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साहित्य की चेतना

sahitya ki chetna

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

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सुमित्रानंदन पंत

साहित्य की चेतना

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    मुझसे आप लोग किसी प्रकार के भाषण की आशा करें, मैं आप लोगों से केवल मिलने आया हूँ। अध्यापन का कार्य मेरा क्षेत्र नहीं है, किंतु मैं उसके उत्तरदायित्व को समझता हूँ। अतएव एक साधारण साहित्यसेवी के नाते मैं आपकी उपस्थिति का स्वागत करता हूँ और आप लोगों के साथ साहित्यिक वातावरण में साँस लेने का सुख अनुभव करता हूँ।

    आप केवल पाठ्य पुस्तकों को रटकर साहित्य के अंतस्तल में नहीं पैठ सकते और उसका महत्त्व ही समझ सकते हैं। साहित्य की ओर आकर्षित होना और उसका रस ले सकना ही पर्याप्त नहीं है। साहित्य के मर्म को समझने का अर्थ है वास्तव में मानव जीवन सत्य को समझना। साहित्य अपने व्यापक अर्थ में मानव-जीवन की गंभीर व्याख्या है। उसमें मानव चेतना की ऊँची से ऊँची चोटियों का प्रकाश, मन की लंबी-चौड़ी घाटियों का छायातप तथा जीवन की आकांक्षाओं का गहरा रहस्यपूर्ण अंधकार संचित है। उसमें मानव सभ्यता के युग-युगव्यापी संघर्ष का प्रच्छन्न इतिहास तथा मनुष्य के आत्म-विजय का दर्शन अनेक प्रकार के आदर्शों, अनुभूतियों रीति-नीतियों तथा भावनाओं की सजीव संवेदनाओं के रूप में संगृहीत है। यदि साहित्य को पढ़कर हम मनुष्य जीवन को संचालित करने वाली शक्तियों तथा उनके विकास की दिशा को नहीं समझ सके, तो हम वास्तव में साहित्य के विद्यार्थी कहलाने के अधिकारी नहीं है। इसलिए मेरा आप से अनुरोध है कि आप साहित्य को मनुष्य जीवन के सनातन संघर्ष से कोई विभिन्न वस्तु समझें, बल्कि उसे जीवन के दर्शन अथवा जीवन के दर्पण के रूप में देखें। उस दर्पण में जहाँ आप आत्मचिंतन द्वारा अपने मुख को पहचानना सीखें, वहाँ अपनी सहानुभूति को व्यापक तथा गंभीर बनाकर उसके द्वारा अपने विश्व-रूप की अथवा मानव के विश्वदर्शन की भी रूपरेखा का आभास प्राप्त करना सीखें। साहित्य के अध्ययन का अर्थ है रस द्वारा ज्ञान की उपलब्धि ज्ञान ही शक्ति भी है। आप जब तक ज्ञान द्वारा शक्ति का संचय नहीं करेंगे, तब तक आप युग-जीवन का संचालन भी नहीं कर सकेंगे और मानव जीवन के शिल्पी भी नहीं बन सकेंगे। आपको मनुष्य के भीतरी जीवन का नेतृत्व करना है,—साहित्य का क्षेत्र अंतर्जीवन का क्षेत्र है। इसलिए आपको अपना उत्तरदायित्व अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

    आप लोग जो हिंदी साहित्य द्वारा ही जीवन की प्रेरणा प्राप्त करना चाहते हैं, आपको यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आज का साहित्य मानव का नवीन रूप से निर्माण कर रहा है। आज का मनुष्य रेडियों, वाक्चित्रों, समाचार पत्रों आदि द्वारा समस्त विश्व के मन को धारण तथा वहन कर रहा है। वह विश्व-मन के स्थूल-सूक्ष्म प्रभावों से प्रभावित होकर नवीन रूप से संगठित हो रहा है। आज का साहित्य एक देशीय अथवा एक जातीय होकर उन्नति नहीं कर सकता, उसे सार्वभौम बनना ही होगा। आधुनिकतम हिंदी साहित्य में आपको जो एक प्रगतिवाद की धारा मिलती है, उसका वास्तविक संदेश यही है। मानव स्वभाव इतना दुरूह तथा जटिल है और जीवन की परिस्थितियों में इतना अधिक वैचित्र्य है कि संसार में कोई भी सिद्धांत अथवा वाद बहुमुखी हुए बिना नहीं रह सकता। प्रगतिवाद भी इससे मुक्त नहीं है। अतएव प्रगतिवाद के अंतर्गत आपको जो एक राजनीतिक संघर्ष से बोझिल विचार तथा भावना-धारा मिलती है, उसे प्रगतिवाद का निम्नतम धरातल अथवा अस्थाई स्वरूप समझना चाहिए। अपने स्थाई अथवा परिपूर्ण रूप में वह एक सांस्कृतिक धरातल की सृजनात्मक चेतना है, जिसका उद्देश्य विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों तथा नैतिक दृष्टिकोणों के विभेदों से मनुष्य की चेतना को मुक्तकर उसे युग-परिस्थितियों के अनुरूप व्यापक मनुष्यत्व में सँवारना है। वे परिस्थितियाँ केवल बाहरी, आर्थिक तथा राजनीतिक आधारों तक ही सीमित नहीं हैं, उनका संबंध मनुष्य जीवन की अंतरतम अनुभूतियों तथा गहनतम विश्वासों से भी है। ये अंतविश्वास, जिन्हें आप चाहे आदर्श कहें अथवा नैतिक दृष्टिकोण, पिछले युगों की आध्यात्मिक तथा भौतिक परिस्थितियों से संबद्ध मानव चेतना के वे अभ्यास है, जिनका हमें इस युग में अधिक ऊर्ध्व, गहन तथा व्यापक मनुष्यत्व के रूप में उन्नयन करना है। इसके लिए सभी देशों के महाप्राण तथा युग प्रबुद्ध साहित्यिक साधना कर रहे हैं। अतएव वह साहित्य जो संप्रति मानव जाति की अंतरतम एकता के सिद्धांतों से अनुप्राणित है, मानव जाति के विभिन्न श्रेणी, वर्गों तथा संप्रदायों के बीच के व्यवधानों को हटाने के लिए प्रयत्नशील है, जो मानव के विश्व सम्मेलन के लिए नवीन नैतिक दृष्टिकोण, नवीन सौंदर्य-बोध तथा नवीन सांस्कृतिक उपादानों का सृजन कर रहा है, वही प्रगतिशील साहित्य वास्तव में इस युग के साहित्य का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ऐसा साहित्य पिछले युगों के समस्त वाङ्मय में जो कुछ भी संग्रहणीय है, उसका संपूर्ण उपयोग करने के साथ ही उन नवीन-जीवन-मानो तथा सूक्ष्म अनुभूतियों पर भी प्रयोग कर रहा है, जिनके समावेश से इस युग की भाप, बिजली और अणुशक्ति से अति सक्रिय परिस्थितियाँ एक सार्वभौम मानवीय सौंदर्य से विभूषित हो सके तथा उनमें एक व्यापक सामाजिक सामंजस्य स्थापित हो सके।

    आज के साहित्य के विद्यार्थी को अपने युग की चेतना के शिखर पर खड़ा होकर पिछले युगो की ऊँची-नीची तलहटियों तथा संकीर्ण अँधेरी घाटियों पर दृष्टिपात करना चाहिए तथा उनके अनेक छायाओं से भरे हुए सौंदर्य का निरीक्षण कर, उनको भावनाओं तथा विचारों के ऋजु-कुचित नद-निर्झरों का कलरव श्रवण कर, उनके तरह-तरह के राग-विराग की संवेदनाओं से उच्छ्वासित वातावरण को साँसों से हृदय में भरकर मानव सभ्यता के संघर्ष सकुल विकास का मानचित्र बनाना चाहिए जिससे भिन्न-भिन्न युगों के आदर्शों और वादों को यथास्थान संयोजित कर वह मानव चेतना के इतिहास का यथोचित अध्ययन कर सके और उसके भविष्य के गौरव का अनुमान लगा सके। इसी प्रकार की साहित्य साधना में मैं आपको अश्रांत रूप से तत्पर देखना चाहता हूँ। साहित्य तथा कला का एक बाहरी स्वरूप भी होता है, उसका भी अपना एक जीवन होता है और वह भी परस्पर के आदान-प्रदान, अध्ययन-मनन आदि से घटता-बढ़ता तथा बदलता रहता है। वह स्वरूप लेखकों के व्यक्तित्वों, उनकी शैलियों, साहित्यिक प्रथाओं, प्रचलनों तथा छंदों-अलंकारों का रूप है, जिसका अध्ययन तथा अभ्यास भी साहित्य-साधना के लिए अत्यंत आवश्यक होता है। इस स्वरूप का ज्ञान जैसे साहित्य के स्वरों का, उसका सा रे का ज्ञान है, जिसकी साधना से आप साहित्य की चेतना को भावना का महाप्राण रूपविधान पहनाते हैं और उसके सौंदर्य से हृदय को प्रभावित करते हैं। इसे आप साहित्य का गौण अथवा स्थूल स्वरूप कह सकते हैं। भाव और भाषा में भाव को ही प्रधानता देनी चाहिए, किंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि भाषा के प्रति हमें विरक्त हो जाना चाहिए। चेतना तथा पदार्थ की तरह भाव तथा भाषा ऐसे अविच्छिन्न रूप से मिले हुए है कि एक के बिना दूसरे की कल्पना भले ही की जा सके, किंतु अभिव्यक्ति असंभव है। भावना की चेतना के साथ ही इस युग में भाषा के सौंदर्य में भी परिवर्तन रहा है। भाषा अधिक सूक्ष्म तथा प्रच्छन्न हो गई है। ध्वनि, व्यंजना तथा प्रतीकों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है एवं भिन्न-भिन्न साहित्यों के अनुशीलन के प्रभाव से बाह्य विन्यास तथा अलंकार आदि भी नवीन रूप ग्रहण कर रहे हैं। पर इन पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालना अध्यापकों का काम है और मुझें विश्वास है कि आप साहित्य के उस अंग को भी उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखेंगे।

    अंत में एक हिंदी साहित्यसेवी के नाते मैं आपके प्रति अपनी शुभकामनाएँ तथा सद्भावनाएँ प्रकट करता हूँ और आशा करता हूँ कि हिंदी साहित्य शीघ्र ही मानव की नवीन चेतना को वाणी देकर अपने प्रेमियों को अधिक से अधिक मानसिक वैभव प्रदान कर सकेगा, उनके हृदयों में व्यापक मनुष्यत्व का स्पंदन, उनके पलकों में नवीन सौंदर्य के स्वप्न भर सकेगा तथा आज के साहित्य के विद्यार्थी कल के सत्य-द्रष्टा तथा सौंदर्य-स्रष्टा बन सकेंगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 212)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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