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साहित्यकार के स्वर

sahityakar ke svar

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

साहित्यकार के स्वर

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    मेरा कवि-जीवन कब, कैसे और किस वातावरण में प्रारंभ हुआ इसके बारे में मैं अपनी पिछली कुछ वार्ताओं में कह चुका हूँ। यद्यपि मैंने आरंभ में उपन्यास लिखकर अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश किया लेकिन रुचि की दृष्टि से मैं शुरू से ही कविता-प्रेमी रहा हूँ। मेरे उपन्यास का नाम “हार” था, जिसकी पांडुलिपि अब भी मेरे एक मित्र के पास सुरक्षित है। उपन्यास क्या, उसे मैं अब खेलवाड़ ही कहूँगा, जिसे संभवतः मैंने 15-16 वर्ष की अवस्था में लिखा था, जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था। उपन्यास का कथानक वियोगात है, जिसका प्रेमी नायक अपने युवकोचित औदार्य तथा सौहार्द्र के कारण अपनी प्रेम संबंधी पराजय अथवा हार को ही विजय-हार अर्थात् विजय की माला के रूप में ग्रहण कर मानव-हृदय तथा किशोर प्रेम की दुर्बलताओं से ऊपर उठने के लिए उन पर विजय पाने की साधना करता है। इस प्रकार हार शब्द श्लिष्ट है। उन दिनों तिलक की गीता का बड़ा प्रचार था और मैं भी अपनी किशोर बुद्धि के अनुरूप लोकमान्य तिलक की कर्मयोग की टीका से ख़ूब प्रभावित हुआ था। हार का नायक भी फलतः मेरी किशोर बुद्धि का काल्पनिक कर्मयोगी ही था, ऐसा कुछ मुझे स्मरण है। किंतु श्री तिलक की गीता के प्रभाव से कुछ दिनों के लिए कर्मयोगी बना हुआ मेरा मन फिर कालक्रम में स्वभावानुसार भावयोगी बनकर कविता लिखने लगा।

    अपने साहित्यिक जीवन के प्रारंभ में, कवि या साहित्यकार कहाँ से कैसे, प्रेरणा ग्रहण कर ‘मद कवि यश प्रार्थी’ का कार्य आरंभ करता है, यह बतलाना बड़ा कठिन है। संभवतः तब प्रेरणा के स्रोत भीतर रहकर बाहर ही अधिकतर होते हैं और अपने समय के प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं से ही किसी किसी रूप में प्रभावित होकर उदीयमान कवि अपनी लेखनी की परीक्षा लेना आरंभ करता है। जब मैंने कविता लिखना प्रारंभ किया था तब मुझे यह कुछ भी ज्ञात नहीं था कि काव्य को मानव जीवन के लिए क्या महत्ता या उपयोगिता है। मैं यही जानता था कि उस समय काव्य जगत् में कौन-सी शक्तियाँ कार्य कर रही थी। जैसे एक दीपक दूसरे दीपक को जलाता है उसी प्रकार द्विवेदी युग के कवियों की कृतियों ने मेरे हृदय को अपने सौंदर्य स्पर्श से छापा और उसमें एक प्रेरणा शिखा को जगा दिया। उसके प्रकाश में मैं भी अपने भीतर-बाहर अपनी रुचि के अनुकूल काव्य के उपादानों को पहचानकर उनका चयन तथा संग्रह करने लगा। यह ठीक है कि दीप शिखा जैसे तद्वत् दूसरी दीपशिखा को जन्म देती है उस प्रकार पिछली पीढ़ी की काव्य चेतना ज्यों की त्यों मेरे भीतर नहीं उतर आई। मेरे मन ने उसका अपनी रुचि के अनुरूप संस्कार कर उसमें अपनेपन की छाप लगा दी।

    वास्तव में भारतेंदु युग से हिंदी कविता में एक प्रकार के जागरण या देश प्रेम की चेतना, बादलों के अंधकार में बिजली की तरह कौंधने लगी थी और द्विवेदी युग में श्री गुप्त जी आदि की रचनाओं में खड़ी बोली के मन से यह अधिक प्रभावोत्पादक होकर हृदय को स्पर्श करने लगी। गुप्त जी की भारत-भारती में यह शंखध्वनि की तरह उद्बोधन गीत बनकर हिंदी जगत में गूँज उठी थी। राष्ट्रीय चेतना के अतिरिक्त द्विवेदीयुग के काव्य में एक प्रकार से काव्य के अन्य उपकरणों का अभाव ही सा रहा है। उसमें किसी प्रकार का नवीन सौंदर्यबोध या कला-शिल्प रहा है, रस या भावोद्रेक ही। अधिकांश रचनाएँ केवल छंदों के अस्थि पंजर या ढाँचे भर रही है, जिनमें खड़ी बोली के शब्दों को गतियति के नियमानुसार कवायद भर कराई गई है। किंतु उस युग के शब्दों के अबार से भी, रेती में बहती हुई कलकल करती जलधारा की तरह, सच्ची कविता चुनी जा सकती है। द्विवेदी युग की कविता में जो शील मिलता है अन्यत्र उसके दर्शन नहीं होते।

    द्विवेदी युग का काव्यगत रेखाचित्र देने से मेरा अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है कि जब मैंने कविता लिखना आरंभ किया था तब वास्तव में हिंदी में कविता देवी के अभिवादन के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं प्रस्तुत था। हमारे युग को—जो पीछे छायावादी युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ—मुख्यतः प्रेरणा बंगला में कवींद्र रवींद्र से तथा उन्नीसवीं सदी के अँग्रेज़ी कवियों से मिली। किंतु अंग्रेज़ी कवियों से प्रेरणा ग्रहण करना तब संभव होता और बंगाल में रवींद्रनाथ के चोटी के व्यक्तित्व का ही विकास तब संभव ही पाता यदि श्रीरामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानंद के समान प्रकाश पुंज नक्षत्रों का अवतरण तब भारत में हो गया होता। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय चेतना के सर्वांगीण पुनर्जागरण और मुख्यतः दर्शन, विचार, काव्य, चित्र, शिल्प, कला आदि के जागरण के बाह्य कारणों में पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति तथा अँग्रेज़ी भाषा का जो भी हाथ रहा हो, उसका मुख्य कारण तथा मौलिक प्रेरणा स्रोत प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप में, अवश्य ही परमहंसदेव के तप शक्ति पुज आध्यात्मिक व्यक्तित्व में रहा है। श्रीरामकृष्ण देव के महत् जन्म में ही जैसे प्रतीक रूप में नए भारत ने जन्म लिया था। अनेक शतियों से जो भारतीय जीवन तथा मानस में एक प्रकार का निष्क्रिय औदास्य, वैराग्य तथा क्लैव्य छाया हुआ था वह जैसे रामकृष्ण देव के शुभ आगमन से तिरोहित हो गया। जिस प्रकार सरोवर के ऊपर का शैवाल हटा देने से नीचे का निर्मल जल दिखाई देने लगता है उसी प्रकार मध्ययुगीन जाड्य की सीमाओं तथा कुहासे से मुक्त होकर भारतीय चैतन्य का व्यक्तित्व मनश्चक्षुओं के सामने निखरकर प्रत्यक्ष होने लगा। अनेक पौराणिक व्यक्तित्वों एवं संकीर्ण धार्मिक नैतिक मान्यताओं की भूलभुलैया में खोया हुआ परंपरागत मानस जैसे नवीन तथा स्वतंत्र रूप से सत्य की खोज करने लगा और उपनिषदों की उन्मेष पूर्ण स्वयंप्रभ मंत्र दृष्टि से प्रेरणा प्राप्त कर नए आलोक क्षितिजों में विचरण करने लगा। इस भाव मुक्ति के नवोल्लास की प्रथम अभिव्यक्ति नए युग के भारतीय साहित्य में हमें रवींद्रनाथ की कविता में मिलती है। मानव-जीवन संबंधी सत्य के पिटेपिटाए शात्रीय दृष्टिकोण से छुटकारा पाकर युग की चेतना जैसे नवीन सौंदर्यबोध तथा आनंद की खोज में नवीन कल्पना के सौपानों पर आरोहण करने लगी ज्ञान, भक्ति, कर्म, ब्रह्म, विश्व, व्यक्ति आदि संबंधी पथराई हुई एकरस भावनाओं में नवीन प्राणों तथा चेतना का संचार होने लगा। और नए युग की कला और विशेषतः कविता, नवीन भाव ऐश्वर्य का निसीम आनंद स्वर्ग लेकर प्रकट हुई। इस नई चेतना ने अपने मुक्त प्रवाह से हिंदी कविता की भाषा को भी नवीन रूप माधुर्य प्रदान किया। और यह नवीन जागरण की प्रेरणा अपने भाव वैभव के साथ ही नवीन जीवन संघर्ष भी लाई जिसने एक ओर भारतीय मानस में विचार क्रांति पैदा की और दूसरी और राजनीतिक क्रांति, जिसके कारण सदियों से पराधीन इस भारतभूमि मे स्वतंत्रता कें शस्त्रहीन संग्राम ने जन्म लिया और मात्र अपने संगठित मन संकल्प से अंत में देश को स्वाधीन भी कर दिया। इस प्रकार भाव ऐश्वर्य के अतिरिक्त हिंदी काव्य चेतना की एक धारा ने सामूहिक कर्म एवं सामाजिक आदर्शों को प्रेरणा देकर प्रगतिशील दृष्टिकोण से नवीन जीवन-मूल्यों का आंकलन तथा सृजन किया।

    यह हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि हमने इस विराट् युग में जन्म लेकर, साहित्य के क्षेत्र में इन नव नवोन्मेषिणी भाव शक्तियों को धारण तथा वहन करने का गौरव प्राप्त किया है। स्वर्ग से नरक तक के स्तर आज के युग में आंदोलित हो उठे हैं। मानवजाति की सर्वोच्च मान्यताओं के शिखर तथा निश्चेतन मन के अंधकार भरे गह्वर आज नवीन आलोक की रेखाओं तथा नवीन प्राणों के स्पर्श से उन्मीलित हो रहे हैं। आज हम देश, जाति, वर्ग, श्रेणी, राष्ट्र अंतर्राष्ट्र, व्यक्ति तथा समाज की धारणाओं के पार इन सबकी एक सम्मिलित संश्लिष्ट इकाई को विश्वजीवन में नवीन मानवता के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रयत्नों में संलग्न है। मेरे युग की जो काव्य चेतना राष्ट्रीय जागरण के बाह्य प्रभावों से जागृत होकर, पश्चिमी सभ्यता तथा संस्कृति के स्पर्शों से सौंदर्य ग्रहण कर, भारतीय चैतन्य के अभिनव आलोक से अनुप्राणित होकर, क्रमशः, प्रस्फुटित एवं विकसित हुई थी, आज वह अनेक भावनाओं तथा विचारों के धरातलों को पार कर मानव-मन की गहनतम तलहटियों तथा उच्चतम शिखरों के छाया प्रकाश का समावेश करती हुई, अधिक प्रौढ़ एवं अनुभवपक्व होकर, मानव जीवन के मंगलमय उन्नयन एवं मानव जाति के परस्पर सम्मिलन के स्वर्ग के निर्माण में अविरत साधना संलग्न है। आज की काव्य-चेतना अनेक युगों को पार कर नवीन युग में प्रवेश कर रही है। यह उसके लिए अत्यंत संकट तथा संघर्ष का युग है। आज स्वप्न और वास्तविकता, सत्य और यथार्थ, एक दूसरे के विरोध में खड़े, एक अधिक व्यापक एवं समुन्नत जीवन सत्य की चरितार्थता में विलीन होने की प्रतीक्षा कर रहें हैं। आज मानव क्षमता तथा मानव दुर्बलता एक-दूसरे को चुनौती दे रही है। आज धरा सृजन और विश्व संहार आमने-सामने खड़े ताल ठोक रहे हैं। ऐसी महान संभावनाओं और घोर दु:संभावनाओं के युग में कवि एवं कलाकार को अपने अंतविश्वास के शिखर पर अविचल खड़ा रहकर, मानव अंतश्चैतन्य से प्रकाश ग्रहण कर, स्वप्न और कल्पना के ही उपादानों से सही, महत्तम मानव भविष्य का निर्माण करना है, और धरती के मानस का पिछली मान्यताओं एवं परिस्थितियों का कल्मष-कर्दम धोकर, उसे नवीन जीवन चैतन्य के सौंदर्य से मंडित कर मानवीय एवं स्वर्गोंपम बनाना है। मानव अहता के तुषानल के ताप से बिना झुलसे उसे अपने फूलों के हँसते हुए चरण आगे बढ़ाते हैं और स्वप्नों की अमूर्त अँगुलियों के कोमलतम स्पर्शों से छूकर भू मानव के मन की निर्मम जड़ता को द्रवीभूत करना है। साहित्यकार के स्वर की उपयोगिता, महत्ता तथा उत्तरदायित्व इस युग में जितना अधिक बढ़ गया है उतना शायद इधर मानव इतिहास के किसी युग में नहीं बढ़ा था। आज उसे धरती के विशृंखल जीवन को नए छंद में बाँधना है—मनुष्य की बौद्धिक अनास्थाओं को अतिक्रमकर उसके भीतर नवीन हृदय की रचना करनी है। युग परिस्थितियों के घोर अंधकार से प्रकाश खींचकर उसे दु:स्वप्नों से आतंकित मानव के मानस क्षितिज में नया अरुणोदय लाना है।

    आज के महासंक्रांति के युग में मुझे प्रतीत होता है कि मेरे भीतर मेरे उदयकाल में जिस किशोर कवि ने वीणा के गीत गुनगुनाए थे आज वह अपना सर्वस्व गँवाकर केवल आज के विश्वजीवन का तथा भविष्य के अंतरिक्ष में मुसकुराती हुई नवीन मानवता का विनम्र प्रतिनिधि-स्वर तथा सौम्य संदेहवाहक एवं दूत भर रह गया है—उसकी क्षीण कंठ ध्वनि आज के तुमुल कोलाहल में लोगो को सुनाई देगी कि नहीं–मैं नहीं जानता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 267)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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