अर्धनारीश्वर

ardhanarishwar

रामधारी सिंह दिनकर

रामधारी सिंह दिनकर

अर्धनारीश्वर

रामधारी सिंह दिनकर

और अधिकरामधारी सिंह दिनकर

     

    अर्धनारीश्वर शंकर और पार्वती का कल्पित रूप है, जिसका आधा अंग पुरुष का और आधा अंग नारी का होता है। एक ही मूर्ति की दो आँखें, एक रसमयी और दूसरी विकराल; एक ही मूर्ति की दो भुजाएँ, एक त्रिशूल उठाए और दूसरी की पहुँची पर चूड़ियाँ और उँगलियाँ अलक्तक से लाल; एवं एक ही मूर्ति के दो पाँव, एक ज़रीदार साड़ी से आवृत और दूसरा बाघंबर से ढँका हुआ।

    एक हाथ में डमरू, एक में वीणा परम उदार।
    एक नयन में गरल, एक में संजीवन की धार॥
    जटाजूट में लहर पुण्य की, शीतलता-सुख-कारी।
    बालचंद्र दीपित त्रिपुंड पर, बलिहारी, बलिहारी॥

    स्पष्ट ही, यह कल्पना शिव और शक्ति के बीच पूर्ण समन्वय दिखाने को निकाली गई होगी, किंतु इसकी सारी व्याप्तियाँ वहीं तक नहीं रुकतीं। अर्धनारीश्वर की कल्पना में कुछ इस बात का भी संकेत है कि नर-नारी पूर्ण रूप से समान हैं एवं उनमें से एक के गुण दूसरे के दोष नहीं हो सकते। अर्थात नरों में नारियों के गुण आएँ तो इससे उनकी मर्यादाहीन नहीं होती, बल्कि उनकी पूर्णता में वृद्धि होती ही होती है।

    किंतु पुरुष और स्त्री में अर्धनारीश्वर का यह रूप आज कहीं भी देखने में नहीं आता। संसार में सर्वत्र पुरुष पुरुष है और स्त्री स्त्री। नारी समझती है कि पुरुष के गुण सीखने से उसके नारीत्व में बट्टा लगेगा। इसी प्रकार पुरुष भी स्त्रियोचित गुणों को अपनाकर समाज में स्त्रैण कहलाने से घबराता है। स्त्री और पुरुष के गुणों के बीच एक प्रकार का विभाजन हो गया है तथा विभाजन की रेखा को लाँघने में नर और नारी, दोनों को भय लगता है।

    किंतु, ऐसा लगता है कि गुणों का बँटवारा करते समय पुरुष ने नारी से उसकी राय नहीं पूछी, अपने मन से उसने जहाँ चाहा, नारी को बिठा दिया। स्वयं तो वह वृक्ष बन बैठा और नारी को उसने लता बना दिया। स्वयं तो वह वृंत बन गया और नारी को उसने कली मान लिया। तब से धूप पुरुष और चाँदनी नारी रही है; ग्रीष्म नर और वर्षा मादा रही है; विचार पति और भावना पत्नी रही है । जहाँ भी कर्म का कोई क्षेत्र है, अधिकार की कोई भूमि है और सत्ता का कोई सीधा उत्स है, उस पर कब्जा नारी का नहीं, नर का माना जाता है। नर है विधाता का मुख्य तंतुवाय जो वस्त्र बुनकर तैयार करता है, नारी का काम उस वस्त्र पर छींटे डालना है। नर है कुदाल चलाने वाला बलशाली किसान जो मिट्टी तोड़कर अन्न उपजाता है, नारी का काम दोनों को अछोरना-पछोरना है। नर है नदियों का वेगमय प्रवाह, नारी उसमें लहर बन कर उठती-गिरती रहती है। सिंहासन तो वस्तुतः राजा के लिए होता है; रानी उसके वामांग की शोभा मात्र है। सत्य है राजा की ग्रीवा और विशाल वक्षोदेश, रानी उन पर मंदार हार बनकर झूलने के लिए है। राजा काया और रानी छाया के प्रतीक हैं। सत्य का साकार रूप तो राजा ही होता है, रानी है कल्पना की रंगीन जाली और सपनों की मीठी मुस्कान जो जीवन में उतरी तो वाह-वाह और नहीं उतरी तो वाह-वाह। कहावत चल पड़ी है :

    पुरुष  ऐनेछे  दिवसेर ज्वाला  तप्त रौद्र  दाह।
    कामिनी ऐनेछे यामिनी-शांति समीरण, वारिवाह॥

    दिवस की ज्वाला और तप्त धूप, ये पुरुष की लाई हुई चीजें हैं। कामिनी तो अपने साथ यामिनी शांति लाती है।

    किंतु कवि की यह कल्पना झूठी है। यदि आदि मानव और आदि मानवी आज मौजूद होते तो ऐसी कल्पना से सबसे अधिक आश्चर्य उन्हें ही होता। और वे, कदाचित् कहते भी कि 'आपस में धूप और चाँदनी का बँटवारा हमने नहीं किया था। हम तो साथ-साथ जन्मे थे तथा धूप और चाँदनी में, वर्षा और आतप में साथ ही घूमते भी थे; बल्कि आहार-संचय को भी हम साथ ही निकलते थे और अगर कोई जानवर हम पर टूट पड़ता तो हम एक साथ उसका सामना भी करते थे।' उन दिनों नर बलिष्ठ और नारी इतनी दुर्बल नहीं थी, न आहार के लिए ही एक को दूसरे पर अवलंबित रहना पड़ता था। नारी की पराधीनता तब आरंभ हुई जब मानव जाति ने कृषि का आविष्कार किया जिसके चलते नारी घर में और पुरुष बाहर रहने लगा। यहाँ से ज़िंदगी दो टुकड़ों में बँट गई। घर का जीवन सीमित और बाहर का जीवन निस्सीम होता गया एवं छोटी ज़िंदगी बड़ी ज़िंदगी के अधिकाधिक अधीन होती चली गई। नारी की पराधीनता का यह संक्षिप्त इतिहास हैं।

    नर और मादा पशुओं में भी थे और पक्षियों में भी। किंतु पशुओं और पक्षियों ने अपनी मादाओं पर आर्थिक परवशता नहीं लादी। लेकिन, मनुष्य की मादा पर यह पराधीनता आप से आप लद गई। और इस पराधीनता ने नर-नारी से वह सहज दृष्टि भी छीन ली जिससे नर पक्षी अपनी मादा को या मादा अपने नर को देखती है। कृषि का विकास सभ्यता का पहला सोपान था, किंतु इस पहली ही सीढ़ी पर सभ्यता ने मनुष्य से भारी कीमत वसूल कर ली। आज प्रत्येक पुरुष अपनी पत्नी को फूलों सा आनंदमय भार समझता है और प्रत्येक पत्नी अपने पति को बहुत कुछ उसी दृष्टि से देखती है जिस दृष्टि से लता अपने वृक्ष को देखती होगी।

    इस पराधीनता के कारण नारी अपने अस्तित्व की अधिकारिणी नहीं रही। उसके सुख और दुख, प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा, यहाँ तक कि जीवन और मरण पुरुष की मर्जी पर टिकने लगे। उसका सारा मूल्य इस बात पर जा ठहरा कि पुरुषों को उसकी कोई आवश्यकता है या नहीं। इसी से नारी की पद-मर्यादा प्रवृत्तिमार्ग के प्रचार से उठती और निवृत्तिमार्ग के प्रचार से गिरती रही है। जो प्रवृत्तिमार्गी हुए, उन्होंने नारी को गले से लगाया, क्योंकि जीवन से वे आनंद चाहते थे और नारी आनंद की खान थी। किंतु जो निवृत्तिमार्गी निकले उन्होंने जीवन के साथ नारी को भी अलग ढकेल दिया, क्योंकि नारी उनके किसी काम की चीज नहीं थी। प्राचीन विश्व में जब वैयक्तिक मुक्ति की खोज मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी साधना मानी जाने लगी, तब झुंड के झुंड विवाहित लोग संन्यास लेने लगे और उनकी अभागिनी पत्नियों के सिर पर जीवित वैधव्य का पहाड़ टूटने लगा। जरा उन आँसुओं की कल्पना कीजिए जो उन अभागिनियों की आँखों से बहते होंगे, जिनके पति परमार्थ लाभ के लिए उनका त्याग कर देते थे। जरा उस बेबसी को भी ध्यान में लाइए जो इस अनुभूति से उठती होगी कि आख़िर जो संन्यास लेता है, वह निष्ठुर है, कायर और कठोर नहीं, बल्कि पुण्यात्मा, साहसी और शायद, सबसे बड़ा वीर है। और हाय री नारी! जो इन परिस्थितियों से हार कर, स्वेच्छया, अपने आप को, सचमुच ही, पुण्य की बाधा और पाप की खान मानकर पछाड़ खाकर रह जाती थी।

    बुद्ध और महावीर ने कृपा करके नारियों को भी भिक्षुणी होने का अधिकार दिया था, किंतु यह अधिकार भी नारी के हाथ सुरक्षित न रह सका। जैनों के बीच जब दिगंबर संप्रदाय निकला, तब धर्माचार्य नारियों की भिक्षुणी होने वाली बात से घबरा उठे और धर्म पुस्तक में उन्होंने एक नए नियम का विधान किया कि नारियों का भिक्षुणी होना व्यर्थ है, क्योंकि मोक्ष नारी जीवन में नहीं मिल सकता। नारियाँ घर में ही रहकर दान-पुण्य करें और उस दिन की प्रतीक्षा करें जब उनका जन्म पुरुष योनि में होगा। जब वे पुरुष होकर जनमेंगी, संन्यास वे तभी ले सकेंगी और तभी उन्हें मुक्ति भी मिलेगी। और बुद्ध ने भी एक दिन आयुष्मान आनंद से ईषत् पश्चाताप के साथ कहा कि आनंद! मैंने जो धर्म चलाया था, वह पाँच सहस्त्र वर्ष तक चलने वाला था, किंतु अब वह केवल पाँच सौ वर्ष चलेगा, क्योंकि नारियों को मैंने भिक्षुणी होने का अधिकार दे दिया है।
    धर्म साधक महात्मा और साधु नारियों से भय खाते थे। विचित्र बात तो यह है कि इनमें से कई महात्माओं ने तो ब्याह भी किया और फिर नारियों की निंदा भी की। कबीर साहब का एक दोहा मिलता है :

    नारी तो हम हूँ करी, तब ना किया विचार।
    जब जानी तब परिहरी, नारी महा विकार॥

    नारियों की यह अवहेलना हमारे अपने काल तक भी पहुँची है। बर्नार्ड शॉ ने नारी को अहेरिन और नर को अहेर माना है। तात्पर्य यह कि अहेर को अहेरिन के पास से बच कर चलना चाहिए। बहुत नीचे के स्तर पर कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उन कवियों की भी है जो नारी को 'नागिन' या 'जादूगरनी' समझते हैं। लेकिन, ये सब झूठी बातें हैं, जिनकी ईजाद पुरुष इसलिए करता है कि उनसे उसे अपनी दुर्बलता अथवा कल्पित श्रेष्ठता के दुलराने में सहायता मिलती है। असल में, विकार नारी में भी है और नर में भी; तथा नाग और जादूगर के गुण भी नारी में कम, पुरुष में अधिक होते हैं एवं आखेट तो मुख्यतः पुरुष का ही स्वभाव है।

    इन सबसे भिन्न रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचंद जैसे कवियों और रोमांटिक चिंतकों में नारी का जो रूप प्रकट हुआ, वह भी उसका अर्धनरेश्वरी रूप नहीं है। प्रेमचंद ने कहा है कि पुरुष जब नारी के गुण लेता है तब वह देवता बन जाता है; किंतु नारी जब नर के गुण सीखती है तब वह राक्षसी हो जाती है। इसी प्रकार, प्रसाद जी की इड़ा के विषय में यदि यह कहा जाए कि इड़ा वह नारी है जिसने पुरुषों के गुण सीखे हैं तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि प्रसाद जी भी नारी को पुरुषों के क्षेत्र से अलग रखना चाहते थे। रवींद्रनाथ का मत तो और भी स्पष्ट है। वे कहते हैं :

    नारी यदि नारी हय
    शुधू शुधू धरणीर शोभा शुधू आली,
    शुश्रू भालोवासा, शुधू सुमधुर छले,
    शतरूप भंगिमाय पलके-पलके
    फुटाय-जड़ाए बंके बेंधे हें से केंदे
    सेवाये सोहागे छेपे चेपे थाके सदा
    तबे तार सार्थक जनम की होड़वे
    कर्म-कीर्ति, वीर्यबल, शिक्षा-दीक्षा तार?

    अर्थात् नारी की सार्थकता उसकी भंगिमा के मोहक और आकर्षक होने में है, केवल पृथ्वी की शोभा, केवल आलोक, केवल प्रेम की प्रतिमा बनने में है। कर्मकीर्ति, वीर्यबल और शिक्षा-दीक्षा लेकर वह क्या करेगी? मेरा अनुमान है कि ऐसी प्रशस्तियों को ललनाएँ अभी भी बुरा नहीं मानतीं। सदियों की आदत और अभ्यास से उनका अंतर्मन भी यही कहता है कि नारी जीवन की सार्थकता पुरुष को रिझाकर रखने में है। यह सुनना उन्हें बहुत अच्छा लगता है कि नारी स्वप्न है, नारी सुगंध है, नारी पुरुष की बाँह पर झूलती हुईं जूही की माला है, नारी नर के वक्षस्थल पर मंदार का हार है। किंतु यही वह पराग है जिसे अधिक से अधिक उड़ेल कर हम नवयुग के पुरुष नारियों के भीतर उठने वाले स्वातंत्र्य के स्फुलिंगों को मंद रखना चाहते हैं।

    यतियों का अभिशप्त काल समाप्त हो गया। अब नारी विकारों की खान और पुरुषों की बाधा नहीं मानी जाती है। वह प्रेरणा का उद्गगम, शक्ति का स्रोत और पुरुषों की क्लांति की महौषधि हो उठी है। फिर भी, नारी अपनी सही जगह पर नहीं पहुँची है। पुरुष नारी से अब यह कहने लगा है कि, तुम्हें घर से बाहर निकलने की क्या जरूरत है? कमाने को मैं अकेला काफ़ी हूँ। तुम घर बैठे ख़र्च किया करो। किंतु इतना ही यथेष्ट नहीं है। नारियों को सोचना चाहिए कि पुरुष ऐसा कहता क्यों है। स्पष्ट ही, इसलिए कि नारी को वह अपनी क्रीड़ा की वस्तु मानता है, आराम के समय अपने मनोविनोद का साधन समझता है। इसलिए, वह नहीं चाहता कि आनंद की इतनी अच्छी मूर्ति पर थोड़ी सी धूल या थोड़ा भी धुएँ का धब्बा लगे।

    नारी और नर एक ही द्रव्य की ढली दो प्रतिमाएँ हैं। आरंभ में दोनों बहुत कुछ समान थे। आज भी प्रत्येक नारी में कहीं न कहीं कोई एक प्रच्छन्न नर और प्रत्येक नर में कहीं न कहीं एक क्षीण नारी छिपी हुई है। किंतु सदियों से नारी अपने भीतर के नर को और नर अपने भीतर की नारी को बेतरह दबाता आ रहा है। परिणाम यह है कि आज सारा ज़माना ही मर्दाना मर्द और औरताना औरत का ज़माना हो उठा है। पुरुष इतना कर्कश और कठोर हो उठा है कि युद्धों में अपना रक्त बहाते समय उसे यह ध्यान ही नहीं रहता कि रक्त के पीछे जिनका सिंदूर बहने वाला है, उनका क्या हाल होगा। और न सिंदूरवालियों को ही इसकी फ़िक्र है कि और नहीं तो, उन जगहों पर तो उनकी राय खुले जहाँ सिंदूर पर आफ़त आने की आशंका है। कौरवों की सभा में यदि संधि की वार्ता कृष्ण और दुर्योधन के बीच न होकर कुंती और गांधारी के बीच हुई होती, तो बहुत संभव था कि महाभारत नहीं मचता। किंतु कुंतियाँ और गांधारियाँ तब भी निश्चेष्ट थीं और आज भी निश्चेष्ट हैं। बल्कि, द्वापर से कलिकाल तक पहुँचते-पहुँचते वे अपने भीतर की नरता का और भी अधिक दलन कर चुकी हैं। जहाँ कहीं फूलों का प्रदर्शन और रेशमी वस्त्रों की हाट है, नारियाँ अपने मन से वहीं जमा होती हैं। जिन कांडों से फूलों के बाग उजड़ते और रेशमी वस्त्रों के बाजार जलकर ख़ाक हो जाते हैं, उनके संचालन और नियंत्रण का सारा भार उन्होंने पुरुषों पर डाल रखा है। आधी दुनिया उछलने-कूदने, आग लगाने और उसे बुझाने में लगी हुई है और आधी दुनिया फूलों की सैर में है।

    नर-नारी के प्रचलित संबंधों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव संसार के इतिहास पर पड़ रहा है और जब तक यह संबंध नहीं सुधरते, शांति के मार्ग की सारी बाधाएँ दूर नहीं होंगी। नारी कोमलता की आराधना करते-करते इतनी कोमल हो गई है कि अब उसे दुर्बल कहना चाहिए। उसने पौरुष से अपने आप को इतना विहीन बना लिया है कि कर्म के बड़े क्षेत्रों में पाँव धरते ही उसकी पत्तियाँ कुम्हलाने लगती हैं और पुरुष में कोमलता की जो प्यास है उसे नारी भली-भाँति शांत कर देती है। फिर, पुरुष अपने भीतर कोमलता का विकास क्यों करे?

    इस स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता वह नहीं है जिसे रोमांटिक कवियों और चिंतकों ने बतलाया है, बल्कि वह है जिसकी ओर संकेत गाँधी और मार्क्स करते हैं। निवृत्तिमार्गियों की तरह नारी से दूर भागने की बात तो निरी मूर्खता की बात है; और भोगवादियों के समान नारी को निरे भोग की वस्तु मान बैठना और भी गलत है। नारी केवल नर को रिझाने अथवा उसे प्रेरणा देने को नहीं बनी है। जीवन यज्ञ में उसका भी अपना हिस्सा है और वह हिस्सा घर तक ही सीमित नहीं, बाहर भी है। जिसे भी पुरुष अपना कर्मक्षेत्र मानता है, वह नारी का भी कर्मक्षेत्र है। नर और नारी, दोनों के जीवनोद्देश्य एक हैं। यह अन्याय है कि पुरुष तो अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए मनमाने विस्तार का क्षेत्र अधिकृत कर ले और नारियों के लिए घर का छोटा कोना छोड़ दे। जीवन की प्रत्येक बड़ी घटना आज केवल पुरुष प्रवृत्ति से नियंत्रित और संचालित होती है। इसीलिए, उसमें कर्कशता अधिक, कोमलता कम दिखाई देती है। यदि इस नियंत्रण और संचालन में नारियों का भी हाथ हो तो मानवीय संबंधों में कोमलता की वृद्धि अवश्य होगी।

    यही नहीं, प्रत्युत, प्रत्येक नर को एक हद तक नारी और प्रत्येक नारी को एक हद तक नर बनाना भी आवश्यक है। गाँधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में नारीत्व की भी साधना की थी। उनकी पोती ने उन पर जो पुस्तक लिखी है, उसका नाम ही 'बापू, मेरी माँ' है। दया, माया, सहिष्णुता और भीरुता, ये स्त्रियोचित गुण कहे जाते हैं। किंतु, क्या इन्हें अंगीकार करने से पुरुष के पौरुष में कोई दोष आनेवाला है? दया, माया और सहिष्णुता ही नहीं, भीरुता का भी एक अच्छा पक्ष है जो मनुष्य को अनावश्यक विनाश से बचाता है। उसी प्रकार अध्यवसाय, साहस और शूरता का वरण करने से भी नारीत्व की मर्यादा नहीं घटती।

    अर्धनारीश्वर केवल इसी बात का प्रतीक नहीं है कि नारी और नर जब तक अलग हैं तब तक दोनों अधूरे हैं, बल्कि इस बात का भी कि पुरुष में नारीत्व की ज्योति जगे, और यह कि प्रत्येक नारी में भी पौरुष का स्पष्ट आभास हो।

    मही माँगती प्राण-प्राण में सजी कुसुम की क्यारी।
    स्वप्न-स्वप्न में गूंज सत्य की, पुरुष-पुरुष में नारी

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