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बनारस का बुढ़वामंगल

banaras ka buDh wamangal

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

अन्य

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बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

बनारस का बुढ़वामंगल

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

और अधिकबदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

    ...काशी के पूर्व छोर से लेकर पश्चिम पर्यंत के प्रत्येक घाटों पर जो अनुमान ढाई-तीन कोस के विस्तार में होंगे, काशिराज और नगर प्रतिष्ठित महाजनों से लेकर, मदनपुर के जुलाहों तथा श्मशान के डोमड़ों तक की नौकाएँ निज शक्ति और श्रद्धा के अनुसार सुसज्जित देख पड़ने लगीं। संख्या भी उनकी और वर्षों की अपेक्षा अधिक है। कोई पटैले पर बाँसों के ठाट ठाटे हैं, तो कोई घटहा पाटे हैं, कोई बजड़े पर झाड़-फानूस की सजावट कर नाच-वाच देखता, तो कोई मोरपंखी सजाए अपना अखाड़ा ला खड़ा किए हैं, किसी ने कोई छोटा-मोटा कटर भाड़े कर रंगीन चोब वा तूल लपेटकर गोटे को लहरिया देकर झालरदार चाँदनी तान, चार ठो हाँड़ी नांद जलाकर उजाला किए अपनी सूरत और झलामल कपड़ों की सजावट ही दिखाता घूमता, तो कोई एक पनसुही पर सबार नाचवाली नौकाओं की ताक में डोलता फिरता, मानो मेले में भिक्षा सी माँग रहा है। विशेषतः काशी के बड़े नाम और घराने वाले महाजन और रईस प्राय: इसी श्रेणी में रहा करते हैं, क्योंकि गाँठ से रुपया खर्चा जाता नहीं और फिर शौक़ इतना कि बिना मेला देखे भी नहीं रहा जाता। कोई साल भर तक इसी लालसा से थानेदारों से साहब सलामत किए, मुफ़्त में पुलिस की किस्ती पर चढ़े मेले का प्राण सा निकालते घूमते हैं। कोई दो-चार लैंप जलाए दस-पाँच कुर्सी बिछाए काली पतलून और जाकिट जमाए गड्डामियरी सूरत बनाए, मुँह में चुरुट सुलगाए, धुँआ कस की समा लाए, गिटपिट-गिटपिट अँग्रेज़ी बोलते, साहिब लोगों का स्वांग सजाए, अपना ही तमाशा ओरों को दिखला रहे हैं। कोई एक लालटेन बीच में रखे बिसात बिछाए, शतरंज के मुहरों के कटने के रंज में डूबे रात काटे डालते, तो कोई ताश के पन्ने प्रारब्ध के पत्र से उलट रहे हैं। कोई गनीमत का मौका हाथ आया देख अचानक अपने यार वफ़ादार को पाकर किसी अकेली किश्ती के कोने में एक एक्के की ज्योति में उस दिलवर के नूरानी मसहफ़े रुख़सार को कुरान शरीफ़ के समान ध्यान लगाए मानो पढ़ रहा है, और उसके हर ख़तों ख़ाल पर गुलिस्तां और वोस्तां को वार फेरकर फेंकता, शेष संसार को निस्सार जान मेले से माँगता, भगवान की विलक्षण रचना चातुरी के पहचानने में असमर्थ हो तन्मय दशा को प्राप्त हो रहा है, जिसकी आँखों में यह मेला केवल एक निर्जन वन से सादृश्य रखता है। कहीं मिलकर लोढ़ियाँ बजती घोर किसी डोंगी पर बूटी छनती, कहीं गाँजे की दम लगती और तान उड़ती है। कहीं होली ने जलते भट्टे पर छनाछन पूरियाँ निकालते 'गरमागरम कचौड़ी मसालेदार' चिल्लाते धुआँ-धक्कड़ मचाते, हलवाई लोग अपनी दूकान की नौकाएँ बढ़ाते चले जाते और भूखे परदेशी मेला देखने वाले शिकारी कुत्ते के समान अपनी नोका दौड़ाए लपक रहे हैं। कहीं बनारसी गुंडे और अक्खड़ों की बोली ठोलियाँ उड़ती—या सिंघा? —'अचूका तो राजा'—'और कैसन दवल जात होव:'—'कहाँ तोहरे नावै के तो कट्टर भिड़ोले चलल आवत हुई।' 'रंग है झज्झर इतो भारी भर्राटे के आवाज़ छैड़ल्यः।’ कहीं कोई चिल्लाता है कि 'तनिक रोकले रह: होः। नाव बढ़ जायद्य:'—'अरे काहे झूरे नाव नाव चिचियायेल्य: बच्चू अबहिए जहाँ चार डांड कसलीं कि पल्ले पार के दिहल।'

    'देखत होअ: कि नाहीं बे रंगे बोली बोलत डोंगी सटोले चलल आवत बाड़ै, सूझत नई नाही जनते कि हमन बड़े-बड़े गुण्डन के चेहरा बिगाड़ दिहले हुई।' किसी नाव पर रंडिया विविध भाव बतला-बतलाकर गा रही हैं—

    चलो सखी रे, मलिया की बगियाँ हो रामा।

    फुलवा में वीनी हो भरल्यू चगेरिया हो रामा०।

    आय गयलो रे मलिया रखवरवा हो रामा।

    बस, इसका भाव जिसने देखा, वही जाने।

    इत्यादि-इत्यादि बनारस की अनोखी लयदारी के संग इस चैती गान की तान इस प्रेसमय भी राग रसिकों के कान में क्या काम करती है, यह केवल अनुभव का विषय है। कहीं कथक थिरकते तो कहीं कलावंत, भाँड रागिनी गाकर माड़वारियों को भी मस्त किए देते, कहीं भाँडों की तालियाँ बजती तो कहीं कव्वालों की नक़ल होती, कहीं गँवार लोग तन भड़-भड़ लगाए, तो कहीं जोगीड़े होली मचाए भड़तल्ले की ताल पर ललकार रहे हैं।

    बस, इसी हेर-फेर और सोच-विचार में प्रभात बात बहने लगा, पूर्व दिशा अपने प्रिय प्रभाकर को पाकर मंद-मंद मुस्कुराना आरंभ करने लगी। लज्जावश ज्यों-ज्यों तारावलियों ने अपना मूँ छिपाना आरंभ किया कि इधर फ़र्राश लोग नौकाओं के झाड़-फानूस को बत्तियाँ भी बुझा चले। जिस तम को ये असंख्य ज्योतियाँ दूर कर सकी थीं, भगवान भास्कर की दो-चार किरनों ने आकर नाश कर दिया। अब कुछ और ही शोभा हो चली, रात बीत गई, दिन दिखलाई देने लगा, उजेले में दूर-दूर की भी हर ओर नौकाएँ पहचान पड़ने लगीं। घाट छोड़ नौकाओं के झूमड़ धारा में पड़ चले, सब राग-रागिनियों का गाना बंद हुआ! अब केवल भैरवी ही राग का सनाका सुर सारे सुरसरिघार पर सुनाई दे रहा है।...अपने लोग भी उठे और अपनी नौका हटा, घाट की ओर प्रस्थान किया।

    आहा आहा हा! उत्तरा विमुख होते ही मानो उत्तराखंड ही में पहुँच गए। जहाँ तक दृष्टि दौड़ती है, एक अद्भुत पवित्र दृश्य दृष्टिगोचर हो रहा है, मानो आज काशी कैलास का विलास कर रही है। श्री मंदाकिनी के सुचिक्करण शिलासोपान विनिर्मित विशाल घाटों के ऊपर प्रस्तरमय असंख्य सप्तभूमि हर्म्य, प्रासाद और मंदिर पर्वत श्रेणी के समान अनुमान होते, जिनकी सुधा धवलित अट्टालिकाएँ और संगमरमर के बँगले हिमाचल के हिमाच्छादित शृंग की सी शोभा धारण किए हैं। शिवालयों के उच्चतम भाग में नभस्पर्शी स्वर्णादि धातु विनिर्मित कलश और कंगूरों के वृंद त्रिशूल धारण किए, मानो हाथ उठाए कह रहे हैं कि त्रिताप शमनकारी, त्रिजन्म पापहारी, स्थल त्रिलोक में केवल एक यही त्रिलोचन त्रिपुरारी पुरी ही है, और सुनहरी पताकाएँ फहराती साहंकार मानो आर्य धर्म के अटल राज्य के प्रकर्ष प्रताप को सूचित कर रही हैं। अनेक सुविशाल देवालयों में प्रातःकालीन अर्चन और पूजन में बजते शंख भेरी घंटा घड़ियाल का कल तुमुल दशों दिशा में व्याप्त हो मानो हमारे सनातन धर्म की विश्व विजय बधाई सी सुनाई देती है। कहीं तानपूरा, मृदंग और झांझ बजते, कीर्तन और भजन होता, जिनके द्वारों पर भैरवी-भैरवी की नौवत झड़ती, मानो इस नित्य मंगलमय स्थल को बतला भूलों को चैतन्य करती हैं, कहीं ब्राह्मणों के लड़के वेदाध्ययन करते, उद्घोषण कर रहे हैं कि सरस्वती देवी का आश्रय स्थान अब केवल यही है। गंगातट पर ब्राह्मण लोग संध्या वंदन तर्पण देवार्चनादि ब्रह्मकर्म करते, मानो इस कराल कलिकाल में भी धर्म को धैर्य-सा दे रहे हैं, और सामान्य द्विजाति अपने आर्य वेश सत्कर्म रस लखाते मानो इस तीर्थ में अद्यापि धर्म के निवास का प्रमाण सा दे रहे हैं। सामान्य जन हरहर महादेव शंकर पुकारते, मानो जिसका राज, उसकी दुहाई वाली कहावत को चरितार्थ करते।

    भगवान भूतभावन भुजंगभूषण का स्मरण करते, शिवालयों में जा, जल चढ़ाते, गाल बजाते अपने जन्म-जन्मांतर के पाप-पुंज को दूर बहाते जाते हैं। कहीं स्नान कर काषाय कोपीन धारी एक हाथ में गंगाजल पूरित कमंडल लिए, दूसरे में अपना दंड ऊँचा किए, दंडी स्वामी लोग प्रशांत भाव से अपने आश्रम को जाते, मानो 'एकमेवा द्वितीयम् ब्रह्म' की शिक्षा सी देते जाते। कहीं सुर सरिता के निर्मल और सुशीतल सलिल में कुलवधू सुकुमारी सुमुखियाँ स्नान करती, देवताओं के मन को भी हरतीं, यह निश्चय कराती कि मानो चतुर चतुरानन ने काशी को गलियों में मुक्ति को यों ठोकर खाते देख, उसकी रक्षा के लिए इस अवरोधक कुलाहल की सृष्टि की है। जिनके सहज सलज्ज रहन-सहन को देख रात भर के देखे वैश्याओं के सब हाव-भाव रसाभास से अनुमान होता और मन मान लेता कि ठीक है, इसीलिए साहित्याचार्यों यथार्थ प्रतिष्ठा स्वकीया ही नायिका को दी गई है। वे अपने बहुमूल्य वस्त्रालंकार और दान-दक्षिणा देती स्थिर भाव से रहती हैं। एवं निज नित्य नैमित्तिक कर्म से अवकाश पाकर झुंड के झुंड ब्राह्मणों तथा संन्यासियों का क्षेत्रों में भोजनार्थ जाना, मानो भगवती अन्नपूर्णा के साक्षात् विद्यमान होने को प्रमाणित कर रहा है। आहा, धन्य यह काशी है कि जहाँ कुबेर के समान कितने ही धनवान और शेष के सदृश कितने ही विद्वान्, असंख्य भक्त महात्मा और तपस्वी अब भी निवास करते हैं। धन्य हैं, जो यहाँ सदैव निवास करते और नित्य इस आनंद को देखते। किसी ने सच कहा है :

    'चना चवैना गंगजल, जो पुरवै करतार।

    काशी कबहुँ छोडिए विश्वनाथ दरबार।'

    अब अपनी नौका ईप्सित घाट पर आई, हम लोग नाव से उतर गाड़ी पर चढ़े उस बिछड़े मित्र के मिलने का पश्चात्ताप करते अपने बनारसी मित्र के साथ जा उन्हीं के घर फिर धमके।

    पाँच बचे संध्या को सुस्वादु गुलाबी बूटी के रंग से फिर गुलाबी आँखें कर यार लोग श्री गंगाजी के घाट पर डटे। कल मंगल था, आज दंगल का दिन है, अर्थात् दिन के मध्यान्होपरांत से पुनः मेले का आरंभ होकर अर्धरात्रोपरांत समाप्त होता, और इसकी संध्या की शोभा मानो मेले भर का सारांश है, इसी से आज गंगाजी की धारा के अतिरिक्त घाट पर भी आनंद की हाट लगी है, अर्थात् जल और स्थल दोनों स्थान पर मेला जम रहा है, वरंच जो लहर आज स्थल पर है, जल पर नहीं, क्योंकि वे लोग भी, जो कि नाव पटैया के मेले में नहीं भी सम्मिलित होना चाहते, घाट पर से एक दृष्टि उसकी शोभा देखने को डटते, यों ही अनेक नौकारोहण-भीरु और लड़के वाले लोग तथा जिनका कहीं सुवीते से नाव का सेढ़ा नहीं लगा वा टकां निकालने में असमर्थ और उस लोग भी आकर घाटियों के तख़्ते, मढ़ी और घाट के बुर्जों को दखल कर बैठते, जिनमें प्रायः सभी प्रकार के लोग अपनी शक्ति और मर्यादा के अनुसार सुंदर वस्त्रालंकार से सुसज्जित होते हैं। बहुतेरे बनारसी नवयुवक छैले, जिनके सुंदर मुखारविंद पर कलित कामदार टोपियों से लसित घूंघरवाली काली कुंतलावलि मानो मलिंद माला सी मनोहर मालूम होती, सर्दई, संदली, शर्बती, काफ़ूरी, मोतियई, खसखसी, कपासी, गुलावासी, गुलाबा और प्याजी बनारसी दुपट्टों, जिनसे गुलाब और खस के इत्र की सुगंध फैल रही है, गले में डाले मानो बहार में खिले नाना रंग के फूलों को बहार दिखलाते तटस्थ तंबोलियों की दुकानों पर ऐंठे बैठे आँख लड़ा रहे हैं। कहीं सर्व कहीं सर्व कदों की कतार, तो कहीं चश्मि नर्गिस का दीदार, कहीं गुल रुख़ों की भरमार, तो कहीं बुलबुल से बेक़रार आशिकज़ार भाँति-भाँति की बोलियाँ बोल रहे हैं। वाह! क्या बहार है! माना इस बहार के मौसिम का यह मेला भी गुलज़ार पर बहार है। अनेक रसीले मेले का सर्वाश रस चूराते इधर से उधर डोलते फिरते, तो कितने ही किसी एक ही के मुखारविंद पर टकटकी लगाए मानो कंठगत प्राण से हो रहे हैं! इतनी भीड़ केवल तट के तल भाग ही पर है, वरंच घाट के ऊपर के पंचतल्ले ओर सततल्ले मंदिर और महलों की अट्टालिकाओं पर भी वैसा ही नर-नारियों का समूह सुशोभित हो रहा है। विशेषतः ऊपरी भाग तो केवल सुंदरियों ही के सौंदर्य से भरा-पुरा है। अहा हा! यह भाग वौसा अद्भुत शोभा का समुद्र उमड़ रहा है! अरे, यह तो मानो ब्रह्मा की विचित्र रचना चातुरी के प्रदर्शन का मेला है, वा महाराज मनोज के मन बहलाने के लिए अपूर्व मीना बाज़ार लगाई गई है :

    'नज़र आती हैं हर सूरतें ही सूरतें मुझको।

    कोई आईनाख़ाना कारख़ाना कारख़ाना है ख़ुदाई का॥'

    यह बुढ़वामंगल का मेला क्या वस्तुत: बुढ़वा बाबा महादेव का मंगल विवाह का मेला ही है, और यह दंगल (भारी भीड़) कदाचित् बारात वा सोहगी निकलने का समय है, जिसे देखने के लिए ये देवदारा और गंधर्व कन्याएँ अपनी ऊँची अट्टालिकाओं पर चढ़ी हैं! श्री गंगाजी की सब नौकाएँ मानो नाना बाराती देवताओं के विमान हैं, जो अभी आकाश से उतर रहे हैं, क्योंकि आगे बढ़ी यह मोर पंखा देव सेनानी भगवान् मयूर वाहन के समान इस अनुमान के यथार्थ होने का प्रमाण सी दे रही है। इस वर्ष सूर्यग्रहण के समीप होने से प्रयाग के कुंभ से लौटे साधु-संतों का उस पार भी अधिकता से बसने से एक नवीन जनस्थान सा बस गया है, जो मानो बुढ़वा बाबा की बारात का जनवास है, कि जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के साधुओं की मंडलियाँ मानो भिन्न-भिन्न बाराती देवताओं की बराती सेना है,—यदि दंडी लोग काषाय वस्त्रधारी चोबदार कंचुक वा द्वारपाल हैं, तो परमहंस लोग पार्षद और प्रधान तथा नंगे भुजंगे विभूतिधारी नागें उस दिगंबर के खास हुज़ूरी पलटन के सैनिक समूह के समान अनुमान होते। अयोध्या के वैष्णव लोगों के अखाड़े मानो विष्णु की सेना है, और कमंडलुधारी अनेक ब्रह्मचारी और ब्राह्मण ब्रह्मा की, उनके दर्शकधनी गृहस्थ कुबेर और उनकी रक्षा के अर्थ पुलीस के कांस्टेबिल और चौकीदार यम की और अनेक अन्य-अन्य को। श्री गंगाजी में भी नौकाएँ आज अधिक हैं; क्योंकि बहुतेरी नावें आज ही पटी हैं; क्यों नहीं, आज तो दंगल (किश्तियों की कुश्ती का मेला) है, वाह! यह महाराज काशिराज का कच्छा है कि जिससे सात कच्छे एक ही में मिलाकर पटे हैं, और बड़ा भारी देश और शाहमियाना खड़ा है, और भी सब उचित राजसी ठाट-ठटा है, झुंड की झुंड रंडियाँ बैठी हैं। यह यहीं की वनी केले के खंभे के समान मोटी मोमबत्तियाँ हैं, जो बैठकियों पर लगी हैं, पर नृत्य गान कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि महाराज तो घुड़दौड़ (एक उत्तम नौका जिसके अग्रभाग पर दो कृत्रिम घोड़े लगे हैं) पर सवार हो आज मेला देख रहे हैं, और उसी पर गान हो रहा है। इधर-उधर के कई सुसज्जित बजड़े और मोरपंखियों पर महाराज के अन्य प्रधान पुरुष लोग भी साथ-साथ मेला देख रहे हैं। वाह! क्या विचित्र शोभा है। चुने पार्षद वर्ग और परिकरयुक्त आर्य राज वेषधारी नवीन महाराज आज कैसे शोभायमान हो रहे हैं, मानो बुढ़वामंगल अपना बुढ़वा स्वामी छोड़, नवीन को पाकर नवीन मंगल हो गया है। यह जिस मोरपंखी पर नाच हो रहा है। उस पर महाराज के ठाकुरजी विराजमान मेला देख रहे हैं। धन्य! क्या हिंदू राजा की पवित्र श्रद्धा का प्रमाण है। धन्य काशिराज! धन्य!

    अब तो संध्या हो गई, चारों ओर दीपावलियाँ प्रज्ज्वलित हो गई। अपने लोग भी दशाश्वमेध घाट से घाट ही घाट घूमते आकर पंचगंगा घाट पर पहुँचे, पैर भी थक रहे, पर यह मन तनिक भी तृप्त हुआ! कहता है कि स्थल का मेला तो ख़ूब देखा, अब जल के मेला देखने की वेला आई, अतः वहीं चलो; क्योंकि यहाँ तो अब बेवल बँधे तार वाले लोगों ही का काम है। ‘लिए फिरता है मुझको जा वजा दिल। मेरा बेहोश मेरा चुलबुला दिल।' अस्तु, फिर डोंगी पर चढ़ आगे बढ़े। वाह! यह गंगाजी में आधी दूर तक पुल कैसा बँध गया! नहीं! यह वही श्री मन्महाराज गोस्वामी श्री बालकृष्ण लालजी कांकरोली अधीश्वर का कच्छा है! ओहो! यह कितने कच्छे एक में पटे हैं? कदाचित बीस होंगे। क्योंकि दोनों ओर इसके दो नृत्यशाला बनी हैं, जिनमें एक तो श्वेत, ठीक श्री काशिराज के तुल्य और दूसरी गुलाबी रंग की एक नवीन ही छटा छहरा रही है, और दोनों के बीच में कुछ नज़रबाग़ और खुले चबूतरे की बनावट है। धन्य-धन्य यह अलौलिक रचना और समारंभ! हाँ, यह लोकोक्ति तो प्रसिद्ध ही है कि वल्लभ कुल के गोस्वामी महानुभावों के घर में सदा अचल रूप से लक्ष्मीजी ने निज निवास का वर दिया है। यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं जबकि लक्ष्मीनाथ की रसीली लीला ही का वह स्थान है, फिर भला ऐसे लक्ष्मी कृपापात्र और जिनकी आँखों में उन्हीं की ललित लीला का ध्यान है, उनके इस लीला रचना की लीला लिखने में कैसे सकती है। यह कितनी मोमबत्तियाँ जला दी गई कि इतना अधिक प्रकाश हो गया! वाह, इन लाल महताबों का उँजाला तो मानो समस्त उजाले को रँगकर लाल कर दिया, और होली का दृश्य आगे गया है। यह विद्युत प्रभा कैसी! और यह ठीक ही विद्युत प्रभा कैसी (बिजली की रोशनी) है, जो कि कई सौ रुपये रोज़ पर कलकत्ते से मँगाई गई है। भई वाह! यह तो सबी को दवा बैठी। अहा! घाटों की अँटारियों पर तो इसने जाकर वह कार्य किया है, कि जो दिन में भी दुर्लभ था! यह प्रभा तो चंद्रमुखियों के मुख पर पड़ कुछ और ही लीला दिखलाती है। इसकी चमक की चौंधी से उनके चंचल चक्षु-चंचरीक, जो करपुंडरीक की ओट में जा छिपते, तो मानो चंद्रग्रहण सा लग जाता है। कितनी उस चमक के पड़ते ही चमककर स्वयं चंचला सी चल देती और दर्शकों के चित्त पर चंचला की चोट सो चला देती। यों ही कितनियों को इस दामिनी की चमक-दमक में अपने दामिनी की दुति को भी दबाने वाली बदन की दीप्ति के दिखाने को और भी सुबीता होता। सच तो यह है कि इस समय यह बिजली की रोशनी दूरबीन का कार्य दे रही हैं अथवा जैसे किसी सुबृहत् दृश्य के छायाचित्र की विचित्रता देखने को सूक्ष्मदर्शक दर्पण, कि बीच धारा में बैठे उस लालटेन के तनिक घुमाने से सहज ही सबकी शोभा लखाई पड़ती है।

    अच्छा, चलो उसी गुलाबी कच्छे पर चलें, और वहाँ की भी छवि देखें, परंतु वहाँ तो इतनी नौकाएँ चारों ओर घेरे हैं कि पहुँचना भी कठिन है! यह किसकी किश्ती है? इसके बीच में क्या कुँवर सच्चितप्रसादजी हैं? हाँ, इधर ही तो देखते भी हैं। 'आइए आइए, बस चले आइए! कल भी आप लोग नहीं आए, कहाँ रहे?' चलो, भाई कुँवर साहिब ही की आज्ञा का प्रथम पालन हो; यह कहते जो हम लोग उनकी नौका पर जा पहुँचे, तो देखते हैं कि कई वेश्याएँ वहाँ पर नृत्य कर रही थी और उनके रूप-यौवन पर बनारसी लोग लट्टू हुए, उनकी आरसी सी स्वच्छ सूरत के आरसी में अपने बर्बादी और मिट्टी में मिलने की सूरत देख रहे हैं। वाह! यह भाँड़ लोग जो गा रहे हैं, बड़े चतुर हैं। उनके ढोटे की नाच और भाव का तो कहना ही क्या है, ख़ुदा आबाद रखे लखनऊ फिर भी गनीमत है।' अहा! अब इस ऊँचे बजड़े पर से जो कि कांकरौली वाले महाराज के गुलाबी कच्छे से सटा बँधा है, निकट से कच्छे की शोभा कुछ अपूर्व ही दीख पड़ने लगी है। उफ़! बहुत ही बड़ी नृत्यशाला बनी है! यह गुलाबी पट मंडप जिसकी ‘झालर, खंभे और जंगले आदि सब गुलाबी ही रंग के हैं, अधिकाई से उत्तमोत्तम और बहुमूल्य इतने झाड़-फानूस तथा शीशा आलात और राजसी ठाट से सुसज्जित हैं, मानो सुरेंद्र राजभवन की तुल्यता प्राप्त किया चाहता है, अथवा सहस्रों प्रज्ज्वलित दीप शिखाओं के प्रकाश से जगमगाता मानो असंख्य तारागणों से देदीप्यमान शरदाकाश की शोभा धारण कर रहा है, जिसमें मंगल, बुद्ध, बृहस्पति और शुक्र की भाँति रंग-बिरंगी महताबों का ताब और सच्चे महताब के तुल्य बिजली की रोशनी है।

    जिसकी तीव्र ज्योति झाड़ और फानूसों में लगी शीशों की डाल ओर कलमों पड़कर सतरंगे असंख्य इंद्रधनुष बनाती और दर्पणों में अपना प्रतिबिंब ला वर्षा ऋतु की चंचलता की चकाचौंध लाती है, किंतु नीचे दृष्टि दीजिए, मानो वसंत का अखाड़ा वहीं उतरा अनुमान होता। केवल कच्छे की सजावट ही गुलाबी रंग की दिखलावट, और अनेक सोने-चाँदी के फूल चंगेरों में गुलाब के फूल अधिकता से भरे हैं, वरंच उस पर बैठे सभासद स्वामी, सभ्य और सेवक सब लोग गुलाबी ही रंग की सब पोशाक पहने हैं, जिससे यही अनुमान होता है कि मानो इस चैत मास में प्रातःकाल ही गाजीपुर के उन गुलाब के खेतों में जा पहुँचे हैं कि जहाँ कोसों तक केवल गुलाब के फूलों के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखलाई पड़ता। भाई, इस भाँति गुलाबी रंग से रंगो महासभा किसी ने काहे को कभी देखी होगी। सच है, यह यहीं का प्रसाद है, जो कि अब के अन्य नौकाओं पर भी अधिकांश लोग गुलाबी ही रंग के कपड़े पहने देख पड़ रहे हैं, कदाचित् इस वर्ष हज़ारों थान गुलाबी रंग के रेशमी कपड़े केवल इसी मेले के कारण बिक गए होंगे तथा सहस्रों दर्जी और रंगरेज़ों का भी भला हो गया होगा। इन चाँदी की चोटी पर तने सुनहरे कामदार नमगिरे के नीचे गुलाबी कमखाब ही का बिछौना बिछ रहा है, जिसके आगे सुंदर सोने के अनेक मजलिसी साज, पानदान, इत्रदान आदि सुसज्जित हैं, और उसके नीचे हौज़ में नृत्य होता है।

    क्या नगर का कोई ऐसा प्रतिष्ठित और मान्य पुरुष होगा कि जो इस समय यहाँ उपस्थित हो? नहीं, कदापि नहीं। हाँ, जब अनेक दूर के नगर निवासी आज आकर बनारसी हो रहे हैं, तो भला बनारसी क्यों उपस्थित हों। वास्तव में कैसे-कैसे धनी और मानी लोगों की इस समय यहाँ भीड़ भरी है। बड़े-बड़े बहुमूल्य वस्त्राभूषणधारी पुरुष इधर से उधर ठोकर खा रहे हैं और अनेक लखपतियों को तो कहीं बैठने का भी ठिकाना नहीं लगता है। सचमुच ऐसे समारोह की सभा तो कदाचित् बड़े-बड़े महाराजाओं के यहाँ भी देखने में आती होगी।

    इस कामदार नगरी के नीचे कामदार गद्दी मसनदों पर गुलाबी वागा पहने सातों स्वरूप श्री गोस्वामी महाराज लोगों के हैं। अहा हा! धन्य! क्या शोभा है! बीच में बड़े-बड़े अमूल्य हीरों का सरपेच लगाए और अधिकता से केवल श्वेत हीरे ही के अनेक आभूषणों से भूषित कांकरौलीपति गोस्वामी श्री बाल-कृष्ण लाल जी महाराज विराज रहे हैं। उनके पास वाले उनके ज्येष्ठ भ्राता हमारे लाल बाबा साहिब काशी के श्री गोपाल मंदिर के टिकैत गोस्वामी श्री जीवनलालजी महाराज, और शेष ब्रज, बंबई और कोटे के महाराज लोग सुशोभित हो रहे हैं, और दोनों पाशर्व में गुलाबी कमखाब के फ़र्श पर भट (अर्थात् उनके संबंधी लोग) न्यूनाधिक वैसे ही वस्त्राभूषणधारी विराजमान हैं। इन महानुभावों के मुखारविंद की शोभा ही कुछ दूसरी है, और एक अद्भुत श्री की छवि आई है। अहा! इन महाराजों के दर्शन से यद्यपि हमारे प्राचीन आर्य वेष का परिचय सा मिलता है। देखिए तो इन जवाहिरात से जगमगाते वेष के आगे आजकल की टुच्ची चाल पर कैसी घृणा होती है, मानो यह इंद्र आदि आठों दिक्पाल हैं, जो यहाँ विराजे हैं, या सप्तर्षियों की गोष्ठी है एवं उस बुढ़वामंगल की बारात की कदाचित् यही कच्छा नृत्यशाला भी है। यह दूसरा कच्छा बग़ीचे को लिए कहाँ चला गया? हाँ, आज उसी पर अंग्रेज़ों का निमंत्रण भी तो है। यह क्या पार में अग्निक्रीड़ा (आतिशबाजी) भी आरंभ हो गई! हाँ! मंगल के अवसर पर यह सामग्री भी तो आवश्यक ही है। वाह! यह धमाका, यह चर्खियाँ, यह पटेबाज़, यह टट्टी, फुलझड़ी! अहा, ये बान कैसे ऊपर जा रहे हैं! वाह, ये गंज सितारे तो टूट-टूटकर आकाश के सब सितारों यो मंद कर अपनी ही रंग-बिरंगी प्रभा फैला चले, मानो इस बुढ़वामंगल के अवसर पर सुर समूह सुमन वर्षा कर हर्ष प्रगट कर रहे हैं। यह बिजली की लालटेन क्यों इधर घुमाई गई। हाँ, दूसरे कच्छे की ओर वाह! यह तो श्वेत कच्छा देखते ही देखते अँग्रेज़ और मेमों से भर गया! अहा, इतनी दूर से भी इस विद्युत प्रभा के द्वारा समस्त दर्शनीय वस्तु यथार्थ दृष्टिगोचर होती है। साहिब, मैजिस्ट्रेट और कमिश्नर आदि सभी प्रतिष्ठित राजकर्मचारी लोग डटे हैं। यह भी एक अपूर्व दृश्य है! जाने दो भाई! अब इधर अधिक देखना ठीक नहीं। समय बहुत टेढ़ा है। अच्छा, अब आगे की भीड़ हट गई है, और महाराज लोग भी इधर ही देख रहे हैं! बस उचित अवसर जान, जैसे ही खड़े होकर प्रणाम किया, कि इशारे से आज्ञा हुई कि यहाँ आओ। प्रणाम करके बैठने पर कुशल प्रश्नादि सन्मान जो मुझ समान सामान्य जन के लिए अवश्य ही अपार कृपा का विस्तार था, पाकर परमानंदित मन ने मान लिया कि जो सुनते थे कि—

    'शुनीदा के वुअद मानिन्दे दीदा।'

    (अर्थात् सुना देने के तुल्य कब होता है) सो आज आँखों देखा।

    उन दोनों बंगालिनों की बारी आई, कि जिन्हें हम लोगों ने मुग़लसराय के स्टेशन पर देखा था। वाह! इस समय तो इनका कुछ और ही बनक बन रहा है। बंगीय वस्त्रालंकार और सिंगार कुछ विचित्र ही बहार दिखा रहे हैं। इन्हें निहार चुटीले चित्त वाले प्रेमियों का अपने को वार फेरकर इन पर बलिहार जाना क्या आश्चर्य है? अब इन लीलावतियों की लीला कैसे लिखने में आए, कि जो केवल देखने ही का विषय है। वाह, इनका नाटकीय बंगला गान यद्यपि बंग भाषा से अज्ञान अनेक जनों को नहीं समझ पड़ता होगा, किंतु हाव-भाव, कटाक्ष की काट से उन्हें कौन बचाएगा? देखिए तो केवल साड़ी पहने ये इस समय नाच रही हैं, परंतु दर्शकों की आँखों से पूछिए कि वे अपनी नाच भूल कर एकटक लगाए, मानो धन्य-धन्य कहना चाहती हैं। इन मधुर अधरों से निस्मृत स्वर स्वाभाविक ही सुधास्त्रावसा श्रवणानंददाई है, फिर बंग-भाषा के माधुर्य सरस स्वाद को सौ गुना बढ़ा रही है। 'यमुना पुलीने वोशी कांदे राधा विनोदिनी।’ बलिहार! बलिहार! कहता मन जो उस रस में फँसा तो बस, फिर कुछ काल तक इसका कुछ परिज्ञान ही रहा कि यहाँ क्या हो रहा है!

    रात भी अब थोड़ी ही है, दो दिन की उनीदी आँखें अब अपना कहना भी नहीं करती, अतः खिसकना ही ठीक है। प्रातःकाल होई चुका था, डेरे पर पहुँचते-पहुँचते दिन भी कुछ चढ़ आया। नित्य कृत्य से निवृत हो जो सोए, तो संध्या को ओरों से जगाए गए। अस्तु, फिर उसी पाठ पढ़ने को चलते-चलते आठ ओर राजपाट पहुँचते नौ बजे, क्योंकि आज यहीं से आरंभ करने का विचार स्थिर हो चुका था। यहाँ से जो नौका पर चढ़कर चले, तो आज मेले की कुछ दूसरी ही शोभा लखाई पड़ने लगी, मानो मेले की दशा भी आज उस तरुणी की युवावस्था की सी है, जिसमें मनोहरता और निकाई अपनी अंतिम अवस्था पर पहुँचना चाहती है। राजघाट की ओर से सब नौकाएँ असीघाट की ओर चली जा रही हैं। ऐसा अनुमान होता कि मानो आज श्री गंगाजी अपनी धारा उलटकर पश्चिम की ओर बहा रही हैं, और प्रवाह के कारण स्वयं सब नौकाएँ उधर ही बही जा रही हैं। अथवा गंगाजी आज आकाश-गंगा हो, देवों का आकाश मार्ग (डहर) बन गई हैं, जिस पर से बुढ़वाभंगल में पाए देवताओं के विमान बरात के संग विदा होकर मानो अब दूल्हे के घर कैलाश को जा रहे हैं। अहा, ये असंख्य नौकाएँ इस शीघ्र गति से आपस में बचती-बचाती ऐसी उड़ी चली जाती हैं, कि जैसे लोटाभंटा के मेले में असंख्य पतंग उड़ाने वालों को लागडाँट से अमल आकाश में ढील की डोर पर छूटी अनेक प्रकार को रंग-बिरंगी पतंगें आपस में पेंच खाती और बचती-बचाती वेग से बढ़ी चली जाती हैं। यों ही इन नौकाओं पर प्रज्ज्वलित नाना रंग-रंजित दर्पण, वर्ण के मध्य से मोमबत्तियों और रंगबिरंगी महताबों के प्रकाश की आभा जल में पड़कर मानो एक्की-एक्की दून लगाती ऐसा अनुमान कराती, कि कदाचित् श्री गंगाजी ने अनेक रंग के असंख्य कमल खिलाए हैं! वा भगवती भागीरथी ने अपने प्रिय पति रत्नाकर के समस्त अमूल्य रत्नों का हार बनाकर निज प्रिय सखी काशी के गले में पहनाना चाहती हैं। वाह! अनेक घाटों पर भी आज रोशनी हुई है, यह तो इस समय मानो सड़क को लालटेन वा मील के पत्थरों का कार्य दे रही है, क्योंकि इस समय इनके रहने से तो तट, और घाटों की संज्ञा का ज्ञान हो सकता है। यह क्या मणिकरिणका महातीर्थ है? वाह, यहाँ की रोशनी तो मानो बतला रही है कि सच्ची रोशनी बस यही है, और सब रोशनियाँ झूठी हैं! अनेक चिताएँ जल रही हैं और अनेक शव स्थान-संकोच के कारण कफ़न लपेटे पड़े हैं तथा सैकड़ों जन रोते-बिलखते लखाई पड़ रहे, मानो इस मसल की सच्चाई साबित कर रहे हैं कि—'दुनियाँ भी है क्या बलंदी सराय। कहीं ख़ूब ख़ूबी, कहीं हाय-हाय।' क्यों नहीं, मुणडमालधारी भगवान् भूतनाथ रुद्र की राजधानी काशी है, कि जिसका नाम ही महाश्मशान है।

    कदाचित् यही उनके कार्यालय का स्थल भी है, क्योंकि 'चिता भस्मा लेपी गरल असनम्' को श्मशान का निवास ही प्रिय है। सच है, सच्चे उदासीन और विशुद्ध विरक्त के रहने के योग्य इनके सिवा और कोई स्थान भी तो समीचीन नहीं है। जिसके तनिक देखने ही से विचित्र ज्ञानोदय होता और पाप का भय, तथा धर्म की चिंता होती है, इसी से श्मशान भी एक मुख्य ज्ञान का स्थान माना गया है।

    धन्य काशी कि जहाँ उच्चातिउच्च तथा नीच, म्लेच्छ आदि को भी वह दृश्य देख ज्ञानलाभ करने का अवसर मिलता, पाप करते भी धर्मशिक्षा मिलती है। देखिए, आज इसी ओर कई सौ नौकाएँ, और सहस्त्रों मनुष्य गए हैं? पर क्या किसी को कुछ भी ज्ञान लाभ हुआ होगा? उन्हें कैसे ज्ञान लाभ हो, जो इधर देखते ही नहीं?

    धन्य है हिंदू धर्म तथा उनके विश्वास सन्मान को कि मध्य नगर में यह प्राचीन पवित्र तीर्थ आज भी ज्यों का त्यों अपना प्रताप दिखाता वर्तमान है। नहीं तो इस अँग्रेज़ी सफ़ाई की सनक समय में इसका यों यहाँ अपने पूर्व कार्य को करते रहना कितना असंभव है, विशेषतः जब कि प्रतिवर्ष या लाट और राजप्रतिनिधियों के दृष्टिगोचर होता ही रहता है? यह क्या बारह बज गए, कि जो मंदिरों में आधी रात को नौबत बज रही है। धन्य, यह भी हम आर्यों की प्राचीन चाल है, मानो यह अब जागृतों को शयन में अतिकाल होने की सूचना दे रही है। अच्छा भाई, तनिक और शीघ्रता से रोओ। यद्यपि असीघाट अभी दूर है, पर नौकाओं का झुंड इधर घना हो चला। जान पड़ती है कि आज भी कुछ नई नौकाएँ पटी हैं।

    मारुत के शीतल झकोरों के साथ हमारी नौका शीघ्रतापूर्वक अब सुसज्जित नौकाओं के बीच से होती हुई अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गई।

    यद्यपि कि उस काल का मनोरम चित्र यही कहता था कि टुक और रुको, देखो, पर कार्य अपनी आतूरता के घोड़े पर सवार, शोघ्रता से ही इस अनोरो मेले से प्रस्थान करने के लिए प्रेरित कर रहा था। अस्तु, मैं शीघ्रता से यहाँ से चलकर अपने साथियों से छुट्टी ले, मेले को प्रतिभा और सफलता का चित्र हृदयंगम किए हुए अपने आश्रितगणों से शीघ्र चलने के लिए शीघ्रता कराते हुए, जल्दी क़दम बढ़ाते हुए, मेले के अनुपम वातावरण को छोड़, आगे बढ़ता हुआ चल पड़ा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी निबंध की विभिन्न शैलियाँ (पृष्ठ 49)
    • संपादक : मोहन अवस्थी
    • रचनाकार : बद्रीनारायण चौधरी
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रेस
    • संस्करण : 1969

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