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दृगन लगन मन मग न परि

drigan lagan man mag na pari

दयाराम

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दृगन लगन मन मग न परि

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    दृगन लगन मन मग परि, मगन गगन लों लागि।

    भगन भगनफल, जगन सहि, हरि सो सो बड़ भागि॥

    (हे मन, तू) दृग लगने (प्रेम) के मार्ग में पड़। प्रेम की आग गगन तक पहुँचती है। इसमें भगनफल (यश) नष्ट होता है, जगनफल (कष्ट) सहना पड़ता है। हरि-प्राप्ति में संशय उत्पन्न हो जाता है और बड़प्पन जाता रहता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दयाराम सतसई (पृष्ठ 98)
    • संपादक : अंबाशंकर वागर
    • रचनाकार : दयाराम
    • प्रकाशन : गुजराती रिसर्च इंस्टिट्यूट अहमदाबाद
    • संस्करण : 1967

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