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मेरी सर्वप्रथम रचना

meri sarvapratham rachna

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

मेरी सर्वप्रथम रचना

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    रचना उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार का विधान, सयमन अथवा तारतम्य हो। इस दृष्टि से मेरी सर्वप्रथम रचना कविता होकर उपन्यास ही थी। वैसे मैं छोटी-छोटी तुकबंदियाँ बहुत पहले से कर लेता था, पर उन्हें रचना कहने का साहस नहीं होता। मेरे बड़े भाई जब बी० ए० की परीक्षा देकर गर्मियों में घर लौटे तो वह अनेक हिंदी, उर्दू, संस्कृत के काव्य-ग्रंथ-हिंदी के मासिक पत्र आदि—तरह-तरह की रस-सामग्री अपने साथ ले आए थे। मैं तब 6-10 साल का रहा हूँगा, मुझे ठीक याद नहीं पड़ता भाई साहब कभी-कभी बड़ी भाभी को मेघदूत अथवा शकुंतला सुनाते तो कभी सूर, तुलसी अथवा रीतिकालीन कवियों के मधुर पद, सवैये और कवित्त, और कभी सरस्वती पत्रिका से आधुनिक खड़ी बोली की कविताएँ। भाई साहब का कंठस्वर बड़ा भावपूर्ण होता और वह बहुत तन्मय होकर मद-मधुर लय में अपनी मुग्धा पत्नी के मनोरंजन के लिए प्रायः संध्या समय कविता पाठ किया करते थे। बाहर हिमालय के ऊँचे, स्वच्छ शिखरों पर तथा चीड़, बाँज और देवदारु की हरी-भरी घनी वनानियों में छाई मौन मनोरम पहाड़ी साँझ, अपने सुनहली छायाओं के निष्कंप पंख सिमटाए हुए, अवाक् होकर, जैसे, उस एकांत कविता पाठ को मेरे मन की अज्ञात गहराइयों में उड़ेलती रहती थी और मैं तल्लीन एवं आत्म-विस्मृत होकर, किवाड़ों की ओट में खड़ा, उस प्रणय-निवेदन से भरी मधुर छंद ध्वनि का पान किया करता था। धीरे-धीरे मैं भी जैसे उन्हीं छंद-ध्वनियों की आत्माओं से प्रेरित होकर शब्दों की मालाएँ पिरोने लगा और कभी-कभी ग़ज़ल की धुन पर भी लड़खड़ाती हुई कुछ पंक्तियाँ जोड़ लेता। किंतु सर्वप्रथम रचना के उस समय के लिए व्यवस्थित रूप में मेरी लेखनी से पहले उपन्यास का ही प्रणयन हुआ जिसकी चर्चा मैं संक्षेप में पहले भी कर चुका हूँ।

    मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, मैं तब अल्मोड़े के गवर्नमेंट हाईस्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था और जाड़ों की लंबी दो-ढाई महीनों की छुट्टियों में अपने पिता जी के पास कौसानी गया हुआ था। कौसानी तो सौंदर्य का स्वर्ग है ही। मेरे पिता सरकारी मकान में रहते थे। मकान बहुत बड़ा नहीं था, सब मिलाकर सात-आठ कमरे रहे होंगे। उत्तर की ओर चहारदिवारी से घिरा हुआ आँगन था, जहाँ से अंतरिक्ष में दूध के समुद्र की तरह उफनाई हुई ऊँची-ऊँची हिमालय की चोटियाँ दिखाई पड़ती थीं। आँगन में एक पत्थर का चबूतरा बना था जो साँझ के एकांत समय किसी अदृश्य ऋषि के ध्यान मौन आसन की तरह पावन एवं विचार मग्न लगता था। आँगन के भीतरी बरामदे में ख़ूब चहल-पहल रहती थी और परिवार के सभी लोग सबेरे-शाम प्रायः वही जुटा करते थें। तीन-चार कमरे पार करने पर पश्चिम की ओर एक छोटा-सा बरामदा था जो सड़क की ओर खुलता था। सड़क पर उतरने को तीन-चार पत्थर की सीढ़ियाँ थी। सामने पहाड़ी पेड़ों का मर्मर करता हुआ हँसमुख क्षितिज दिन-रात कुछ कुछ गुनगुनाता रहता था। यह बरामदा ही मेरा छुटपन का सृजन-कक्ष था। उसमें एक कोने पर पिता जी की ऑफ़िस की मेज़ रहती थी और दूसरी ओर मेरी छोटी डेस्क। पिता जी दिन भर ऑफ़िस में रहते थे, इसलिए उस छोटे से एकाकी बरामदे का मैं ही एकमात्र अधिकारी था। यहीं बैठकर मैंने अपनी सर्वप्रथम रचना का सूत्रपात किया था। जाड़े की अलस-मधुर दुपहरी में उस चढ़ावदार सँकरी पहाड़ी सड़क पर, जाने, नीचे की किन हरी-भरी तलहटियों और मखमली घाटियों से निकलकर, उस छोटे से उपन्यास के लिए मद मंथर गति से आगे बढ़ते हुए, नायक नायिका और क़रीब आधे दर्जन पात्र-पात्रियाँ मेरी अधखुली, स्वप्न-भरी आँखों के सामने, कैशोर-प्रेम की मुग्धता, ममता तथा तन्मयता से भरा उस कथानक का सौंदर्य पट बुन गए, मुझे अब ठीक-ठीक स्मरण नहीं। संभवतः अपने किशोर मन की कुछ अस्फुट भावनाओं एवं अस्पष्ट विचारों को कथा के रूप में गूँथने के लिए ही मैंने उस लघु उपन्यास की काग़ज़ की नाव को साहित्य के सिंधु में प्रथम प्रयास के रूप में छोड़ने का दुःसाहस किया हो। उस काग़ज़ की नाव पर बैठकर आधे दर्जन लोग बिना मानव मन की गहराइयों को छुए, बिना शिल्प की पतवार घुमाए या अनुभव के डाँड़ चलाए, किस प्रकार ऊपर ही ऊपर, भावों के फेन को चीरते हुए, पार हो सके, मैं आज भी उस बात को सोचकर आश्चर्य में डूब जाता हूँ। ख़ैर, किशोर मन ढीठ नहीं तो दु:साहसी तो होता ही है।

    सौभाग्य से या दुर्भाग्य से उस उपन्यास की पांडुलिपि इस समय मेरे पास नहीं है, वह मेरे एक स्नेही मित्र की अल्मारी या सदूकची में दूसरे नगर में सुरक्षित है—संभवतः मेरे बाल-चापल्य के उदाहरण के रूप में। पर अपने उस बाल-प्रयास के बारे में मुझे जो कुछ स्मरण है उसे आपके मनोविनोद के लिए निवेदन करता हूँ। उपन्यास का नाम मैंन रखा था ‘हार’। हार का अर्थ पराजय तथा माला-दोनों ही उस उपन्यास के कथ्य से सार्थक हो जाते थे : इस प्रकार ‘हार’ शब्द में एक प्रकार का श्लेष था जो मुझे तब बड़ा व्यंजनापूर्ण प्रतीत होता था। कथानक छोटा ही था पर लिखने का ढंग अथवा अभिव्यक्ति अलंकरणपूर्ण होने के कारण जो कि उस अवस्था के लिए स्वाभाविक ही था—उपन्यास मानव-चरित्र एवं मनोविज्ञान से अधिक मेरे शाब्दिक ज्ञान का ही परिचय देता था। उसकी पृष्ठ संख्या सभवतः 200 के लगभग होगी। कथानक कुछ इस प्रकार था : एक भावुक युवक एक नव युवती के रूप से आकृष्ट होकर, उसे, बिना अपना प्रणय निवेदन किए, चुपचाप अपने हृदय के आसन पर बिठा लेता है। युवती अपने माँ-बाप के साथ ग्रीष्म ऋतु में एक-दो महीनों के लिए किसी पहाड़ी प्रांत में घूमने-फिरने के लिए आई हुई थी। प्राकृतिक सौंदर्य के उस मनोरम प्रदेश में अबोध युवक और युवती, प्रतिदिन परस्पर के संपर्क में आकर, भद्रता और शील का अभिनय करते हुए, अज्ञात रूप से, एक दूसरे की ओर अधिकाधिक आकृष्ट होते गए। किंतु युवती को वस्तुस्थिति का बोध पहले हो जाने के कारण वह धीरे-धीरे सतर्क हो जाती है। और युवक को प्रणय-निवेदन का अवसर देकर उसके हृदय में प्रेम को अतृप्ति का नैराश्य एवं विषादपूर्ण प्रकार भरकर एक दिन बिना उसे पूर्व सूचना दिए, अपने माता-पिता के साथ पर्वत प्रदेश को छोड़कर चली जाती है। युवक इस अप्रत्याशित मूक बिछोह से क्षुब्ध होकर विरक्त हो उठता है और उसे मानव-जीवन का समस्त व्यवहार खोखला तथा आस्थाशून्य लगने लगता है। वह, प्रेम की मृग-मरीचिका से अपने को मुक्त करने का प्रयत्न कर, मानव जीवन के उचित ध्येय की खोज करता है और अपने अध्ययन तथा चिंतन से इस परिणाम पर पहुँचता है कि निःसंग रहकर लोक सेवा करने से ही आनंद तथा आत्म-कल्याण की उपलब्धि संभव हो सकती है। वह अपने कुछ नवयुवक साथियों को लेकर नैतिक जीवन बिताने के लिए शायद एक आश्रम की स्थापना करता है। मानव जीवन का गहरा अनुभव होने के कारण मैंने ‘हार’ और ‘ग्रंथि’ दोनों ही गद्य-पद्य कथाओं के नायकों को प्रेम-सत्यास दिलाकर, विरक्त बनाकर छोड़ दिया है।

    जब मैं अपनी उन दिनों की मनोदशा का विश्लेषण करता हूँ तो मुझे स्मरण आता है कि ‘हार’ लिखने के समय मैं अपने भाई से सुनी हुई रीतिकालीन कवियों की शृंगार भावना, शकुंतला की प्रेम-कथा तथा मेघदूत की वियोग-व्यथा से ज्ञात-अज्ञात रूप से काफ़ी हद तक प्रभावित था। मैंने भाई साहब की पुस्तकों में से बिहारी सतसई तथा तिलक की गीता का भी तब अपनी किशोर बुद्धि के अनुसार अध्ययन अवश्य कर लिया था। क्योंकि ‘हार’ में यत्र-तत्र एकांत प्रणय-निवेदन अथवा रूप-वर्णन के रूप में बिहारी के नाविक के तीरों का यथेष्ट प्रयोग हुआ है। और प्रेम वंचित हृदय को सांत्वना देने के लिए मैंने लोकमान्य की गीता के कर्मयोगी भाष्य का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। उन दिनों अल्मोड़े में जो स्वामी सत्यदेव आदि बड़े लोगो के भाषण होते थे उनमें देश सेवा एवं लोक सेवा का ही स्वर मुख्य रहता था। उन सब परिस्थितियों एव बौद्धिक वातावरण से लाभ उठाकर मैंने अपने विचारों तथा भावनाओं को व्यवस्थित वाणी देने के अभिप्राय से ही, संभवतः, ‘हार’ नामक उपन्यास की रचना की होगी। क्योंकि छंद में तब अपनी गति उतनी होने के कारण अपने चंचल, किशोर मन को, नित्य बढ़ती हुई भाव-राशि के बोझ से मुक्त करने के लिए मुझे गद्य का ही माध्यम अपनाना पड़ा होगा। सभवतः, मुझे अब स्मरण नहीं पड़ता, मैंने भाई साहब के पुस्तकालय से दो-एक उपन्यास भी छिपाकर अवश्य ही पढ़ लिए होंगे। क्योंकि, तब मुझे याद है, हम बच्चे ही समझे जाते थे और हमें उपन्यास, कहानी आदि पढ़ना मना था। भाई साहब के कभी घर से बाहर घूमने-फिरने के लिए निकलने पर मैं जिस क्षुधा एवं उत्साह के साथ उनकी पुस्तकों को अल्मारियों पर टूट कर, कविता, कहानी, उपन्यास की पुस्तकों को जल्दी-जल्दी उलट-पलट कर पढ़ा करता था, वह मुझे याद है। और कभी-कभी अपनी एक-आध पुस्तक भाई साहब को मेरे सिरहाने तकिए के नीचे दबी हुई भी मिल जाती और तब उनकी लाड़-प्यार की भर्त्सना को सहना मेरे लिए बड़ा कठिन हो जाता था। मैं कई दिन तक उन्हें मुँह दिखाने में शरमाता था।

    मैंने, अपने ऐसे ही किशोर स्वभाव तथा घर-बाहर की परिस्थितियों के वातावरण से प्रेरणा तथा बल पाकर अपना खिलौना उपन्यास ‘हार’ लिखा था—जो मेरी सर्वप्रथम रचना थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 220)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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