सुमित्रानंदन पंत के लेख
साहित्य की चेतना
मुझसे आप लोग किसी प्रकार के भाषण की आशा न करें, मैं आप लोगों से केवल मिलने आया हूँ। अध्यापन का कार्य मेरा क्षेत्र नहीं है, किंतु मैं उसके उत्तरदायित्व को समझता हूँ। अतएव एक साधारण साहित्यसेवी के नाते मैं आपकी उपस्थिति का स्वागत करता हूँ और आप लोगों के
काव्य-संस्मरण
जिस प्रकार अनेक रंगों में हँसती हुई फूलों की वाटिका को देखकर दृष्टि सहसा आनंद-चकित रह जाती है, उसी प्रकार जब काव्य चेतना का सौंदर्य हृदय में प्रस्फुटित होने लगता है, तो मन उल्लास से भर जाता। न जाने जगत् में कहाँ किन घाटियों को छायाओं में, किन गाते हुए
हिंदी का भावी रूप
हिंदी के भावी रूप पर विचार करते समय इतिहास कल्पना की आँखों के सामने आगे बढ़ने लगता है। वर्तमान के गर्द-ग़ुबार से भरे अपने संघर्षशील क़दम मिलाती हुई देश की चेतना सामूहिक विकास के पथ पर अग्रसर होती हुई सी प्रतीत होती है। पीछे की ओर देखने पर, सदियों को पराधीनता
मेरा रचना काल
मेरे कवि-जीवन के विकास-क्रम को समझने के लिए पहले आप मेरे साथ हिमालय की प्यारी तलहटी में चलिए। आपने अल्मोड़े का नाम सुना होगा। वहाँ से बत्तीस मील और उत्तर की ओर चलने पर आप मेरी जन्म भूमि कौसानी मे पहुँच गए। वह जैसे प्रकृति का रम्य शृंगार गृह है, जहाँ
मैं और मेरी रचना ‘गुंजन’
अपनी रचनाओं में मैं ‘गुंजन’ का स्थान महत्त्वपूर्ण मानता हूँ। ‘गुंजन’ की कविताओं से पहले मेरा ध्यान अपनी ओर कभी नहीं गया था। यह बड़ी विचित्र बात है कि इकत्तीस-बत्तीस साल की उम्र तक, जब मैंने ‘गुंजन’ की रचनाएँ लिखी, मुझे बाह्य जगत् इतना लुभाता रहा कि मुझे
नई काव्य चेतना का संघर्ष
नई कविता का आरंभ मेरी समझ में छंद, भाव-बोध आदि सभी दृष्टियों से छायावाद युग से होता है। नई काव्य-चेतना के संघर्ष के अंतर्गत में काव्य की उन बहुमुखी प्रवृत्तियों के बारे में आपसे कहना चाहूँगा जो आज कविता में पाई जाती है। इस युग में हमारे बाह्य जीवन के
आज की कविता और मैं
आज की कविता में अनेक स्तर और अनेक छायाएँ है। वह एक देशीय भी हैं, विश्वजनीन भी; वैयक्तिक भी है, सामाजिक भी; और इन सबके परे वह एक नवीन सत्य, नवीन प्रकाश एवं नवीन मनुष्यत्व की संदेश वाहक भी है––एक ऐसा मनुष्यत्व जिसमें आज के देश और विश्व, व्यक्ति और समाज
जीवन के अनुभव और उपलब्धियाँ
हम एक ऐसे महान् युग में पैदा हुए हैं, और इसमें ऐसी महत्त्वपूर्ण क्रांतियाँ और परिवर्तन, मानव जीवन के बाहरी-भीतरी क्षेत्रों में आज उपस्थित हो रहे हैं कि साधारण से साधारण मनुष्य का जीवन भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। एक युगजीवी की तरह मेरे
छंद नाट्य
इन दिनों हम रेडियो नाटकों एवं रूपकों के संबंध में परामर्श करते रहें हैं। रेडियो नाटक के विकास, उसके प्रकार, उसकी आवश्यकताओं आदि अनेक उपयोगी विषयों पर हम चर्चा कर चुके हैं। मैं आपसे, संक्षेप में, छंद-नाट्य या पद्य नाट्य के बारे में कुछ कहना चाहूँगा, जिससे
पुस्तकें, जिनसे मैंने सीखा
मेरे विचार में प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पुस्तकों से ही सीखें। पुस्तकों के अतिरिक्त और भी अनेकानेक साधन है, जिनसे मनुष्य शिक्षा प्राप्त कर सकता है और अपने भीतर सुरुचि, शील तथा उच्चतम संस्कारों को संचित कर सकता है। पुस्तकों की शिक्षा
मेरी कविता का परिचय
मैं प्रकृति की गोद में पला हूँ। मेरी जन्मभूमि कौसानी कूर्मांचल की पहाड़ियों का सौंदर्यस्थल है, जिसकी तुलना महात्मा गाँधी ने स्विटर्ज़लेंड से की है, यह स्वाभाविक था कि मुझे कविता लिखने की प्रेरणा सबसे पहले प्रकृति से मिलती। मेरी प्रारंभिक कविताएँ प्राकृतिक
चरण चिह्न
‘चिदंबरा’ को पाठकों के सम्मुख रखने से पहले उस पर एक विहंगम दृष्टि डाल लेने की इच्छा होती है। इस परिदर्शन में अपने विगत कृतित्व को, आलोचक की दृष्टि से देखने की अनधिकार चेष्टा नहीं करना चाहता; युग की मुख्य प्रवृत्तियों से मेरा काव्य किस प्रकार संबद्ध रहा,
मेरी सबसे प्रिय रचना
यदि मुझे अपनी रचना के संबंध में कहना न होता तो मैं आपको बिना किसी संकोच या हिचक के तुरंत यह बतला देता कि शेली या वर्डस्वर्थ, टैगोर या कालिदास, वाल्मीकि या व्यास की वह कौन-सी रचना है जो मुझे सबसे प्रिय है और वह क्यों मुझे सबसे प्रिय है? पर बात अपनी कविता
मेरी पहली कविता
जहाँ तक मुझे स्मरण है मेरी पहली कविता में कोई विशेषता नहीं थी, जैसे-जैसे मेरे मन का अथवा मेरी भावना या चेतना का विकास हुआ और मेरा जीवन का अनुभव गंभीर होता गया मेरी कविता में भी निखार आता गया। मेरी पहली कविता एक न होकर अनेक थी। अपने किशोर मन के आवेग
आधुनिक काव्य-प्रेरणा के स्रोत
प्रस्तुत वार्ता का विषय है ‘आधुनिक काव्य-प्रेरणा के स्रोत’, जिनसे हमारा अभिप्राय उन मौलिक प्रेरणाओं, मान्यताओं एवं उन धारणाओं तथा प्रवृत्तियों से है जो आधुनिक हिंदी काव्य को जन्म देने में सहायक हुई है और जिन्होंने उसके प्रवाह को निर्दिष्ट दिशा की ओर
मेरी कविता का पिछला दशक
रचना प्रक्रिया तथा कृतित्व की दृष्टि से मेरा पिछला दशक-अर्थात् सन् उनचास से सन् उनसठ तक का समय एक प्रकार से उर्वर ही रहा है। इस दशक की सबसे बड़ी विशेषता मेरी दृष्टि में, यह रही कि मेरे मन में जो अनेक प्रकार तथा स्तरों विचारधाराएँ—जो अनेक अंशों में विभिन्न,
साहित्यकार की आस्था
आध्यात्मिक दृष्टि से आस्था अपने में एक निरपेक्ष मूल्य है। वही गति और वही गंतव्य है। अर्थात् वह ऐसी शुद्ध आंतरिक गति है जो स्वतः गंतव्य तक ले जाती है या गंतव्य बन जाती है। इसी अर्थ में कहा गया है “भवानी शकरी वन्दे श्रद्धाविश्वास-रूपिणौ, याभ्या विना न
जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण
कूर्मांचल की सौंदर्य-पंख तलहटी में पैदा होने के कारण मुझे जीवन प्रकृति की गोद में पेंग भरता हुआ मिला। सबसे पहले मैंने उसके मुख को सुंदर के रूप में पहचाना। किंतु बचपन की चंचलता-भरी आँखों को जीवन का बाहरी समारोह जैसा मोहक तथा आकर्षक लगता है, वास्तव में
मेरी सर्वप्रथम रचना
रचना उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार का विधान, सयमन अथवा तारतम्य हो। इस दृष्टि से मेरी सर्वप्रथम रचना कविता न होकर उपन्यास ही थी। वैसे मैं छोटी-छोटी तुकबंदियाँ बहुत पहले से कर लेता था, पर उन्हें रचना कहने का साहस नहीं होता। मेरे बड़े भाई जब बी० ए० की
सांस्कृतिक आंदोलन
आज का विषय है सांस्कृतिक आंदोलन, क्यों, कैसा?—इसमें हमारा अभिप्राय है, क्या हमें सास्कृतिक आंदोलन की आवश्यकता है? इस युग में जिस प्रकार राजनीतिक प्रार्थिक आंदोलन लोक-जीवन को की पूर्ति कर रहे हैं क्या हमें उसी तरह एक सांस्कृतिक आंदोलन भी चाहिए, जो हमारे
सांस्कृतिक चेतना
आज जब साहित्य, संस्कृति तथा कला की अंतःशुभ्र सूक्ष्म पुकारे बाह्य जीवन के आडंबर तथा राजनीतिक जीवन के कोलाहल में प्रायः डूब-सी रही है, आप लोगों का इस सांस्कृतिक समारोह में सम्मिलित होना विशेष महत्त्व रखता है। इससे हमें जो आशा, उत्साह, जो स्फूर्ति और प्रेरणा
कवि के स्वप्नों का महत्त्व
कवि के स्वप्नों का महत्त्व!—विषय संभवतः थोड़ा गंभीर है। स्वप्न और यथार्थ मानव-जीवन-सत्य के दो पहलू हैं : स्वप्न यथार्थ बनता जाता है और यथार्थ स्वप्न। ‘एक सौ वर्ष नगर उपवन, एक सौ वर्ष विज़न वन’–इस अणु संहार के युग में इस सत्य को समझना कठिन नहीं है। वास्तव
मैंने कविता लिखना कैसे प्रारंभ किया
देश भक्ति के साथ मोहिनी मंत्र मातृभाषा का पाकर प्रकृति प्रेम मधु-रस में डूबा गूंज उठा अंगों का मधुकर फूलों की ढेरों में मुझको मिला ढँका अमरो का पावक युग पिक बनना भाया मन को, जीवन चिंतक, जन भू भावक! नैसर्गिक सौंदर्य, पुष्प-सा, खिला दृष्टि में निर्निमेष
मेरी सर्वप्रिय पुस्तक
कहते हैं इस युग में मनुष्य का जितना ज्ञान वर्द्धन हुआ है, सभ्यता के इतिहास में उतना ज्ञान मनुष्य ने और कभी अर्जित नहीं किया। ऐसे युग में मनुष्य लाख प्रकृति का प्रेमी हो और उसे पाषाण-शिलाओं, नदियों तथा प्रकृति के अन्य उपकरणों में चाहें कितने ही प्रवचन
आधुनिक काव्य
सैकड़ों वर्ष पहले सूर, तुलसी, कबीर, मीरा के ज्ञान भक्ति द्रवित पदों ने, हिंदी कविता के प्रासाद को, अपनी भावमुग्ध चापों से मुखरित किया था, उनकी प्रतिध्वनियाँ आज भी हमारे कानों में गूँजती रहती है। हिंदी काव्यचेतना इतिहास की ऊँची-नीची सीढ़ियों पर चढ़ती
जीवन की सार्थकता
जीवन मेरी दृष्टि में एक अविजेय एवं अपरिमेय सत्य तथा शक्ति है—देह, मन और प्राण जिसके अंग एवं उपादान है, आत्मा जिसकी आधारशिला अथवा आधारभू तत्व है और ज्ञान-विज्ञान जिसकी अंतर्मुखी बहिर्मुखी नियामक गतियाँ हैं। प्रस्तुत वार्ता या निबंध में हम जीवन तथा विज्ञान
लेखक और राजाश्रय
लेखक और राजाश्रय संबंधी समस्या पर विचार करने पर अनेक प्रश्न मन में उठते हैं, पर इस संक्षिप्त वक्तव्य में मैं मूलभूत दृष्टिकोण के प्रति ही अपना मत प्रकट करना चाहता हूँ। जैसा है या होता आ रहा है उसे मैं अधिक महत्त्व नहीं देता, जैसा होना चाहिए या हो सकता
साहित्यकार के स्वर
मेरा कवि-जीवन कब, कैसे और किस वातावरण में प्रारंभ हुआ इसके बारे में मैं अपनी पिछली कुछ वार्ताओं में कह चुका हूँ। यद्यपि मैंने आरंभ में उपन्यास लिखकर अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश किया लेकिन रुचि की दृष्टि से मैं शुरू से ही कविता-प्रेमी रहा हूँ। मेरे
मानसी
“मानसी” मैंने सन् 1946 में लिखी थी। तब दक्षिण भारत में था। मानसी मनुष्य की राग भावना अथवा राग चेतना का प्रतीक रूपक है। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि आज के संक्रांति युग में जबकि हम अपनी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक मान्यताओं में नवीन संतुलन स्थापित करने का
मैं और मेरी कला
जब मैंने पहले लिखना प्रारंभ किया था, तब मेरे चारों ओर केवल प्राकृतिक परिस्थितियों तथा प्राकृतिक सौंदर्य का वातावरण ही एक ऐसी सजीव वस्तु थी जिससे मुझे प्रेरणा मिलती थी! और किसी भी परिस्थिति या वस्तु की मुझे याद नहीं, जो मेरे मन को आकर्षित कर मुझे गाने
मेरी साहित्यिक मान्यताएँ
यदि मान्यताओं की दृष्टि से देखा जाए तो मेरा काव्य मुख्यतः मान्यताओं ही का काव्य रहा है। पल्लव काल तक मेरी लेखनी कला पक्ष की साधना करती रही है। पल्लव की भूमिका में मेरे कला संबंधी विचार व्यक्त हुए हैं, किंतु उसके बाद की मेरी रचनाओं में इस युग के मान्यताओं
मेरी मनोकामना का भारत
मेरी मनोकामना का भारत! मन में प्रश्न उठता है, क्या हम आज सचमुच भारत के रूप में, भारत ही के लिए सोचते हैं? क्या आज मानव-मन देश-देशांतर के अंतराल को अतिक्रम नहीं कर चुका है? क्या आज एक विश्व-जीवन, एक भू-जीवन अथवा एक मानवता की सुनहली कल्पना हमारे मन में