पुरानी डायरी के पन्ने-1
purani Dayri ke panne 1
महत्त्वाकांक्षा
आँसू बनकर मत गिरो, बादल बनकर बरसो। बादल बनकर मत बरसो, नदी बनकर चलो। नदी बनकर मत चलो, महानद का प्रवाह धरो।
महानद का प्रवाह छोड़ो, सागर का विस्तार गहो!
24 जनवरी 1931
सिर-फिरा कवि
महाराज सभा में पधारे तो सारी की सारी सभा उनके स्वागत में खड़ी हो गई। तने मस्तक नत हो गए और पुलकित करों ने फूल बरसाए।
केवल एक व्यक्ति बैठा रहा, न उसका तन हिला न मस्तक। वह गाव-तकिए से पीठ लगाए उसी तरह अगड़ा बैठा रहा।
उससे—केवल उससे—महाराज की आँखें चार हुई और उनके अपने हाथ मस्तक की ओर उठ गए।
यह राज्य का प्रसिद्ध कवि था, पर लोग उसे सिर-फिरा कहते थे।
2 मार्च 1931
दिल है एक सराय
दिल भी एक सराय है दोस्त। कई हसीन सूरतें वहाँ आकर बसेरा पाती है और कुछ क्षण को इसके पट पर कुछ रेखाएँ बना कर मिट जाती हैं—सागर तट पर नश्वर चिन्ह बनाने वाली लहरों की तरह, डालियों में अटककर निकल जाने वाले झोंकों की
भांति!
लेकिन ऐसी सूरतें भी हैं जो सराय में आकर निकलने का नाम ही नहीं लेतीं और ऐसी अविनश्वर रेखाएँ मानस के पट पर अंकित कर देती हैं, जो फिर मिटाए नहीं मिटती।
हल्की लहरें नहीं, तूफ़ानी ही किनारों पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। हल्के झोंके नहीं आँधियाँ ही पेड़ों को हिला जाती हैं।
लेकिन मेरे दिल का तट अभी तक किसी ऐसे आँधी-तूफ़ान से अपरिचित है—एक सराय है, सूनी और ख़ामोश, उत्सुक और बेचैन।
31 मार्च 1931
- पुस्तक : ज़्यादा अपनी : कम पराई
- रचनाकार : उपेंद्रनाथ अश्क
- प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन
- संस्करण : 1959
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