उद्गमों को खोदना होगा। “संशयात्मा विनश्यति”।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देखा-परखा (पृष्ठ 96)
    • रचनाकार : इलाचंद्र जोशी
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संज
    • संस्करण : 1957
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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