समय, लय और संपादन

samay, lay aur sampaadan

आन्द्रेई तारकोवस्की

आन्द्रेई तारकोवस्की

समय, लय और संपादन

आन्द्रेई तारकोवस्की

और अधिकआन्द्रेई तारकोवस्की

     

    फ़िल्मीय बिंब के बाबत मनन करते हुए मैं इस बहुप्रचारित विचार को एकदम निरस्त करना चाहता हूँ कि वह मूलतः 'संयोजित' है। मुझे यह धारणा नागवार लगी क्योंकि इसमें यह अंतर्निहित मान लिया गया कि सिनेमा सगोत्र कला रूपों के गुणों पर आधारित है और उसमें अपने स्वयं का कोई विशिष्ट गुण नहीं है—इसका मतलब तो यही होगा कि सिनेमा कला नहीं है।

    फ़िल्मीय बिंब का प्रबल और भरपूर शक्तिशाली तत्व फ़्रेम के भीतर समय के प्रवाह को अभिव्यक्त करती लय है। पात्रों के व्यवहार, दृष्टव्य हलचलों और ध्वन्यात्मक गतिविधियों के द्वारा समय का वास्तविक बहाव भी स्पष्टतया प्रस्तुत होता है—लेकिन ये सब प्रासंगिक घटक हैं जिनकी अनुपस्थिति, सैद्धांतिक रूप में, फ़िल्म के अस्तित्व को क़तई प्रभावित नहीं करती। ऐसी किसी सिनेमाई कृति की कल्पना नहीं की जा सकती जिसमें चित्र (शॉट) के भीतर समय के बहने का भाव न हो, हालाँकि ऐसी फ़िल्म की कल्पना हो सकती है जिसमें अभिनेता, संगीत, सज्जा, बल्कि यहाँ तक कि संपादन भी न हो। ल्यूमियर-ब्रदर्स द्वारा रचित विख्यात कृति ‘ल-अराइवी दुन ट्रेन’ का उदाहरण हमारे सामने है। उसी तरह दो-एक फ़िल्में अमरीकी अधोजगत् की भी हैं, जिनमें से एक में सोया हुआ आदमी जगता है और उस पल में सिनेमा अपनी स्वयं ही की जादूगरी से बिल्कुल अप्रत्याशित और अद्भुत सौंदर्यात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है।

    इसी तरह पास्कल ऑबिएर (जन्म: 1942; प्रयोगात्मक फ़िल्मों के सृजन में दिलचस्पी रखने वाले फ़्रांसीसी फ़िल्म निर्देशक। गोदार और जाँसो के सहयोगी) की दस मिनट अवधि की फ़िल्म में केवल एक चित्र (शॉट) है। पहले वह प्रकृति का जीवन दर्शाती है—भव्य और प्रशांत, जो मानवीय हड़बड़ाहटों और आवेगों से शून्य है। फिर, कला-मर्मज्ञ कौशल के द्वारा नियंत्रित कैमरा, एक नन्हे-से बिंदु (किसी पहाड़ी की ढलान पर उगी घास में नहीं के बराबर दिखाई देते सोये हुए किसी आकार) पर घूमता है। उसके तत्काल बाद नाटकीय क्रमपरिणति होती है। समय का प्रवाह हमारी उत्सुकता से प्रेरित हो, तेज़ गति पकड़ता दिखाई देता है। सब कुछ यूँ जैसे हम कैमरे के संग-संग, गुपचुप, बड़ी सावधानी के साथ, उस 'बिंदु' की ओर बढ़ते हुए पास पहुँच महसूस करते हैं कि आदमी मृत है। दूसरे क्षण हमें ज़्यादा जानकारी दी जाती है और वह यह कि दिवंगत की हत्या हुई है; वह एक बाग़ी था जिसने ज़ख़्मों के आगे दम तोड़ दिया; लेकिन हम उसे नितांत भिन्न स्वभाव की पृष्ठभूमि के बर-अक्स देखते हैं। हम हमारी स्मृतियों के ज़रिये बड़ी ज़ोर से उन घटनाओं पर ध्यान आकर्षित करने को विवश होते हैं जो आज के संसार को झकझोर रही हैं। आप ग़ौर करेंगे कि उस फ़िल्म में संपादन है न अभिनय; सज्जा भी नहीं। लेकिन फ़्रेम के भीतर समय की गतिविधि की लय ऐसी है जो नितांत जटिल नाटकीय हलचल को विन्यस्त करती एकमात्र ताक़त समान है।

    किसी फ़िल्म के एकाकी अवयव का पृथक से कोई अर्थ नहीं रखती फ़िल्म ही कलाकृति है। महज़ सैद्धांतिक बहस की ख़ातिर फ़िल्म को कृत्रिम रूप से तोड़ कर ही उच्छृंखलतापूर्वक हम उसके अवयवों के विषय में केवल बातें कर सकते हैं। मैं इस धारणा को भी स्वीकार नहीं करता कि किसी फ़िल्म का प्रमुख रचनात्मक तत्व संपादन है जिसे कुलेशोव और आइज़ेस्ताइन की तरह 'मोंताज़ सिनेमा' के समर्थक सदी के तीसरे दशक में इस तरह मानते रहे जैसे कि फ़िल्म संपादन-कक्ष में रूप लेती हो।

    यह सदैव सही बताया गया कि चुनाव और समायोजन की दृष्टि से अंगों और अवयवों की संयोजना के लिए प्रत्येक कला-रूप संपादन को अंतर्निहित मानता है। फ़िल्मांकन के दौरान सिनेमाई-बिंब अस्तित्ववान होकर फ़्रेम के 'भीतर' विद्यमान रहता है। इसीलिए, फ़िल्मांकन (शूटिंग) के दौरान मैं फ़्रेम के भीतर, समय के प्रभाव पर ध्यान देता हूँ ताकि उसे पुनः प्रस्तुत करूँ और रिकॉर्ड करूँ। अपने में पहले से ही समय के भरे हुए चित्रों (Shots) को 'संपादन' के ज़रिये समीप लाकर फ़िल्म में अंतर्निहित एकीकृत जीवंत संरचना को व्यवस्थित किया जाता है; और ध्यान रहे कि फ़िल्म की धमनियों में धड़कता समय, उसे सजीव रखने वाला समय, घटते-बढ़ते लयात्मक प्रभावों का समय है।

    मैं 'मोंताज़ सिनेमा' के इस विचार कि—संपादन दो अवधारणाओं को एक साथ लाकर किसी तीसरी नई अवधारणा को जन्म देता है—को भी सिनेमा के स्वभाव के संगत नहीं मानता। कला अवधारणाओं की पारस्परिक क्रियाओं को अपने अंतिम लक्ष्य की तरह कदापि स्वीकार नहीं कर सकती। बिंब किसी ठोस और ऐंद्रिक के साथ भले बँधा हो, फिर भी वह आत्मा के पार जाती रहस्यात्मक राह के किनारे-किनारे फैलता जाता है—शायद इसीलिए पुश्किन ने ठीक ही कहा, ‘कविता को थोड़ा-बहुत संवेदनशून्य होना ही चाहिए।’

    सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र—यानी नीचतम भौतिक पदार्थों का ऐसा मिश्रण जिसे हम प्रतिदिन पग-पग रौंदते हैं—वह प्रतीकात्मकता का प्रतिरोधी है। एक अकेली फ़्रेम ही यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि पदार्थ के चुनाव और उसे दर्ज करने के मामले में निर्देशक प्रतिभावान है या नहीं, कि उसमें सिनेमाई दृष्टि या कल्पना है या नहीं।

    संपादन अंततः चित्रों (Shots) के संकलन का आदर्श रूपांतर भर ही है, अनिवार्यतः उस पदार्थ के भीतर नियंत्रित जो फ़िल्म के कुंडल पर चढ़ा हुआ है। किसी फ़िल्म का बिल्कुल सही ढंग से, और पूरी दक्षता के साथ संपादन करने का यही अर्थ होगा कि विभिन्न दृश्यों और चित्रों (Scenes and Shots) को स्वतःस्फूर्त ही एक साथ आने देना क्योंकि एक माने में वे स्वयं ही का संपादन कर लेते हैं; यानी, वे अपने स्वयं ही की आभ्यंतरिक बनावट के अनुसार संबद्ध हो जाते हैं। 'काटने' और 'जोड़ने' के वक़्त सवाल महज़ उस बनावट को पहचानने और उसका अनुसरण करने भर का ही है। संबंधों की बनत का, दृश्यों के बीच संधि-योजनाओं का—विशेषकर तब कि जब दृश्य पूरी तरह उपयुक्त रूप से नहीं खींचा गया हो—बोध कर लेना सदैव आसान नहीं होता; ऐसी स्थिति में विभिन्न टुकड़ों को संपादन के ज़रिये तार्किक और स्वाभाविक रूप से महज संयोजित करना ही नहीं बल्कि घनघोर परिश्रम करके संधि-योजनाओं के आधारभूत सिद्धांत का सुराग़ लगा लेना भी ज़रूरी है। बहरहाल, थोड़ा-थोड़ा करके आपको पदार्थ ही के भीतर बसा सारभूत तारतम्य उभरता और स्पष्ट होता दिखाई देगा।

    फ़िल्मांकन (शूटिंग) के दौरान पदार्थ के भीतर बसे विशिष्ट गुणों के कारण ही, संपादन के वक़्त जिज्ञासा से भरी पूर्व-प्रभावी प्रक्रिया के तहत एक आत्म-व्यवस्थित संरचना आकार ग्रहण करती है। संपादन के स्वरूप में फ़िल्मी पदार्थ का स्वभाव उभर आता है।

    दुबारा अपने ही अनुभव के आधार पर बताऊँ कि ‘मिरर’ के संपादन में बहुत ज़्यादा काम करना पड़ा। हमारे सामने क़रीब बीस रूपांतर थे। कुछेक दृश्यों (Shots) के क्रम में परिवर्तनों की ही बात नहीं, बल्कि मूलभूत संरचना ही में, यानी प्रसंगों के सिलसिले (सीक्वेंस) ही में महत्वपूर्ण रद्द-ओ-बदल किया जाना ज़रूरी लगा। कई बार लगा फ़िल्म का संपादन नहीं हो सकता, अतः इसका यही अर्थ हो सकता था कि फ़िल्मांकन ही के दौरान असहनीय ग़लतियाँ हो गर्इ हैं। फ़िल्म गुथी हुई नहीं, अडिग नहीं, देखने पर बिखरी-बिखरी लगे, उसमें कोई तारतम्य नहीं, अनिवार्य अंतर्संबंध नहीं, कोई तर्कसंगति नहीं। और फिर किसी उजले दिन, किसी-न-किसी तरह हमने एक आख़िरी हताश पुनर्विन्यास की कोशिश की—देखा, तो फ़िल्म तैयार थी। सारा पदार्थ सजीव हो गया; अंग-अंग अन्योन्याश्रित होकर क्रियाशील हो गए जैसे किसी रक्तप्रवाह से जुड़ गए हों; और जब उस अंतिम, हताश हरकत को पर्दे पर प्रक्षेपित किया गया, तो फ़िल्म हमारी आँखों के सामने उत्पन्न हुई। कई दिनों तक मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि चमत्कार—यानी फ़िल्म का संयोजन हो गया।

    यह हमारे फ़िल्मांकन (शूटिंग) के पारंगत होने का साक्ष्य था। ज़ाहिर है विभिन्न अवयव तारतम्य में इसीलिए व्यवस्थित हो पाए क्योंकि पदार्थ ही में वैसा रुझान अंतर्निहित था, वह फ़िल्मांकन ही के वक़्त उद्भूत हुआ होगा; और सारी कठिनाइयों के बावजूद अगर हम उसके वहाँ होने के बाबत स्वयं ही को धोखा नहीं दे रहे थे तब तो पिक्चर को किसी सिलसिले में आना था, वही होना सारी बातों की मूलभूत प्रकृति ही में बसा हुआ था। उसका होना बिल्कुल वाजिब था, सहज और तर्कसंगत, क्योंकि हमने पहले ही से दृश्यों (Shots) के सार और प्रणवत्ता को चीन्ह लिया था। और जब वह हो गया, ओह भगवान— हम सब को बे-इंतिहा राहत मिली। स्वयं समय ही दृश्यों (Shots) के बीच बहता हुआ मिला और एक साथ जुड़ गया।

    ‘मिरर’ में लगभग दो सौ दृश्य हैं, जिन्हें बहुत कम ही माना जाएगा क्योंकि उतनी लंबी फ़िल्म में प्रायः पाँच सौ दृश्य रहते ही हैं; संख्या का कम होना उनकी लंबाई के कारण है। यद्यपि किसी फ़िल्म की संरचना के लिए दृश्यों की संयोजना महत्वपूर्ण तो है लेकिन वह उसकी लय का सृजन नहीं करती, भले ही आमतौर पर मान लिया गया हो कि करती है। दृश्यों के बीच बहता हुआ विशिष्ट समय ही फ़िल्म की लय रचता है; और लय संपादित अंशों की लंबाई से नहीं, बल्कि उनके भीतर प्रवाहमान समय के द्वारा निर्धारित होती संपादन लय को कदापि निर्धारित नहीं करता (हद-से-हद वह शैली का लक्षण माना जा सकता है); दरअस्ल, संपादन के कारण नहीं बल्कि उसके बग़ैर ही समय पिक्चर के अंदर बहता रहता है। फ़्रेम में दर्ज समय का प्रवाह ही वह पदार्थ है जिसे संपादन के दौरान अपने सामने बिछे अंशों में निर्देशक को पकड़ना होता है।

    फ़्रेम में मुद्रांकित समय विशिष्ट संपादकीय सिद्धांत तय करता है; और वे अंश जो पादित नहीं हो पाते—यानी जो उपयुक्त तारतम्य में जोड़े नहीं जा सकते—वे, वे हैं जो अपने में मूलतः भिन्न प्रकार का समय दर्ज किए हुए होते हैं। मसलन, आप अवधारणात्मक समय के साथ वास्तविक समय को जोड़ नहीं सकते—वैसा करना भिन्न व्यास के नलों को जोड़ने की तरह ही हो सकता है। दृश्य के बीच बहते समय की संगति को, यानी उसकी सघनता या 'ढलान' को समय-का-दबाव कहें तभी हम संपादन को अंशों के भीतर बसे समय-के-दाब के आधार पर बनी संयोजना मान सकते हैं।
    सक्रिय दबाव, दिया ज़ोर क़ायम रखने से ही भिन्न दृश्यों का प्रभाव संयुक्त होगा। किसी दृश्य में समय अपने होने को कैसे महसूस कराता है? जब आपको पर्दे पर घटनाओं के परे कुछ सार्थक, कुछ सत्यनिष्ठ भाव की प्रतीति हो; जब आपको बिल्कुल सचेत रूप से लगे कि फ़्रेम में जो दिख रहा है वह महज़ दृष्टव्य-चित्रण ही तक महदूद नहीं बल्कि फ़्रेम ही के पार अनंत तक फैली किसी बात का सूचक है; जीवन ही का संकेतक है—तब उसका अहसास होगा। बिंब के अनंत की तरह, जैसा कि हमने पहले बताया, कोई फ़िल्म—अगर वह सचमुच फ़िल्म हो तो अपने स्वयं ही से बड़ी होती है। उसमें उसके सर्जक के द्वारा सचेत रूप से भरे भावों और विचारों की अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही भाव और विचार अपने आप उभर आते है। प्रत्येक को अपने ही दृष्टिकोण से जिस जीवन के अर्थ लगाने और महसूस करने की अनुमति जीवन ही के द्वारा मिली हो उस निरंतर सचल और परिवर्तनशील जीवन ही के समान, एक सच्ची पिक्चर भी, फ़्रेम के किनारों के पार बहते समय को ईमानदारी से फ़िल्म पर दर्ज कर समय के भीतर ऐसे सजीव है जैसे उसके भीतर समय सजीव है; यह दोधारी प्रक्रिया सिनेमा के लिए निर्णायक तत्व है। तब फ़िल्म अपनी किसी अनावृत और संपादित कुण्डली (यानी, कहानी या कथानक) के किसी प्रकट रूप के पार कुछ चीज़ बन जाती है। प्रेक्षक के सामने जाते ही वह अपने सर्जक से अलग हो जाती है, अपनी स्वयं ही की ज़िंदगी जीने लगती रूप और अर्थ के परिवर्तनों में से गुज़रती है।

    मैं मोंताज़-सिनेमा के सिद्धांतों को नकारूँगा क्योंकि वे फ़िल्म को पर्दे की सरहदों के पार सक्रिय नहीं रखते; फ़िल्म में प्रेक्षकों के सामने जो कुछ हो रहा हो उसके ऊपर अपनी निजी अनुभूतियों की संगति करने की अनुमति वे नहीं देते। 'मोंताज़-सिनेमा' प्रेक्षकों के सामने गुत्थियाँ और पहेलियाँ रखता है, उनसे प्रतीकों का मतलब निकलवाता है, दृष्टांतों में रमता है, हर पल उनके बौद्धिक अनुभव के प्रति आग्रह बनाता है। बहरहाल, इनमें से प्रत्येक पहेली का उसका अपना निश्चित, शब्दशः हल है; अतः आइज़ेस्ताइन—सिद्धांत दृश्यों पर स्वयं दर्शकों की ही प्रतिक्रिया के ज़रिये अनुभूतियों को प्रभावित होने देने से वंचित करता है। अक्तूबर में जब वे कैरेंस्की के साथ बेलेलाइका (रूसी वाद्ययंत्र) को जक्स्टपोज़ करते हैं तब उनकी विधि उनका ध्येय बन जाती है, वेलरी ने जैसा चाहा उसी अर्थ में बिंब की रचना स्वयं में लक्ष्य बन जाती है और इस तरह दर्शकों पर घटनाओं के बाबत अपना ही पहलू थोपता हुआ फ़िल्मकार दर्शकों का दिमाग़ कुंठित कर देता है।
    अगर सिनेमा की बैले या संगीत जैसी समय-आधारित कलाओं के साथ तुलना करें तब सिनेमा समय को दृष्टव्य, और वास्तविक रूप देती हुई कलाकृति मालूम देगी। फ़िल्म पर दर्ज होते ही, सारा फेनोमेना—प्रदत्त और अपरिवर्तनीय—आपके सामने होगा, इस बात के बावजूद भी कि समय प्रगाढ़ रूप से आत्मपरक है।

    कलाकार इस तरह विभाजित हुए कि कुछ अपने स्वयं ही का आंतरिक संसार रचते हैं तो कुछ यथार्थ का पुनर्सृजन करते हैं। बेशक, मैं पहले वर्ग में हूँ—गो कि उससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता—मेरे आंतरिक संसार में कुछ लोगों को दिलचस्पी हो सकती है, और कुछ उससे मायूस हो सकते हैं, नाराज़ भी; मगर मुद्दे की बात यह कि सिनेमाई विधि के द्वारा सृजित आंतरिक संसार को सदैव यथार्थ ही के समान मानना होगा क्योंकि रिकॉर्ड किए गए क्षण की अनंतरता में वह बाह्य वस्तु विषयक रूप में ही स्थापित हुआ।

    संगीत की रचना के किसी अंश का कई तरीक़ों से गायन या वादन हो सकता है, उसकी समयावधि अलग-अलग हो सकती है। उसमें समय किसी प्रदत्त व्यवस्था में प्रस्तुत कतिपय कार्य-कारणों की महज़ एक साधारण शर्त है, यानी उसका चरित्र अमूर्त है, दार्शनिक है। इसके विपरीत सिनेमा, भावनाओं को छूने वाले बाह्य और दृष्टव्य प्रतीकों में समय को दर्ज करने की योग्यता रखता है। अतः समय सिनेमा का मूलभूत आधार है: ठीक वैसे जैसे कि संगीत में ध्वनि, चित्र में रंग, नाटक में पात्र। इसीलिए, लय अंशों का परिमाणात्मक सिलसिला नहीं है; दरअस्ल, फ़्रेमों के भीतर बसा समय-का-दाब ही उसे रचता है। सो, मेरा पूरा विश्वास है कि संपादन नहीं बल्कि लय सिनेमा का प्रमुख सृजनात्मक तत्व है।

    ज़ाहिर है संपादन हर एक कलारूप में मिलेगा, क्योंकि पदार्थ को सदैव चुनना और जोड़ना पड़ेगा। सिनेमा-संपादन की विशेषता यह है कि वह फ़िल्म के अंशों में 'छपे' समय को एक साथ संयोजित करता है। संपादन में उन सभी छोटे-बड़े अंशों को तारतम्य में संजोना होता है, जिनमें प्रत्येक में भिन्न समय प्रवाहित है। और उनकी 'संयोजना’ उस समय के अस्तित्व की उस नर्इ चेतना को रचती है जो अंतरालों के, यानी प्रक्रिया के दौरान काटने-छाँटने के परिणामस्वरूप उभरती है; लेकिन जैसा कि हमने शुरू ही में बता दिया कि संयोजना का विशिष्ट स्वभाव अंशों में पहले ही से मौजूद है। संपादन किसी नर्इ गुणवत्ता का पुनर्सृजन नहीं करता; वह संयोजित की जा रही फ़्रेमों (Frames) में ही अंतर्निहित है। फ़िल्मांकन (शूटिंग) के दौरान ही संपादन का पूर्वानुमान रहता है; जो कुछ फ़िल्मांकित हो रहा है उस बात के स्वभाव में, उसी के द्वारा आरंभ से ही आयोजित होकर, वह (संपादन) पूर्वानुमानित है। संपादन को कैमरे द्वारा दर्ज समय की अतिशयोक्तियों और उनके अस्तित्व की तीव्रता की मात्रा के साथ ज़रूर कुछ करना होता है; लेकिन अमूर्त प्रतीकों, चित्रात्मक भौतिक-वास्तविक-सामग्रियों, दृश्य में गहरे विवेक और अत्यंत सावधानी रखकर संयोजित की गर्इ संरचनाओं के साथ कुछ नहीं; दो एक-सी अवधारणाओं (जिनके बारे में कहा गया कि वे जुड़ कर कोई तीसरा अर्थ उत्पन्न करें) के साथ कुछ नहीं; लेकिन कल्पना में लायी गई जीवन की विभिन्नताओं के साथ ज़रूर कुछ करना होता है।

    स्वयं आइज़ेस्ताइन ही की कृति मेरे दावे को सिद्ध करती है। अगर उनके अंतःकरण का दख़ल न होता, और अगर उन्होंने संपादित अंशों में किसी ख़ास संयोजना के द्वारा आवश्यक समय-के-दाब को प्रयुक्त न किया होता, तब तो वह लय (जिसे उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से संपादन पर निर्भर माना) उनके सैद्धांतिक आधार ही की कमज़ोरी प्रकट कर देगी। मसलन, एलेक्ज़ेंडर नेवस्की में बर्फ़ पर हो रहे युद्ध को ही लें। समय-के-उपयुक्त-दबाव के ज़रिये फ़्रेमों (Frames) को भरे जाने की ज़रूरत टाल, छोटे—बल्कि कभी-कभी ख़ूब छोटे—दृश्यों के द्वारा वे युद्ध की भीतरी ऊर्जा को हासिल करना चाहते हैं। बहरहाल, फ़्रेमों (Frames) को बदलती सनसनाती गति के बावजूद, दर्शक (कम-से-कम वे दर्शक तो निश्चित ही कि जो खुले दिमाग़ सिनेमा देखने आए हों, जिनके दिमाग़ में यह न भर दिया गया हो कि यह तो 'क्लैसिकल' फ़िल्म है, और संपादन का 'क्लैसिकल' नमूना तो केवल सोवियत सिनेमा संस्थान ही में है) इस भावना से विचलित हुए कि पर्दे पर जो कुछ हो रहा है वह काहिल और अस्वाभाविक है। दरअस्ल कारण यह कि अलग-अलग फ़्रेमों में समय-सत्य बसा हुआ नहीं है। अपने आप में वे रसहीन और गतिशून्य हैं। इस तरह स्वयं फ़्रेम (जो विशिष्ट समय-प्रक्रिया से शून्य है) और संपादन की जल्दी-से-जल्दी परिणाम हासिल कर लेने वाली शैली (जो स्वच्छंद और सतही है क्योंकि वह दृश्यों के भीतर समय के साथ कोई रिश्ता नहीं रखती) के बीच अपरिहार्य अंतर्विरोध है। अतः निर्देशक ने जिस सनसनी को उत्पन्न करना चाहा वह दर्शक तक नहीं पहुँची क्योंकि उसने पौराणिक युद्ध के प्रणाणिक समय-बोध से फ़्रेम को भरने की परवाह नहीं की। घटना पुनर्सृजित नहीं हुई बल्कि किसी पुराने तरीक़े से एक-साथ पिरो दी गई।

    सिनेमा में लय, फ़्रेम के अंदर दृष्टव्य रूप से दर्ज पदार्थ की ज़िंदगी से संप्रेषित होती है। सरकंडे की थरथरान से जिस तरह पता चल जाता है कि नदी में कैसा प्रवाह और कैसा दबाव है, उसी तरह दृश्य (Shot) में पुनर्प्रस्तुत जीवन-प्रक्रिया के बहाव से हम समय की गतिविधि जान लेते हैं।

    सर्वोपरि समय के बोध के, यानी लय के द्वारा निर्देशक अपनी वैयक्तिकता प्रकट करता है। लय शैलीगत निशानों से कृति में रंग भरती है। वह सोची-विचारी नहीं होती और किसी स्वच्छंद सैद्धांतिक आधार पर रची नहीं होती, बल्कि जीवन के बाबत निर्देशक की अंतर्निष्ठ चेतना के और समय के बाबत उसकी अपनी 'तलाश' की प्रतिक्रिया की वजह से किसी फ़िल्म में स्वतःस्फूर्त अस्तित्ववान होती है। मुझे लगता है कि किसी दृश्य की लय महसूस करना कदाचित साहित्य में किसी ईमानदार सच्चे शब्द को महसूस करने समान ही है। लेखन में किसी अनुपयुक्त शब्द समान फ़िल्म में अनुपयुक्त लय भी कृति के सत्य का नाश करती है (निस्संदेह लय की अवधारणा गद्य पर भी प्रयुक्त हो सकती है—हालाँकि बिल्कुल दूसरे तरीक़े से)।

    लेकिन यहाँ एक अपरिहार्य समस्या आ खड़ी होती है। यूँ कहें कि मुझे फ़्रेम के भीतर स्वाभिमान और स्वतंत्रता के साथ बहता समय चाहिए, ताकि दर्शक ऐसा ज़रा महसूस न करे जैसे उसके अवबोधन (परसेप्शन) पर ज़ोर-ज़बर्दस्ती की जा रही हो, और वह फ़िल्म के पदार्थ को आत्मसात कर और मन की ओर किसी नए एवं अंतरंग अनुभव की तरह खींचकर अपने स्वयं के पदार्थ की तरह पहचानते हुए, सहज ही, कलाकार के द्वारा स्वयं को बंदी बना लिया जाने दे। लेकिन फिर भी, एक प्रकट द्वंद्व बचा रहता है क्योंकि निर्देशक का समय-बोध दर्शक पर किसी- न किसी तरह का ज़ोर-ज़बर्दस्ती वाला होता ही है, क्योंकि वह अपने भीतर संसार को लेकर आग्रही होता है। दर्शक या तो आपकी लय (आपके संसार) में लीन आपका सहयोगी बनता है या फिर नहीं होता है (यानी इस स्थिति में कोई संबंध स्थापित नहीं हुआ)। अतः कुछ लोग आपके अपने बनते हैं और शेष अजनबी रह जाते हैं, सो, मेरे ख़याल से यह न केवल एकदम स्वाभाविक, बल्कि खेद के साथ कहें कि, अपरिहार्य है।

    अतः इसे मैं अपने काम-का-उद्यम (प्रोफ़ेशनल टास्क) मान, समय के मेरे स्वयं-हो के विशिष्ट प्रवाह का सृजन कर, दृश्य (shot) में, काहिल और निद्राजनक गतिविधि को हटा तूफ़ानी और तेज़तर्रार हलचल का भाव संप्रेषित करता हूँ जिसे एक व्यक्ति एक तरह से तो दूसरा भिन्न तरह से देख सकता है।
    संयोजना और संपादन समय के प्रवाह में व्यवधान पहुँचाते हैं, उसका क्रमभंग करते हैं और उसी क्षण कुछ नया भी देते हैं। समय का विरुपण उसे लयात्मक अभिव्यक्ति देने वाला उपाय भी हो सकता है।
    समय-उत्कीर्णन!
    लेकिन विषम समय-दाब के जबरन जोड़े गए दृश्यों को यूँ ही प्रवेश नहीं देना चाहिए; उसे किसी भीतरी ज़रूरत में से, यानी समग्र पदार्थ में चलती हुई किसी ऐंद्रिक प्रक्रिया में से उभरना होता है। जिस क्षण संक्रमणों की ऐंद्रिक प्रक्रिया को व्यवधान पहुँचे उसी क्षण संपादन का आग्रह दख़्ल देना शुरू कर देता है (जिसे निर्देशक छिपाता है); वह अनावृत हो जाती है, आँखों की ओर झपटती है। अगर समय किसी आत्मिक विकास के आग्रह की प्रतिक्रिया में धीमा या तेज़ किए जाने के ब-निस्बत कृत्रिम रूप से धीमा या तेज़ किया जाए, यानी लय का परिवर्तन ग़लत हो तो परिणाम झूठा और कर्कश होगा। असमान समय-मूल्य के अंशों का जुड़ना अनिवार्यतः लय तोड़ देता है। बहरहाल, अगर यह टूटन संयोजित फ़्रेमों (Frames) के भीतर मौजूद सक्रिय ताक़तों द्वारा प्रोत्साहित हो, तब तो वह सही लयात्मक रूपरेखा को तराशने के लिए सारभूत तत्व हो सकता है। मसलन, कुछेक समय-दाब, जिन्हें रूपक के स्तर पर कुंड, नदी, बाढ़, झरना, समुद्र नाम दें—उन्हें एकसाथ जोड़ उत्पन्न हुआ अनोखा रूपाकार सर्जक का ही समय-बोध है, जो नए सिरे से रूपाकृत पदार्थ की तरह अस्तित्व में आता है। जहाँ तक समय-बोध जीवन के बाबत निर्देशक के अंतर्निष्ठ अंतर्बोध के संगत हो, और संपादन फ़िल्म के अंशों में लयात्मक दबावों से तय हो वहाँ तक उसके हस्ताक्षर उसके संपादन में नज़र आ सकते हैं। वह फ़िल्म की अवधारणा के प्रति उसके रुख़ की अभिव्यक्ति और उसके जीवन दर्शन की चरम रूपाकृति है। मेरे ख़याल से अपनी फ़िल्मों को सरलता से और भिन्न-भिन्न तरीक़ों से संपादन करने वाला फ़िल्मकार निश्चय ही छिछला होगा। जबकि हम बर्गमॅन, ब्रेसाँ, कुरोसावा या अंतोनिओ के संपादन को सदैव पहचान लेंगे; उनमें से किसी एक का किसी दूसरे के साथ कभी भी घालमेल नहीं किया जा सकता क्योंकि अपनी फ़िल्मों की लय में अभिव्यक्त प्रत्येक का समय-बोध हमेशा एक समान होगा।

    बेशक, अपने व्यवसाय (प्रोफ़ेशन) के अन्य सभी नियमों की तरह आपको संपादन के नियम ज्ञात होने ही चाहिए, लेकिन कलात्मक सृजन उसी बिंदु से आरंभ होता है जहाँ ये नियम झुकाये या तोड़े जाएँ। लेव टॉलस्टॉय निस्संदेह बुनिन के समान दोषरहित शैलीकार (स्टायलिस्ट) नहीं थे और उनके उपन्यासों में लालित्य और परिपूर्णता के उन लक्षणों का अभाव था जो बुनिन की कहानियों में पाए जाते हैं, लेकिन बुनिन को टॉलस्टाय से बड़ा लेखक नहीं माना जाता। टॉलस्टॉय को उनके भारी-भरकम, प्रायः अनावश्यक नीतिशास्त्रीय और बेडौल वाक्यों के लिए क्षमा नहीं किया जा सकता, लेकिन आप उन्हीं को मनुष्य के किसी रूप या लक्षण की तरह मान पसंद करने लगते हैं। जब किसी महान व्यक्ति का सामना होता है, आप उसे उसकी तमाम कमज़ोरियों के साथ स्वीकार कर लेते हैं, वे उनकी सौंदर्यात्मकता के विशिष्ट लक्षण बन जाते हैं।

    जब आप दोस्तोयेवस्की की कृति के बर-अक्स उनके चरित्र-चित्रण को निचोड़ें तो वे आपको व्यग्र करते हैं : जैसे, 'सुंदर', 'चमकीले', 'पीले चेहरे, आदि। लेकिन इस बात से दरअस्ल कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि आप किसी आम लेखक (प्रोफ़ेशनल) की या शिल्पकार की बात नहीं कर रहे बल्कि किसी कलाकार और चिंतक के विषय में विचार कर रहे होते हैं। टॉलस्टॉय को असीम आदर करने वाले बुनिन की नज़रों में अन्ना कैरेनिना ख़राब ढंग से लिखी पुस्तक थी, और, जैसा सर्वज्ञात है, उन्होंने उसे फिर से लिखने की कोशिश की—लेकिन पूरी तरह असफल रहे। कलाकृतियाँ, अपने तईं, ऐंद्रिक प्रक्रिया से रची होती है; अच्छी या बुरी हों पर वे रक्त-संचार की अपनी ही प्रणाली का सृजन है जिसे ज़रा भी अस्तव्यस्त करना अनुचित है।

    संपादन के लिए भी यही बात उचित है : यह हुनरमंद व्यक्ति की तरह तकनीकी-कौशल में दक्षता हासिल करने का नहीं, बल्कि अपने स्वयं की विशिष्ट वैयक्तिक अभिव्यक्ति की ओजस्वी ज़रूरत का सवाल है। सर्वोपरि, यह बख़ूबी जान लें कि कला की किसी अन्य विधा के ब-निस्बत आपने सिनेमा ही को क्यों चुना, और आप इसके सौंदर्यशास्त्र के द्वारा क्या कहना चाहते हैं। प्रसंगवश, हाल के वर्षों में रूस में या जहाँ ख़ूब मुनाफ़ा होता हो उस पश्चिम में, सिनेमा संस्थानों में बहुत बड़ी संख्या में युवा का प्रवेश 'जैसी मर्ज़ी वैसा करने’ की इजाज़त के साथ हुआ है। यह भयानक है। तकनीक की समस्याएँ तो बच्चों का खेल है; जितना चाहो सीख लो। लेकिन स्वतंत्र रूप से और पूरी योग्यता के साथ सोचना—कुछ करना सीखने या अपना व्यक्तित्व बना लेने जैसी कोई बात नहीं है। किसी के लिए बाधा नहीं कि वह ऐसा भार उठाए जो न सिर्फ़ मुश्किल बल्कि कभी-कभी बर्दाश्त ही के बाहर है; लेकिन इसके सिवा कोर्इ चारा नहीं, उसे तो समूचा होना है या कुछ नहीं। 
    वह आदमी जिसने इसलिए चोरी की कि दुबारा कभी नहीं करेगा, सदा के लिए चोर हो ही गया। जिसने कभी भी सिद्धांतों के साथ दग़ाबाज़ी की हो वह जीवन के साथ पवित्र संबंध क़ायम नहीं कर सकता। अतः यदि फ़िल्मकार कहे वह जीविकोपार्जनार्थ कृति का निर्माण करेगा ताकि अपने स्वप्न साकार करती फ़िल्म रचने के लिए ताक़त और साधन जुटा ले—तो यह बहुत बड़ा धोखा ही नहीं, आत्म-छलना है। वह फिर कभी अपनी फ़िल्म नहीं बना पाएगा।
    ‘‘कल बाट जोहती रही सुबह से,
    वे जान गए थे नहीं आओगे, भाँप गए थे।
    मालूम कैसा सुंदर दिन था वह?''


    छुट्टी का दिन! मुझे कोट की ज़रूरत न पड़ी।
    तुम आज आए, और ये
    रूख़ा मनहूस दिन निकला,
    ऊपर से बारिश, और देर भी ख़ूब हो चुकी
    ठंडी शाख़ाओं से टपटपाती बूँदें
    शब्द ढाढस दे पाता न रुमाल आँसू पोंछ पाता।”
    (आर्सेनी तारकोव्स्की : रूसी कवि। आंद्रे तारकोव्स्की के पिता। आंद्रे ने अपनी फ़िल्मों में कई जगह उनकी कविताओं को उद्धृत किया है।) 

     

    अनुवाद: इंदुप्रकाश कानूनगो (लेखक और अनुवादक। लैटिन अमेरिकी और यूरोपीय साहित्य के अनुवाद में योगदान।)  

    स्रोत :
    • पुस्तक : पटकथा
    • रचनाकार : आन्द्रेई तारकोवस्की
    • संस्करण : जून 1991

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