काल-सृजन फ़िल्म अभिनेता

kal srijan film abhineta

आन्द्रेई तारकोवस्की

आन्द्रेई तारकोवस्की

काल-सृजन फ़िल्म अभिनेता

आन्द्रेई तारकोवस्की

और अधिकआन्द्रेई तारकोवस्की

    जब मैं कोई फ़िल्म बनाता हूँ तब उसकी पूरी ज़िम्मेवारी मेरी ही होती है, यहाँ तक कि अभिनेताओं के प्रदर्शन (परफ़ॉर्मेंस) के लिए भी मैं ही ज़िम्मेवार हूँ। रंगमंच में बात अलग है—वहाँ उपलब्धियों और विफलताओं के लिए अभिनेता की ज़िम्मेवारी अत्यंत विशाल होती है। फ़िल्मांकन के वक़्त अभिनेता को आरंभ ही से निर्देशक की योजना की जानकारी होना नुक़सानदेह हो सकता है। भूमिका रचने में निर्देशक का दख़्ल अहम है, और वह अभिनेता को प्रत्येक भिन्न खंड में अपनी अदायगी की पूरी आज़ादी देता है, लेकिन ऐसी नहीं जो रंगमंच में संभव है। अगर फ़िल्म का अभिनेता स्वयं ही अपनी भूमिका तय करे, तो वह फ़िल्म की योजना और उद्देश्य के अंतर्गत निर्धारित की गई शर्तों के भीतर उपस्थित सहज और नैसर्गिक अदायगी के अवसर खो देता है। निर्देशक को अभिनेता के लिए सही मनोदशा प्रेरित करनी पड़ती है, और फिर इतना आश्वस्त होना होता है कि वह लगातार बनी रहे। अभिनेता को उपयुक्त मनोदशा में कई तरह से लाया जा सकता है—जो सेट की परिस्थितियों पर निर्भर होता है, आपके साथ काम कर रहे अभिनेता के व्यक्तित्व पर निर्भर होता है। निर्देशक को ऐसी मनोवैज्ञानिक अवस्था में रहना होता है जिसे गढ़ना असंभव है। फिर भी, निर्देशक कितना ही कठोर दिल क्यों हो, तथ्यों को ढँक नहीं सकता और सिनेमा के आग्रह में मनोदशा की ऐसी सच्चाई है जिसे वह छिपा नहीं सकता। निस्संदेह, दोनों ही की भूमिकाओं पर परस्पर विचार-विनिमय किए जा सकते हैं: निर्देशक पात्र की भावनाओं के प्रदर्शन की बनावट रचता है, अभिनेता उन्हें व्यक्त करते हैं या कदाचित, फ़िल्मांकन के दौरान अपने भीतर ऐसा महसूस करते हैं। सेट पर अभिनेता दोनों ही काम उसी क्षण नहीं कर सकता; लेकिन इसके विपरीत रंगमंच में जैसे-जैसे वह अपनी भूमिका अदा करता चलता है, उसे दोनों काम एक साथ करना अनिवार्य होता है। जबकि कैमरे के सामने खड़े अभिनेता को पूरे प्रामाणिक और तात्कालिक बोध के साथ नाटकीय स्थितियों द्वारा प्रस्तुत अवस्था में उपस्थित रहना होता है। फिर, जैसे ही कैमरे के सामने घटे सारे सीक्वेंस, विभिन्न अंश और रीटेक निर्देशक के हाथ में आए कि वह उन्हें अपने स्वयं के कलात्मक उद्देश्यों के अनुसार समूची गतिविधि के भीतरी तर्क को रचते हुए तारतम्य में जमा लेगा। रंगमंच के अंदर अभिनेता और दर्शक के बीच सीधे संपर्क का आकर्षण जितना ज़बरदस्त है उतना सिनेमा में क़तई नहीं होता। अतः सिनेमा कभी भी रंगमंच को खदेड़ नहीं सकता, सिनेमा अपनी अंतर्भूत क्षमता ही से उसी-उसी घटना को समय-समय पर पुनर्जीवित करता है, वह अपने स्वभाव से ही नॉस्टेल्जिक है। इसके विपरीत रंगमंच जीता है, विकसित होता है, रिश्ता बनाता है। वह, रचनात्मक स्फूर्ति के लिए, आत्मबोध की एक भिन्न विधि है।

    सिनेमा-निर्देशक कदाचित संग्राहक की तरह है। फ़िल्मी संरचनाएँ (Frames) उसकी प्रदर्शन वस्तुएँ हैं जो ख़ूब प्यार भरी तफ़सीलों के साथ विभिन्न अंशों और खंडों को अपरिमेय संख्या में दर्ज करते हुए ऐसे जीवन का गठन करते हैं कि एक अभिनेता, एक पात्र जिसका अंग हो सकता है और नहीं भी हो सकता है...! जैसा कि क्लीस्ट ने एक बार बहुत बल देकर कहा था कि रंगमंच में अभिनय बर्फ़ में शिल्पकारी की तरह है। हालाँकि प्रेरणा के क्षणों में अभिनेता अपने दर्शकों के साथ संप्रेषण स्थापित करने का आनंद प्राप्त करता है। एक साथ कला को रचते अभिनेता और दर्शक के सामंजस्य से विपुल उदात्तता उत्पन्न होती है। प्रस्तुति (परफ़ॉर्मेंस) तब तक ही क़ायम रहती है कि जब तक अभिनेता सर्जक के रूप में बना रहे, कि जब तक वह हो : यानी कि जब तक वह भौतिक और आत्मिक रूप से जीवंत हो। अभिनेता के बिना रंगमंच है ही नहीं।

    फ़िल्म अभिनेता के एकदम विपरीत, हर रंगमंचीय अभिनेता को अपने स्वयं के भीतर शुरू से आख़िर तक अपनी स्वयं की भूमिका निर्देशक के मार्गदर्शन में रचनी होती है। उसे अपनी भावनाओं का नाटक की सकल अवधारणा के अनुरूप एक नक़्शा-सा बनाना होता है। सिनेमा में पात्र की ऐसी आत्मविश्लेषी संरचना स्वीकार्य नहीं है; अपनी व्याख्या के तनाव, स्वर और लय के बाबत निर्णय लेना अभिनेता के ज़िम्मे नहीं है, क्योंकि उसे उन सारे अवयवों की जानकारी नहीं है जिससे पूरी फ़िल्म तैयार होगी। उसका उद्यम इसी में है कि वह जिए! और निर्देशक पर यक़ीन करे।

    निर्देशक अभिनेता के लिए उसके अस्तित्व के उन क्षणों को चुनता है जो फ़िल्म की अवधारणा को अत्यंत सही रूप में अभिव्यक्त करे। अभिनेता को स्वयं पर ज़ोर नहीं डालना चाहिए; उसे अपनी स्वयं की अतुलनीय, ईश्वर-प्रदत्त आज़ादी की उपेक्षा नहीं करना चाहिए।

    फ़िल्म बनाते वक़्त मैं अपने अभिनेताओं को बहस में थकाता नहीं, और मेरा यह आग्रह रहता है कि अभिनेता अपने द्वारा खेले जा रहे अंश को सकल फ़िल्म के साथ जोड़ कर देखे; यहाँ तक कि कभी-कभी अपने ही द्वारा खेले गए पहले या खेले जाने वाले बाद के अंश को भी ध्यान में रखे। मसलन, ‘मिरर’ के एक दृश्य में नायिका पति का इंतिज़ार करती है, दूसरी ओर बच्चों का पिता इंतिज़ार में सिगरेट के कश लगा रहा होता है। इस वक़्त मैंने यह चाहा कि मार्गरिता तेरेखोया को कथानक के बाबत कुछ पता चले; यह भी पता चले कि वह कभी उसके पास लौटेगा। कथा को उससे गुप्त रखा गया ताकि वह अवचेतन की किसी तरंग में उस पर प्रतिक्रिया करे, बल्कि उस क्षण ठीक मेरी माँ की तरह ही जिए, बिल्कुल माँ की तरह, उसके प्रतिमान की तरह जिए; माँ कभी जिस तरह जी थी (कि जिसे मालूम था आगे उसकी ज़िंदगी कैसी होगी) वैसा जिए। बेशक, अगर उसे यह पता चल जाता कि भविष्य में उसके पति के साथ उसका संबंध कैसा होगा तब दृश्य में उसका व्यवहार भिन्न हो जाता; केवल भिन्न होता बल्कि भावी परिणाम को जान लेने पर दूषित हो जाता। भविष्य में बर्बाद हो जाने की जानकारी निश्चित ही कथानक के उन आरंभिक तलों को खेलने में अभिनेत्री की अदायगी को प्रभावित कर देती। इस बिंदु पर भी (ऐसा जाने बग़ैर कि यह निर्देशक की इच्छा के विरुद्ध है) वह अपनी प्रतीक्षा की निरर्थकता के भाव का कुछ अंश प्रकट कर ही देती; और हम सब भी उसे महसूस करते; जबकि हमें यहाँ उस एक क्षण की विलक्षणता और अद्वितीयता अनुभव करना है कि जिसका उसकी शेष ज़िंदगी से कोई तअल्लुक नहीं।

    फ़िल्म में प्रायः ऐसा हो सकता है कि निर्देशक उन बातों पर ध्यान दे जो अभिनेता की इच्छाओं के विरुद्ध जा सकती है। इसके विपरीत, रंगमंच में हर दृश्य के बाबत उन सभी अनुमानों और कल्पनाओं के प्रति सचेत होना होता है जो पात्र का निर्माण करते हैं, और यही सही और स्वाभाविक तरीक़ा है। क्योंकि रंगमंच में चीज़ें तारतम्य में नहीं की जातीं, रंगमंच रूपक, लय और तालमेल के ज़रिये चलता है—उसकी अपनी ही काव्यात्मकता के ज़रिये। इसीलिए ‘मिरर’ के उस दृश्य में हमने चाहा कि अभिनेत्री उन क्षणों को वैसे ही अनुभव करे जैसे वह स्वयं की ज़िंदगी में ख़ुशी के साथ, पटकथा से अनभिज्ञ रहते हुए महसूस कर रही हो; अनुमान बिठा कर वह 'उम्मीद' लगाएगी, 'उम्मीद' छोड़ेगी और फिर से 'उम्मीद' बाँधेगी। अपने पति के इंतिज़ार के निश्चित साँचे के अंतर्गत अभिनेत्री को स्वयं की रहस्यात्मक ज़िंदगी का अंश प्रकट करना होगा, इस बात से बेख़बर बने रहकर कि भविष्य में वह उसे कहाँ ले जाएगा।

    फ़िल्म अभिनेता के लिए यह ध्यान देने की बात है कि वह विशेष परिस्थितियों में ऐसी मनोवैज्ञानिक अवस्था को अभिव्यक्त करे कि जो उसके स्वयं ही के लिए विशिष्ट हो। और ऐसा वह स्वभावतया करे, जो उसके बौद्धिक और भावनात्मक गठन के उपयुक्त हो और ऐसे रूप में करे जो केवल उसी के लिए सही हो। मुझे कोई ऐतराज़ नहीं वह उसे कैसे करे या किन तरीक़ों को उपयोग में ले—मुझे कोई अधिकार नहीं कि मैं उसके लिए अभिव्यक्ति का वह रूप तय करूँ जो उसका अपना ही मनोविज्ञान इख़्तियार करना चाहता है। हम में से हरेक व्यक्ति सामने आर्इ स्थिति को अपने-अपने तरीक़े से अनुभव करता है जो पूरी तरह वैयक्तिक है। कुछ लोग, जब वे उदास होते हैं अपनी आत्माओं को नंगा कर देते हैं, खुला कर देते हैं; जबकि कुछ लोग दुख को थामे, अंतर्मुखी बने रहते हुए, दूसरों से सारे संपर्क तोड़ अकेले पड़े रहना चाहते हैं।

    मैंने अक्सर अभिनेताओं को अपने निर्देशक के हाव-भाव और आचरण की नक़ल करते देखा है। मुझे ध्यान आता है कि सेजें गेरासिमोव से ज़बरदस्त प्रभावित वासिलि शुकशिन और शुकशिन के प्रखर निर्देशन से अभिभूत कुरावल्योव—दोनों ही ने अपने-अपने निर्देशकों की नक़ल की। मैं कभी नहीं चाहूँगा कि अभिनेता अपनी भूमिका के लिए मेरी शैली की नक़ल करे। फ़िल्मांकन के पूर्व जब उसने अपने भीतर यह स्पष्ट समझ लिया कि वह फ़िल्म की अवधारणा से पूरी तरह बँधा हुआ है, तब मैं चाहूँगा कि उसे खेलने की पूरी आज़ादी रहे।

    मौलिक, विलक्षण अभिव्यक्ति-क्षमता ही फ़िल्म अभिनेता का तात्विक लक्षण है, क्योंकि इससे कम ऐसा कुछ नहीं जो कि स्क्रीन पर मोहक हो पाए या सत्य को अभिव्यक्त कर सके।

    अभिनेता को उपयुक्त मनःस्थिति में लाने के लिए निर्देशक को स्वयं अपने ही को पात्र के साथ समान अनुभूति में लाना होता है। अदायगी (परफ़ॉर्मेंस) के लिए सही स्वर हासिल करने का अन्य कोई तरीक़ा नहीं है। मसलन यह संभव नहीं कि आप किसी अज्ञात मकान में जा अभ्यास (रिहर्स) किए हुए दृश्य का फ़िल्मांकन कर लें। मकान बिल्कुल अपरिचित हो और उसमें अजनबी रहते हों तो स्वाभाविक ही है कि वह मकान भिन्न संसार से आए पात्र की ऐसी कोई मदद नहीं करेगा जिससे वह स्वयं को अभिव्यक्त कर सके। निर्देशक का विशिष्ट उद्यम प्रत्येक दृश्य में मनःस्थिति के पूरे सत्य को हासिल करना होता है।

    भिन्न अभिनेताओं को भिन्न तरीक़ों से समझाना पड़ता है। तेरेखोवा को अपना पूरा पार्ट नहीं मालूम था और उसे उसने टुकड़ों में ही खेला। वह जानती थी कि मैं उसे पूरा पार्ट शुरू में ही नहीं बताऊँगा या उसकी व्याख्या नहीं करूँगा या उसको समझाऊँगा नहीं। वह बहुत क्षुब्ध हुई थी। लेकिन जिन अलग-अलग टुकड़ों को उसने खेला (तदनंतर एक ही चित्र में लाने के लिए जिन्हें मैंने कशीदाकारी की तरह चुना) वह उसी के अंत का परिणाम है। हमारे लिए साथ काम करना आसान नहीं था। उसे यह पूर्वानुमान लगाना मुश्किल हुआ कि मैं उसके काम के बाबत सोचते हुए (कि उसका पूरा काम कुल मिलाकर कैसा होगा) उसकी भूमिका समझ सकूँगा; दूसरे शब्दों में कहें कि उसे मुझ पर भरोसा करना मुश्किल लगा।

    मैं अनेक ऐसे अभिनेताओं के संपर्क में आया हूँ जो मुझ पर पूरा भरोसा नहीं रख सके कि मैं उनकी भूमिकाओं को 'पढ़' लूँगा क्योंकि किसी-न-किसी कारण से फ़िल्म के संदर्भ से स्वयं को अलग हटाते हुए वे अपनी ही भूमिका को निर्देशित करने का यत्न करते रहे। इस क़िस्म के अभिनेता को मैं घुलकर काम करने वाला (प्रोफ़ेशनल) नहीं मानता। वही अभिनेता उपयुक्त है जो खेल के वे सारे नियम आसानी से और स्वभावतया स्वीकार कर ले जो उस पर ज़रा भी ज़ोर डाले और किसी भी तात्कालिक स्थिति के प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं में सहज रहे। मैं ऐसे किसी भी अभिनेता के साथ काम करने में दिलचस्पी नहीं रखता जो सरलीकृत और चलताऊ काम के पार कोई भूमिका अदा नहीं करेगा। इस मामले में, दिवंगत सोलोनित्सिन अनातोलिय को मैं बहुत ही उज्ज्वल अभिनेता मानता हूँ—आज मुझे उसकी बहुत-बहुत याद आती है। बहरहाल मार्गरिता तेरेखोवा ने भी, उससे जो चाहा गया वह बात समझ ली और मुक्त होकर, सहजता से, बग़ैर किसी शर्त के निर्देशक के प्रयोजन पर विश्वास करते हुए अपनी भूमिका अदा की। ऐसे अभिनेता ही निर्देशक में शिशुवत विश्वास रखते हैं, और इस तरह के विश्वास को मैं अत्यंत प्रेरणास्पद मानता हूँ।

    अनातोली सोलोनित्सिन जन्मजात फ़िल्मी अभिनेता था जो अतिसंवेदनशील और विचारों में उत्तेजना उत्पन्न करने वाला कलाकार था। उसे भावनाओं से भरना सहज था ताकि सही मूड हासिल किया जा सके।

    क्यों? किसी बिम्ब में उभरी गुत्थी की कुंजी कौन-सी है? फ़लाँ बात के पीछे आइडिया क्या है?—ऐसे सवाल फ़िल्म के अभिनेता को बिल्कुल ही नहीं पूछने चाहिए; यह निहायत ज़रूरी है कि वह इन सवालों को क़तई नहीं उठाए जो रंगमंच में पारंपरिक और युक्तियुक्त रूप से उपयुक्त हैं (बल्कि रूस में तो उपयुक्त हैं ही कि जहाँ स्टानिस्लावस्की की लाइन पर रंगमंच अभिनेता तैयार हुए हैं)। यह मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य रहा कि तोल्या सोलोनित्सिन ने उस तरह के सवाल कभी नहीं पूछे (जो मेरे लिए नितांत ऊल-जलूल हैं) क्योंकि उसे रंगमंच और सिनेमा के बीच के भेद की जानकारी थी। निकोलाई ग्रिन्को ने भी नहीं पूछे जो अभिनेता की तरह भी और एक मनुष्य की तरह भी सहृदय और भद्र है—मैं उसे बहुत चाहता हूँ। उसमें शालीन आत्मा वास करती है, वह सूक्ष्म नज़र और गहरी समझ रखने वाला आदमी है।

    एक बार रेने क्लैयर से पूछा गया कि वह अपने अभिनेताओं के साथ किस तरह काम करता है; उसने जवाब दिया कि वह उनके साथ काम नहीं करता, सिर्फ़ उन्हें वेतन देता है। कई लोगों को इस टिप्पणी के पीछे दंभी सनक दिखाई देगी (और इसी तरह अनेक रूसी समीक्षकों ने प्रतिक्रिया भी दी) लेकिन इसी टिप्पणी ही के भीतर अपने हुनर में पारंगत प्रोफ़ेशनल (कुशल कलाकार) के प्रति अनन्य सम्मान छिपा है। निर्देशक को ऐसे व्यक्ति के साथ काम करना अनिवार्य होता है जो अभिनेता होने के कतई योग्य हो। मसलन ‘एवेंचुरा’ में अन्तोनिओनी अपने अभिनेताओं के साथ जिस तरह काम करते हैं, उस बाबत हम क्या कहें? या ‘सिटिज़न कैन’ में आर्थर वैल्स? जिस बात के प्रति हमें सचेत होना चाहिए वह है पात्र की विलक्षण दृढ़ता, लेकिन हम सिने-स्क्रीन के लिए इस अद्भुत दृढ़ता को गुणात्मक रूप से भिन्न कहेंगे क्योंकि इसके सिद्धान्त वे नहीं जो अभिनय को रंगमंचीय अर्थ में अभिव्यंजना प्रदान करते हैं।

    यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं डोनाटास बेनिओनिस के साथ ठीक से पटरी नहीं बिठा पाया (जिसने सोलारिस में प्रमुख भूमिका निभायी है)। उसे विश्लेषणपरक बुद्धि वाले पात्रों के वर्ग में रखना उचित होगा जो 'क्यों' और ‘किस लिए’ जैसे प्रश्नों को जाने बग़ैर अभिनय नहीं कर सकता। वह अपने ही भीतर से स्वतःस्फूर्त अभिनय नहीं कर सकता। उसे पहले ही से अपनी भूमिका तय करना ज़रूरी मालूम पड़ता है, विभिन्न घटना-चक्रों (सीक्वेंसेज़) के बीच संबंधों को जानना होता है, दूसरे अभिनेता क्या कर रहे हैं यह जानना होता है (अपने ही दृश्य में नहीं बल्कि पूरी फ़िल्म में)—वह निर्देशक से सब कुछ अपने हाथ में ले लेना चाहता है। अनेक वर्ष उसने रंगमंच में बिताए, उसका ही यह परिणाम है। उसके ज़ेहन में यह नहीं उतरता कि सिनेमा में अभिनेता को यह जानना क़तई ज़रूरी नहीं कि समूची फ़िल्म क्या रूप लेगी। लेकिन सर्वश्रेष्ठ निर्देशक भी, जिसे भली-भाँति ज्ञात हो कि उसे क्या चाहिए, वह भी फ़िल्म के अंतिम संपूर्ण रूप की शायद ही पूर्व-कल्पना कर पाता है। बहरहाल डोनाटास वास्तव में बहुत अच्छा अभिनेता था और मैं उसके प्रति आभारी ही हो सकता हूँ क्योंकि अन्य किसी कलाकार के ब-निसबत उसने ही उस भूमिका को सर्वश्रेष्ठ ढंग से खेला; हालाँकि बात बहुत सरल नहीं थी।

    बहुत ज़्यादा विश्लेषणपरक बुद्धि वाले दिमाग़-चलाऊ अभिनेता को हमेशा मुग़ालता रहेगा कि वह जान सकता है कि फ़िल्म क्या शक्ल इख़्तियार करेगी। पटकथा के अध्ययन से उसे फ़िल्म के अंतिम रूप की पूर्व-कल्पना के लिए ज़ोरदार दिमाग़ी मशक़्क़त करने की इच्छा तो हो ही जाती है। इस बात का मन से अनुमान लगा लेने पर कि फ़िल्म अंततः कैसी होगी, अभिनेता अंतिम स्वरूप को खेलने लगता है—यानी भूमिका के बाबत अपनी अवधारणा के आधार पर अभिनय करने लगता है; ऐसा कर वह फ़िल्मी बिम्ब के सृजन के मूल सिद्धांत को ही नकार देता है। जैसा मैंने पूर्व में ही बताया कि निर्देशक को हरेक अभिनेता के लिए भिन्न रवैया इख़्तियार करने की ज़रूरत होती है; यहाँ तक कि प्रत्येक नए पार्ट में उसी एक ही अभिनेता के लिए भिन्न रवैया अपनाने की ज़रूरत पड़ सकती है। निर्देशक को स्वयं ही अन्वेषक होना होता है ताकि वह अभिनेता से सब कुछ वैसा करवा ले जैसा उसे चाहिए। घड़ियाल ढालने वाले लड़के बोरिस्का के रूप में कोल्या बुर्ल्याएव मेरे साथ दूसरी बार काम कर रहा था (‘इवान्स चाइल्डहुड’ में वह मेरे साथ पहले काम कर चुका था)। फ़िल्मांकन के दौरान कई बार अपने सहायक निर्देशक के ज़रिये मुझे उसे कहलवाना पड़ा कि मैं उसके काम से असंतुष्ट हूँ और उसकी पूरी भूमिका को किसी दूसरे अभिनेता के ज़रिए फ़िल्मांकित करने को मजबूर हो सकता हूँ। मैंने चाहा उसके सिर पर तलवार लटकी रहे ताकि वह सच में ही असुरक्षित महसूस करे। बुर्ल्याएव बेहद बिखरा-बिखरा, उथला और आडम्बरप्रिय अभिनेता है। उसका अपने मनोभावों को भभककर प्रकट करना कृत्रिम है। उसके लिए मुझे इतने सख़्त उपाय लागू करना ज़रूरी हुआ, फिर भी उसकी अदायगी ईर्मा रॉश सोलोनित्सिन, ग्रिन्को, बेशेनागिएव, नाज़ारोव जैसे मेरे अन्य प्रिय अभिनेताओं जैसी नहीं रही (लेपिकोव की अदायगी भी अन्य अभिनेताओं जैसी नहीं थी; कायरिल ने फ़िल्म की अवधारणा के बाहर अभिनय करने के बाबत अपनी ही अवधारणा को अभिनीत करते हुए और दूसरों के मन को भाए, ऐसा अभिनय करते हुए अपनी भूमिका नाटकीय ढंग से अदा की)।

    ज़रा हम बर्गमैन की फ़िल्म शेम पर ग़ौर करें। फ़िल्म में अदाकार के लिए ऐसा कोई अभिनय का टुकड़ा नहीं जो निर्देशक के उद्देश्य को त्याग दे, या कि वह परसोना (दूसरे के मन को भाए, ऐसी अदायगी) की अवधारणा को खेले, या कि परसोना के प्रति अपनी प्रवृत्ति दर्शाने या कि फ़िल्म के बाबत सकल विचार (आइडिया) के संदर्भ में उसका मूल्यांकन करे; जबकि सकल विचार (आइडिया) जो है वह तो पात्रों की ज़िंदगियों की गत्यात्मकता के भीतर पूरी तरह विलोपित है, उसके साथ एकाकार है। फ़िल्म में लोग परिस्थितियों द्वारा कुचले जाते हैं; वे अपनी उन स्थितियों के अनुसार ही अभिनय करते हैं कि वे स्वयं ही जिनके मातहत हैं; वे हमें कोई विचार परोसने का प्रयास नहीं करते, जो हो रहा है उसका कोई पहलू नहीं बताते। सब कुछ फ़िल्म के निर्देशक की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है। फिर देखिए, वह कितने बेहतरीन तरीक़े से चरितार्थ होता है! आप दावे से नहीं कह सकते उनमें से कौन अच्छा, कौन बुरा है। मैं नहीं कह सकता कि वॉन सीडो बुरा आदमी है। वे अंशतः अच्छे और अंशतः बुरे हैं, अपने-अपने तरीक़े से कोई निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते क्योंकि किसी भी अभिनेता में सोद्देश्यता की ओर कोई इशारा नहीं होता; फ़िल्म की परिस्थितियाँ निर्देशक के द्वारा उपयोग में ली जाती हैं ताकि धार पर खड़ी मानवीय संभावनाओं की छानबीन की जा सके, लेकिन वे किसी सिद्धान्त को दर्शाने के लिए एक पल भी इस्तेमाल नहीं होती हैं।

    मैक्स वॉन सीडो का चरित्र अत्यंत प्रभावशाली दक्षता के साथ विकसित हुआ। वह एक अच्छा आदमी है—सहृदय और संवेदनशील संगीतज्ञ; होता यह है कि वह कायर सिद्ध होता है। लेकिन हर मज़बूत आदमी भला हो, यह ज़रूरी नहीं और सभी कायर सदैव ही बदमाश नहीं होते हैं। बेशक मैक्स कमज़ोर और ढुलमुल है। उसकी पत्नी उससे कहीं ज़्यादा मज़बूत है, इतना कि वह अपने घर को जज़्ब कर लेती है। नायक में उस शक्ति की कमी है। वह अपनी ही कमज़ोरी से, नाज़ुकी से, स्फूर्तिहीनता से उत्पीड़ित है जिसे वह छिपाने की कोशिश करता है, किसी कोने में दुबकना चाहता है, सुनना चाहता है देखना चाहता है; और ऐसा वह शिशुवत करता है, नवसिखुए की तरह और पूरी ईमानदारी के साथ। लेकिन बहरहाल जब परिस्थितियाँ उसे स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए बाध्य नहीं कर रही होती हैं, वह बदमाश आदमी की शक्ल में बदल जाता है। स्वयं जो सर्वश्रेष्ठ होता है उसे वह खो देता है; लेकिन उसकी स्थिति की नाटकीयता और एब्ज़र्डिटी ऐसी है कि वह पत्नी के लिए अनिवार्य हो जाता है लेकिन दूसरी ओर उसकी पत्नी के लिए यह अनिवार्य होता है कि पति की ओर सुरक्षा के लिए देखे; नफ़रत की बजाय वह उसकी सहायता करती है (जैसा कि वह करती आई थी)। जब वह उसको थप्पड़ मारकर कहता है—गेट आउट; वह उसके पीछे घिसटती चलती है। यहाँ पर वर्षों पुराना एक विचार है; निष्क्रिय अच्छाई और सक्रिय बुराई का : लेकिन उसकी अभिव्यक्ति वृहत रूप से जटिल है। फ़िल्म के आरंभ में नायक एक मुर्ग़ी तक को नहीं मार सकता लेकिन जैसे ही उसने स्वयं पर आत्मनिर्भर होना जान लिया, वह क्रूर सनकी आदमी बन जाता है; वह कुछ-कुछ हेमलेट सा है। मेरा ऐसा ख़याल है कि डेनमार्क का राजकुमार द्वंद्व-युद्ध के बाद शारीरिक रूप से मरने पर नहीं, बल्कि चूहे वाले दृश्य (Rat Scene) के एकदम बाद ही (यह जान लेने पर कि ज़िंदगी के नियम इतने अपरिवर्तनीय है; उसे, यानी मानवता और बौद्धिकता के आदमी को एल्सिनोर में निवास करते मामूली लोगों की हरकतों के समान कृत्य करना होता है) वह नष्ट हो चुका होता है। वॉन सीडो अब तक दुष्ट पात्र है, जो किसी से डरता नहीं, हत्या करता है; जबकि अपने सहयोगियों के बचाने के लिए उँगली तक ऊँची नहीं करता, केवल अपने स्वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन मुद्दा यह कि आपको एक ईमानदार आदमी बनना है, ख़ून करने और क्लेश पहुँचाने से दूर रहना है। लेकिन महज़ डर से मुक्त हो साहस हासिल किया दिखाई देने का यह अर्थ हुआ कि आदमी अपनी आध्यात्मिक ताक़त, बौद्धिक ईमानदारी और कोमलता के अंश खो देता है। युद्ध जो है वह लोगों के निर्दयी और अमानवीय तत्वों का प्रत्यक्ष उत्प्रेरक है। बर्गमेन अपनी फ़िल्म ‘थ्रू ग्लास डार्कली’ में मनुष्य के बाबत अपने विचार की छानबीन करने के लिए युद्ध के दृश्यों का बिल्कुल उसी तरह इस्तेमाल करते हैं जिस तरह नायिका की बीमारी के दृश्य को उपयोग में लेते हैं।

    बर्गमैन अपने अभिनेताओं को उन परिस्थितियों से ऊपर उठा हुआ होने का मौक़ा नहीं देते जिसमें पात्र स्थित हों, और इसलिए वे इतना बेहतरीन परिणाम हासिल करते हैं। सिनेमा के निर्देशक के लिए ज़रूरी होगा वह अभिनेता को जीवंत बनाए, अपने विचारों का प्रवक्ता मात्र नहीं।

    बेशक मुझे पहले से कभी ज्ञात नहीं होता कि मैं किन अभिनेताओं को काम में लूँगा (केवल सोलोनित्सिन को छोड़कर : वह मेरी सारी फ़िल्मों में काम करता आया है और मैं उसे बहुत मान देता हूँ)। ‘नॉस्टेल्जिया’ की पटकथा उसे ही दिमाग़ में रखकर लिखी गई थी और यह प्रतीकात्मक लगता है कि अभिनेता की मृत्यु जो हुई, उसने मेरे कलात्मक कैरियर को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया : पहले भाग में वह सब कुछ है जो मैंने रूस में रहते किया और दूसरे में वह सब जो मैंने रूस छोड़ने के बाद किया और करूँगा।

    अभिनेता का चुनाव लंबा और कष्टसाध्य सिलसिला है। फ़िल्म की पटकथा के आधे फिल्मांकन हो जाने तक भी आप निश्चित नहीं रहते कि आपने सही चुनाव किया। मैं कुछ आगे बढ़कर यूँ भी कह दूँ कि मेरे लिए पूरे भरोसे के साथ यह मान लेना बहुत मुश्किल बात रही कि मैंने ऐसे सही अभिनेता का चुनाव कर लिया जिसका व्यक्तित्व मेरी योजना के संगत है।

    निस्संदेह मुझे मेरे सहयोगियों की बड़ी सहायता मिली। ‘सोलारिस’ के निर्माण की तैयारी के वक़्त लारिसा पावलोवना तारकोवस्क्या (मेरी पत्नी, जो सदैव मेरी सहायक रही) स्नाउट की भूमिका खेलने के लिए उपयुक्त कलाकार को खोजने लेनिनग्राड गई और जब लौटी तो एक अद्भुत एस्तोनियन अभिनेता यूरी यारवेत को साथ लाई, जो उन दिनों ग्रिगारी कोजीनित्सेव के लिए किंग लिअर में अभिनय कर रहा था।

    हम जानते थे कि स्नाउट खेलने वाले अभिनेता में नवसिखुवाईपन, भीरूता और सनकीपन की अभिव्यक्ति के गुण होना चाहिए। हमने देखा अद्भुत नीली आँखों वाला यूरी यारवेत हमारी कल्पना के बिल्कुल संगत उतरा (बाद में मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने उसे उसकी भूमिका के अंतर्गत रूसी भाषा में बोलने को क्यों बाध्य किया? हालाँकि उसके बावजूद भी तो उसकी आवाज़ को डब किया जाना ही पड़ा; जबकि अगर वह एस्तोनियन ही में बोला होता तो ज़्यादा सहज हो कर अभिनय करता जिससे बहुत सुंदर वैविध्य और रंगीनी उत्पन्न होती)। उसकी अधकचरी रूसी बोली ने बड़ी दिक़्क़त पैदा की; फिर भी मैं उसके साथ काम करने से बहुत ख़ुश हुआ; वह अव्वल दर्जे का अभिनेता है और ऐसे अंतर्बोध से शराबोर जो अलौकिक है।

    ऐसा अवसर मुझे याद है जब हम एक दृश्य की तैयारी (रिहर्स) कर रहे थे और मैंने उससे कहा कि अपना अभिनय पुनः दोहराए लेकिन थोड़ा मूड बदल कर और कोशिश करे कि वह थोड़ा उदास-सा हो; उसने बिल्कुल वैसा ही किया जैसा हम चाहते थे और जब दृश्य ख़त्म हुआ उसने अपनी अनगढ़ रूसी में पूछा, थोड़ा उदास मूड से आपका क्या मतलब था?

    सिनेमा और रंगमंच के दर्मियान एक ख़ास फ़र्क़ और भी है। स्क्रीन पर निर्देशक की फ़िल्म शिल्पकारी द्वारा कलात्मक अन्विति में ढलकर रचा व्यक्तित्व दर्ज होता है, जबकि रंगमंच में अभिनेता के लिए सैद्धांतिक प्रश्न ज़्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि : प्रत्येक वैयक्तिक अदायगी (परफ़ॉर्मेंस) का आधार प्रस्तुति की समग्र अवधारणा के संदर्भ में तय करना होता है; पात्रों की गतिविधियों और पारस्परिक क्रियाकलापों की रूपरेखा को एवं नाटक के पूरे दौर चलते कार्य व्यापार और प्रयोजन की बानगी (पैटर्न) को विकसित करना होता है। जबकि सिनेमा में उस क्षण की मनःस्थिति का सत्य ही महत्वपूर्ण होता है। लेकिन यह है कितना मुश्किल? अभिनेता द्वारा दृश्य में अपनी ही ज़िंदगी जीने को नहीं रोक पाना कितना मुश्किल होता है; अभिनेता की मनोवैज्ञानिक अवस्था की आत्यंतिक गहराइयों तक पैठ लगाना (उस तल तक पैठ लगाना कि जिससे पात्र में स्वयं को अभिव्यक्त करने के अत्यंत प्रभावशाली एवं विशद साधन उत्पन्न हो सकें) कितना मुश्किल होता है?

    चूँकि सिनेमा सदैव ही रिकॉर्ड किया हुआ यथार्थ है, अतः मैं अभिनीत पदार्थ की 'वृत्तचित्रात्मकता' (Documentality) के बाबत बहस से बड़ा परेशान होता रहा हूँ जो सातवें और आठवें दशक में वृहत् विस्तार पा चुकी थी।

    नाटकीय ज़िंदगी वृत्तचित्रात्मक (डॉक्युमेंटरी) नहीं हो सकती। अभिनीत फ़िल्म में यह बहस शामिल हो सकती है बल्कि होना ही चाहिए कि निर्देशक ने कैमरे के सामने ज़िंदगी को किस तरह संगठित किया, लेकिन बहस में यह शामिल नहीं हो सकता कि कैमरामैन ने कौन-सी विधि या उपाय इस्तेमाल में लिया। मसलन ओतार योसेलियानी अपनी फ़िल्म पतझड़ (फॉलिंग लीव्ज़) के बाद मैना (सांगथ्रश) और फिर ग्राम्यगीत (पेस्टोरेल) तक पहुँचते बहुत सधे क़दमों से ज़िंदगी के नज़दीक पहुँचता है—उसे उत्तरोत्तर ज़्यादा ही समीपता से 'पकड़ते' हुए। कोई अत्यंत सतही, असंवेदनशील और रूपवादी समीक्षक ही वृत्तचित्रात्मक विवरण के दलदल में इतना फँसा हो सकता है कि वह उस काव्यात्मक कल्पनाशीलता की उपेक्षा कर दे जो योसेलियानी की फ़िल्मों को इतना अद्भुत सुंदर बनाते हैं। और मेरे लिए इस बात पर ग़ौर करना बिल्कुल गौण होगा कि उसका कैमरा (इस मायने में कि वह किस प्रकार फिल्मांकित करता है) वृत्तचित्रात्मक है या काव्यात्मक। जैसा कहा गया कि हर कलाकार अपने ही हाथ से खाता है। अतः पेस्टोरेल के रचयिता के लिए 'किसी धूल भरी सड़क पर दौड़ती टुक' या 'अपने विराम-घरों में से निकल घूमने जाते लोगों' के दृश्यों को कैमरे में 'पकड़ने' से ज़्यादा मूल्यवान और कोई बात नहीं हो सकती; यों वे ऐसे दृश्य है जो अपने आप में ज़रा भी महत्वपूर्ण नहीं लेकिन अत्यंत सतर्कता और सूक्ष्मता से देखे जाने पर बेहद काव्यात्मक सौंदर्य पा जाते हैं। इन बातों के विषय में वह उन्हें रोमांचकारी या आडम्बरी बनाए बिना ही कुछ कहना चाहता है। अपनी विषयवस्तु के प्रति उसके प्रेम की यह अभिव्यक्ति निस्संदेह 'रोमांस अबाउट लवर्स' में कोंचालोवस्की द्वारा प्रस्तुत ऊँचे-सुर की कृत्रिम काव्यात्मक धुन की ब-निस्बत कहीं ज़्यादा प्रामाणिक है। फ़िल्म (रोमांस अबाउट लवर्स) में कुछ ऐसा पाखंडी स्वर मिलेगा जो किसी अजीब शैली (ज़ोनरे) के उन नियमों के संगत बैठेगा जिन्हें निर्देशक ने समूचे फ़िल्मांकन के दौरान तेज़ आवाज़ों और स्थूल आकारों में विचारकर लगातार गढ़ा और हर पल उनका हवाला दिया। नतीजतन फ़िल्म के मौलिक स्वरूप के बाबत सब कुछ जड़, असहनीय स्तर पर आडम्बरी और बिखरा-बिखरा है। कोई भी शैली जानबूझकर थोपी गर्इ किसी ऐसी आवाज़ के इस्तेमाल को उचित नहीं ठहरा सकती जो उन चीज़ों के बारे में कि वह जिनकी परवाह नहीं करता, बताने के लिए भी उसकी स्वयं की हो। यहाँ बड़ी भूल हो जाएगी अगर हम योसेलियानी में नीरस गद्य (Prose) देखें और कोन्चालोव्स्की में उच्चस्तरीय काव्य। इतना ही कह सकते हैं कि योसेलियानी में काव्यात्मकता उसी बात में गुँथी मिलेगी जिसे वह प्यार करता है, किसी ऐसे क्षुद्र-रोमानी विश्व-दर्शन को प्रतिपादित करने के लिए स्वप्न-सी किसी बात में नहीं...।

    निशान और लेबल लगाने में मुझे बड़ी बेचैनी होती है। मसलन जहाँ तक मैं समझता हूँ, बर्गमैन की ‘प्रतीकात्मकता’ के विषय में कैसे बात की जा सकती है? प्रतीकात्मक तो क़तई नहीं, बल्कि वह मुझे किसी जैव-तात्विकता (Biological naturalism) का सहारा लिए बिना मानवीय जीवन के बाबत स्वयं के द्वारा महत्वपूर्ण समझे गए आध्यात्मिक सत्य तक पहुँचता कलाकार मालूम देता है।

    मुद्दे की बात यह कि निर्देशक के काम की गहराई और अहमियत इन्हीं शर्तों से परखी जा सकती है जो जानने का अवसर दें कि वह क्या है जिसने उसे किसी चीज़ का फ़िल्मांकन करने की ओर रुझाया—वही प्रेरणा ही निर्णायक है, साधन और विधि तो प्रासंगिक हैं।

    निर्देशक जिस बात से सरोकार रखता है वह है अपने ही स्वयं के विचारों का बेझिझक आग्रह; कौन-सा कैमरा इस्तेमाल में ले यह उसकी मर्ज़ी की बात है। शैली बौद्धिक है या वृत्तचित्रात्मक—यह प्रश्न गौण है क्योंकि वृत्तचित्रात्मकता और वस्तुपरकता का कला में कोई स्थान नहीं। वस्तुपरकता तो रचयिता की ही हो सकती है। अतः वह आत्मपरक है; यहाँ तक कि जब वह किसी न्यूज़रील ही का संपादन कर रहा हो तब भी आत्मपरक ही है।

    मेरी राय में, अगर फ़िल्म अभिनेता केवल जस-की-तस स्थिति को ही खेलें जो चाहे अवसादमय-हास्य (Tragi-comedi) हो, चाहे प्रहसन (Farce) हो, चाहे सनसनीख़ेज़ प्रस्तुति (Melodrama) हो, चाहे जो हो कि जिसमें अभिनेता की अदायगी (परफ़ॉर्मेंस) अतिशयोक्तिपूर्ण ही हो, तो क्या? सारी बात यह कि सिनेमा में रंगमंचीय शैली का थोक आयात किसी- न-किसी तरह की संदेहास्पद प्रक्रिया है। रंगमंच के रीति-रिवाज बहरहाल किसी दूसरे पैमाने पर खरे उतरते हैं। उमूमन, सिनेमा में 'शैली' (ज़ोनरे) बाबत कोई विचार उन कमर्शियल फ़िल्मों की चर्चा को बीच में घसीट ही लाता है जो पात्रों की ग़लत-फ़हमियों और किंकर्तव्यमूढ़ता से उत्पन्न हास्य (सिचुएशन-कॉमेडी) हैं, मार-धाड़ वाली फ़िल्में (वेस्टर्न) हैं, मनोवैज्ञानिक नाटक हैं, मेलोड्रामा हैं, संगीत-प्रधान फ़िल्में हैं, जासूसी फ़िल्में हैं, आतंक और सनसनीखेज़ फ़िल्में हैं। इन सब का कला से क्या तअल्लुक? इनका तअल्लुक भीड़ जुटाने वाले मीडिया ('मास मीडिया') से है; वे भीड़ की खपत ('मास कंज़्यूमर्स') के लिए हैं। खेदजनक यह कि इन्हीं रूपों में सिनेमा आज बसा हुआ है—ऐसे रूप जो बाहरी संसार से उस पर भली-भाँति सार्वभौमिक स्तर पर थोप दिए गए हैं और उसकी वजह व्यापार (कमर्शियल) है। सिनेमा के बाबत केवल एक ही तरीक़े से सोचा जा सकता है और वह हैः काव्यात्मक तरीक़ा। इसी रुख़ से यह संभव है कि असंगत और विरोधाभासी तत्वों का निराकरण किया जा सके और सिनेमा को सर्जक के विचारों और भावनाओं के अनुकूल बनाया जा सके। क्या चैपलिन को कॉमेडी कलाकार कहें? नहीं, चैपलिन तो चैपलिन ही हैं—शुद्ध रूप में सरल चैपलिन; एक ऐसा विलक्षण फिनामन जो कभी भी दोहराया नहीं जा सकता। वह निख़ालिस 'अतिशयोक्ति' (हाइपर्बली) है; सर्वोपरि पर्दे पर उपस्थिति दर्ज कर वह हर पल अपने नायक के कलात्मक आचरण के ज़रिये हमें आश्चर्यचकित करता है। अत्यंत बेढब (एब्ज़र्ड) स्थिति में चैपलिन पूरी तरह स्वाभाविक होता है और इसीलिए वह इतना हास्यमय है। उसका नायक अपने चारों ओर बसे अतिशयोक्तिपूर्ण संसार की और उसके अनोखे तर्क की भी परवाह करता मालूम नहीं देता। चैपलिन इतना क्लैसिक है, अपने आप में इतना संपूर्ण है कि तीन सौ वर्ष दिवंगत हुआ माना जा सकता है।

    इससे ज़्यादा बेतुका या संदेहास्पद क्या होगा कि कोई आदमी, चाहे अनजाने ही, अपनी मेज़ पर रखी सेवइयों के साथ छत से लटकी काग़ज़ की झंडियों को भी खाने लगे? लेकिन चैपलिन द्वारा दर्शाया गया यह दृश्य जीवंत और स्वाभाविक लगता है। मालूम कि सारी चीज़ गढ़ी हुई और अतिरेक से बतार्इ जा रही है। लेकिन फिर भी, अतिशयोक्ति (हाइपर्बली) अपनी प्रस्तुति (परफ़ॉर्मेंस) में पूरी तरह स्वाभाविक है और मुम्किन भी, अतः प्रामाणिक है और अद्भुत हास्य से भरपूर! वह भूमिका 'खेलता' नहीं है। वह उन मूर्खतापूर्ण स्थितियों को उनके अपने ही किसी स्वभावगत अंश में जीता है।

    फ़िल्म अभिनय का स्वभाव विशिष्टतया सिनेमा ही के लिए उपयुक्त है। निस्संदेह हरेक निर्देशक अपने अभिनेताओं के साथ भिन्न तरीक़े से काम करता है, जैसे कि फेलिनी के अभिनेता ब्रेसाँ के अभिनेताओं से क़तई अलग हैं, क्योंकि प्रत्येक निर्देशक को भिन्न मानव-प्ररूपों (ह्यूमन टाइप) की ज़रूरत होती है।

    अगर हम प्रोतोज़ानोव की मूक फ़िल्मों की ओर देखें (जो अपने समय में अत्यंत लोकप्रिय हुईं) तो हम अभिनेताओं के द्वारा रंगमंचीय रीति-रिवाज को थोक रूप में अपनाने को, पुरानी पड़ चुकी पिटी-पिटाई रंगमंचीय उक्तियों के अवाध उपयोग को, अपनी अदायगी (परफ़ॉर्मेंस) के मूड के लिए ताक़त लगाने और ज़ोर डालने के अनेक तरीक़ों को देखकर अत्यंत लज्जित महसूस करते हैं। कॉमेडी में ख़ूब हँसोड़ दिखाई देने के लिए वे ज़बरदस्त प्रयास करते हैं; नाटकीय स्थितियों में अभिव्यंजना भरने के लिए वे ख़ूब मशक़्क़त करते हैं; और जितनी सख़्त कोशिश वे करते हैं उतने ही पारदर्शी होते जाते हैं; यह बिल्कुल ग़लत है। वक़्त बीतते स्पष्ट होता जाता है कि उनकी ‘विधियाँ’ खोखली हैं। उस काल की अधिकांश फ़िल्में पुरानी पड़ गर्इं क्योंकि तब के अभिनेताओं ने सिनेमा निर्माण की विशिष्ट ज़रूरत को पहचाना नहीं, इसीलिए उनकी अपील (आकर्षण) इतनी अल्पायु रही।

    दूसरी ओर, ब्रेसाँ के अभिनेता उतने जीर्ण-शीर्ण नहीं हुए; वे सिर्फ़ उतने ही पुराने पड़े कि फ़िल्में स्वयं ही जितनी पुरानी हुईं। उनकी अदायगी (परफ़ॉर्मेंस) में पहले ही से सधा-सधाया या विशिष्ट कुछ नहीं, सिवाय मानवीय चेतना के उस प्रबल सत्य के कि जो निर्देशक द्वारा परिभाषित किया गया। वे दूसरों के मन भाए—ऐसी भूमिकाएँ (Parsonae) नहीं खेलते बल्कि भीतरी ज़िंदगी को हमारी आँखों के सामने प्रस्तुत करते हैं। इसी तरह मॉशेती भी है जो दर्शकों की प्रतिक्रिया को क़तई मद्देनज़र नहीं रखती, या कि उसके साथ जो कुछ घट रहा हो उन बातों की पूरी ‘गहराइयों’ को दर्शकों के समक्ष व्यक्त करने के लिए ज़रा-से भी प्रयास का नहीं सोचती। वह दर्शकों को बिल्कुल भी नहीं 'जताती' कि वह कितनी बुरी अवस्था में है; क़तई नहीं। वह ऐसी भी नहीं दिखाई देती जैसे संदेह प्रकट कर रही हो कि उसकी भीतरी ज़िंदगी देखी-परखी जा सकती या साक्ष्य बन सकती है। वह अपने जीवन और अस्तित्व के संकुचित, सघन संसार के भीतर, उसकी गहराई नापते हुए जीती है। उसके आकर्षण का यही कारण है, और निस्संदेह वर्षों बाद भी फ़िल्म उतनी ही अद्भुत रहेगी जितनी उसके प्रथम प्रदर्शन के वक़्त रही। ड्रेयर की मूक फ़िल्म 'जोन ऑफ आर्क' ने भी हमें हमेशा उतने ही शक्तिशाली ढंग से प्रभावित किया। दरअसल लोग अनुभवों से नहीं सीखते; आज के निर्देशक प्रस्तुति की ऐसी शैलियाँ (स्टाइल) इस्तेमाल करते हैं जो प्रत्यक्षतया अतीत से संबद्ध हैं। यहाँ तक की लारिसा शेपित्को की ‘आरोहण’ (Ascent) भी मुझे मुखर (एक्सप्रेसिव) होने की हठ से बिगड़ गर्इ हुई मालूम होती है। परिणाम यह कि उसकी 'दंतकथा' (Parable) में केवल सतही अर्थ रह जाता है। अतः जैसा प्रायः होता है, दर्शकों में हलचल उत्पन्न करने का उसका प्रयास पात्रों की भावनाओं पर अतिरंजित दबाव डालता है। लगता है जैसे वह यूँ डर गई हो कि कहीं ऐसा हो उसे ठीक से समझने में ग़लती हो जाए, सो उसने अपने पात्रों को छिपे सोल के ऊँचे जूते पहना दिए। यहाँ तक कि प्रकाश संयोजन भी इतना इशारा करते विन्यस्त हैं कि वह प्रस्तुतियों में 'अर्थ' को पिरोती हैं। दुर्भाग्य से प्रभाव आडम्बरपूर्ण और झूठा होता है। दर्शकों को इस तरह ख़ुश करने की ख़ातिर कि वे पात्रों के प्रति भावुक बनें, अभिनेताओं को अपना दृश्य दर्शाने को कहा जाता है। सब कुछ वास्तविक जीवन से भी ज़्यादा ही दुखदायी, ज़्यादा ही यातनामय होता है—यहाँ तक कि यंत्रणा और वेदना भी; और सर्वोपरि यह कि सब कुछ ज़्यादा ही चमत्कारी भी होता है। प्रभाव में इतनी नीरस विरक्ति है कि जैसे निर्देशक ने अपने स्वयं के उद्देश्य को समझा ही नहीं। फ़िल्म पैदा होने के पूर्व ही बूढ़ी हो जाती है। अपने विचार श्रोताओं को संप्रेषित करने का कभी प्रयास मत करो− यह बिल्कुल कृतघ्न और निरर्थक उद्यम है। उन्हें ज़िंदगी दिखाओ; वे स्वयं अपने ही भीतर उसके मूल्यांकन और गुण-दोष विवेचन के उपाय खोज लेंगे। बड़े दुख के साथ लारिसा शेपित्को जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण निर्देशक के बारे में ऐसी बात कहनी पड़ रही है।

    सिनेमा को ऐसे अभिनेताओं की बिल्कुल ज़रूरत नहीं जो 'खेलते' हैं। उन्हें देखना असह्य है क्योंकि हमने कई दिनों पूर्व इस बात को महसूस कर लिया कि उनका लक्ष्य क्या रहा है, फिर भी वे ज़िद पर अड़े हैं—हर संभव तल पर विषय-वस्तु (टेक्स्ट) के अर्थ को प्रकट करते हुए। जो कुछ हम अपने तईं समझ सकते हैं उस पर वे यक़ीन नहीं करते। अतः सवाल उठता है मोजुखिन (क्रांति-पूर्व के रूसी फ़िल्म स्टार) की ब-निस्बत इन आधुनिक अदाकारों (परफ़ॉर्मर्स) को किन अर्थों में भिन्न माना जाए। दरअस्ल क्या बात यही भर कि ये फ़िल्में तकनीकी स्तर पर ज़्यादा उन्नत हैं? लेकिन तकनीकी तरक़्क़ी कोई कसौटी नहीं हो सकती, और यदि उसे कसौटी मानें तो यह भी मानना होगा कि फ़िल्म कला-रूप नहीं है। तकनीक संबंधी सवाल व्यापारिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण होते हैं—केवल प्रदर्शन की शर्तों की दृष्टि से—लेकिन वे सिनेमा की समस्या के केंद्रीय सवाल नहीं हैं, वे हमें प्रभावित करते सिनेमा की विलक्षण ताकत के रहस्य पर कोई प्रभाव नहीं डालते। अन्यथा हमें चैपलिन, ड्रेयर और डोन्जेन्को की ज़मीन (अर्थ) से क्यों प्रभावित होना चाहिए जो हमारी कल्पनाओं को अभी भी उभारते हैं।

    हँसमुख होने का यही अर्थ नहीं कि वह लोगों को केवल हँसाए! हमदर्दी उभारने का यही अर्थ नहीं कि दर्शकों के आँसू टपकें! समूची कृति के संरचनात्मक सिद्धांत के तहत ही अतिशयोक्ति (हाइपर्बली) को स्वीकार किया जा सकता है, बिम्ब-योजना के एक तत्व के रूप में, लेकिन उसकी विधियों के सिद्धांत- स्वरूप नहीं। सर्जक के हस्ताक्षर वज़नदार, रेखांकित और सुनहरे नहीं होने चाहिए। कभी-कभी वह कि जो नितांत असत्य है वह स्वयं ही यथार्थ को अभिव्यक्त करने आगे जाता है। ‘यथार्थवाद’ जैसा कि मिटेन्का केरेमेजोव कहते हैं, ‘एक अत्यंत भयानक चीज़ है’; और, वेलेरी की राय में यथार्थ सिर्फ़ 'एब्ज़र्ड' ही के द्वारा अत्यंत प्रभावी तरीक़े से अभिव्यक्त किया जा सकता है।

    कला के विषय में कहा जाता है कि वह जानने की विद्या है, अतः वह यथार्थवादी प्रस्तुति के लिए व्यवस्थित की जाती है, लेकिन वह अपने आप ही में ऐसी बात नहीं कि जैसे 'नैचरलिज़म' या लोक-व्यवहार का बखान हो। (बाश की अत्यंत गौण समवेत प्रस्तावना यथार्थवादी है क्योंकि वह सत्य की कल्पना को अभिव्यक्त करती है।) जैसा कि पूर्व में बताया गया, यह रंगमंच के स्वभाव ही में मिलेगा कि वह रूढ़ियों, परंपराओं, स्वीकृत पद्धतियों, प्रथाओं (एक शब्द में कहें तो कन्वेंशन्स) का इस्तेमाल करे और संकेतबद्ध हो; उसमें बिम्ब इशारों के माध्यम से कायम होते हैं। विस्तृत विवरण से भरे रंगमंच के द्वारा हम समूचे घटनाचक्र (फिनामन) के प्रति सचेत होंगे। निस्संदेह हर फिनामन के अनेक रुख और पहलू होते हैं, और दर्शकों को फिनामन ही की पुनर्रचना करने देने के लिए उनका जितना कम इस्तेमाल होगा, रंगमंचीय रूढ़ियों (कन्वेंशन्स) को निर्देशक उतनी ही ज़्यादा महीनता के साथ और प्रभावशाली ढंग से कारगर बनाएगा। इसके विपरीत, सिनेमा फिनामन को उसकी पूरी तफ़सील में प्रस्तुत करता है, छोटी-छोटी बातों को भी शामिल करते निर्देशक उन्हें जितने सघन रूप में, ऐंद्रिय-रूप में प्रस्तुत करे उतना ही वह अपने और लक्ष्य के नज़दीक होगा। ख़ून को मंच पर बहने का कोई अधिकार नहीं है। अगर हम किसी अभिनेता को ख़ून के ऊपर इस तरह सोया हुआ देखें कि उसके नीचे वास्तव में ख़ून नहीं हो (यानि ख़ून दृष्टव्य नहीं हो) तो वह रंगमंच होगा!

    मास्को में हेमलेट का निर्देशन करते वक़्त हमने तय किया कि पोलोनियस की हत्या के दृश्य में उसे उसके छिपने की जगह से उभरता हुआ दिखाएँ—हेमलेट द्वारा ज़ख़्मी किया हुआ, सिर पर की लाल पगड़ी को अपनी छाती पर थामे जैसे कि अपने ज़ख़्म को दबाए हुए हो। फिर वह पगड़ी को नीचे गिराता है, अपने साथ ले जाने के लिए, उसे ढीला करता है, ठीक-ठाक करता है; स्थान छोड़ने के पहले सारे निशान साफ़ करने की कोशिश करता है—वहाँ ख़ून की गंदगी पड़े रहने देना उचित नहीं क्योंकि स्वामी देख सकते हैं, लेकिन उसमें ताक़त नहीं है। जब पोलोनियस लाल पगड़ी को गिरने देता है, हमारे लिए तब भी वह पगड़ी ही है लेकिन उसी वक़्त वह ख़ून का संकेत भी है; एक रूपक रंगमंच में वास्तविक ख़ून काव्यात्मक सत्य को दर्शाता हुआ नहीं लगेगा यदि उसमें अर्थ केवल एक ही तल पर किसी प्राकृतिक क्रियाशीलता (फंक्शन) को प्रतिपादित करता मालूम दे। सिनेमा में ख़ून तो ख़ून ही है, संकेत नहीं, किसी और चीज़ का प्रतीक नहीं। इसीलिए जब वाज्दा की ‘एशेज और डायमंड’ में जहाँ नायक को मारा जाता है, वहाँ उसके इर्द-गिर्द चादरें लटकी होती हैं, और वह उनमें से एक खींच कर अपनी छाती पर दबाता है। जैसे ही वह गिरता है, सफ़ेद ख़ून लिनन पर बहता है। ऐसा लगता है जैसे पोलिश झंडे का लाल सफ़ेद प्रतीक बना हो। फलस्वरूप बिम्ब बजाय सिनेमैटिक होने के ज़्यादा ही साहित्यिक बना, फिर भी वह भावनात्मक स्तर पर असाधारण रूप से शक्तिशाली है।

    सिनेमा जीवन पर निर्भर है, बहुत ध्यान से उसकी सुनता है, शैली (ज़ोनरे) से उसे नियंत्रित करना चाहता है या शैलीगत साँचों की सहायता से भावना को उभारना चाहता है। वह रंगमंच की तरह नहीं जो विचारों के तहत क्रियाशील रहता है, कि जिसमें कोई वैयक्तिक पात्र भी विचार की तरह ही होता है।

    निस्संदेह सारी कलाएँ कृत्रिम हैं। वे केवल सत्य को सांकेतिक रूप से प्रस्तुत करती हैं। यह बिल्कुल साफ़ है। शिल्प में ख़ामी हो और व्यवसाय (प्रोफ़ेशन) में सूक्ष्मदर्शिता का अभाव हो तो जिस तरह की कृत्रिमता जन्म लेगी उसे स्टाइल कह कर टाला नहीं जा सकता; जब अंतिरेक बिम्ब के भीतर गुँथा हो और केवल ख़ुश करने की इच्छा और अतिरेकी कोशिश भर ही हो, तब वह संकीर्णता का संकेत होगी, 'हीरो' की तरह दिखूँ ऐसी इच्छा होगी। दर्शकों का हक़ है कि उन्हें सम्मान मिले, उनमें स्वयं की प्रतिष्ठा का भाव बना रहे। उनकी नज़रों के आगे फुग्गे जैसा फूलो मत, वह तो कुछ ऐसी बात होगी जिसे कुत्ते-बिल्ली तक पसंद नहीं करेंगे।

    दुबारा याद करें, यह निस्संदेह दर्शकों पर भरोसा रखने का सवाल है। 'दर्शक' एक आदर्श अवधारणा है; हमें हॉल में बैठे प्रत्येक दर्शक के बारे में नहीं सोचना है। कलाकार प्रायः अधिकतम हासिल करने का स्वप्न देखता है, सोचता है, कल्पना करता है; यद्यपि जो कुछ वह दर्शकों को देता है, दरअस्ल वह उसका कि जिसकी वह आशा करता है केवल एक अंश ही होता है। ऐसा नहीं कि वह इस सवाल में ग़ाफ़िल ही रहे— बल्कि उसे लगातार अपने दिमाग़ में यही रखना चाहिए कि अपनी अवधारणा को ईमानदारी से कैसे चरितार्थ करे। अभिनेताओं से अक्सर कहा जाता है, ‘छिपे हुए अर्थ को ग्रहण करो।’ अतः अभिनेता आज्ञाकारी होकर ‘अर्थ’ का वाहक बनता है—इस प्रक्रिया में दूसरों के मन भाए, ऐसा बनने (पर्सोना) के लिए बलि चढ़ता है। दर्शकों में इतना कम विश्वास क्यों रखना चाहिए? अधूरे तरीक़े से उनके सामने पेश होना उचित नहीं।

    योसेलियानी की ‘सॉंग थ्रश’ में प्रमुख भूमिका एक अप्रशिक्षित (नॉन-प्रोफ़ेशनल) कलाकार को दी गई। इसके बावजूद नायक की प्रामाणिकता पर ज़रा भी उँगली नहीं उठाई जा सकती। वह पर्दे पर जीवंत है, उसकी ज़िंदगी ओजस्वी है और ज़रा भी प्रतिबंधित नहीं है; उस पर संदेह नहीं किया जा सकता, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वाक़ई, हम में से प्रत्येक के लिए और हमारे साथ जो कुछ होता है उसके लिए सक्रिय ज़िंदगी तत्काल प्रासंगिक होती है।

    अभिनेता के स्क्रीन पर प्रभावशाली होने के लिए यह पर्याप्त नहीं कि वह समझ में आने योग्य बने। उसे सच्चा होना चाहिए। सच्चा होना आसानी से समझ में आने जैसी बात नहीं है; वह प्रायः समग्रता का विशेष बोध प्रदान करता है, संपूर्णता का भाव देता है—वह सदैव ऐसी विलक्षण अनुभूति है जिसे पृथक किया जा सकता है, पूरी तरह समझाया जा सकता है।

    अनुवाद: इंदुप्रकाश कानूनगो (लेखक और अनुवादक। लैटिन अमेरिकी और यूरोपीय साहित्य के अनुवाद में योगदान।)

    स्रोत :
    • पुस्तक : पटकथा
    • रचनाकार : आन्द्रेई तारकोवस्की
    • संस्करण : मार्च 1992

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