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मैं और मेरी रचना ‘गुंजन’

main aur meri rachna ‘gunjan’

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

मैं और मेरी रचना ‘गुंजन’

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    अपनी रचनाओं में मैं ‘गुंजन’ का स्थान महत्त्वपूर्ण मानता हूँ। ‘गुंजन’ की कविताओं से पहले मेरा ध्यान अपनी ओर कभी नहीं गया था। यह बड़ी विचित्र बात है कि इकत्तीस-बत्तीस साल की उम्र तक, जब मैंने ‘गुंजन’ की रचनाएँ लिखी, मुझे बाह्य जगत् इतना लुभाता रहा कि मुझे जैसे अपनी सुधि ही नहीं रही। बाह्य जगत् से मेरा अभिप्राय प्रकृति के जगत् से है, जिसने मुझे सर्वप्रथम कविता लिखने की प्रेरणा दी और जो मुझे दस-बारह साल की उम्र से तीस-बत्तीस साल की उम्र तक किसी किसी रूप में अपनी सुंदरता से रिझाता तथा मोहता रहा। यह बात नहीं है कि उसके बाद प्राकृतिक शोभा ने मुझे आकर्षित नहीं किया हो। उसके आकर्षण को तो मैं जीवित रहने के लिए एक प्राणपद तथा आवश्यक उपादान मानता हूँ। किंतु ‘गुंजन’ के रचना काल तक मैं जिस प्रकार प्रकृति की क्रोध में निश्चिंत विचरण करता हुआ अपने को भूला रहता था वह बात आगे मेरे साहित्य में नहीं पाई जाती। ‘गुंजन’ के पहले की मेरी कुछ रचनाएँ ‘वीणा’, ‘ग्रंथि’ और ‘पल्लव’ नाम के तीन संग्रहों में प्रकाशित हो चुकी थी जिनमें 'वीणा' में मेरी प्रारंभिक रचनाएँ, ‘ग्रंथि’ में एक काल्पनिक प्रेम कथा और ‘पल्लव’ में विशेष रूप से मेरे संगीत संगृहीत हुए है। प्रकाशन की दृष्टि से ‘पल्लव’ ही पहले प्रकाशित हुआ। ‘पल्लव’ में मेरे अधिकांश संगीतों के विषय मुख्यतः प्रकृति के सौंदर्य से संबद्ध रहे हैं। उनमें मैंने अपनी रचनाओं के रूप-विधान के लिए प्राकृतिक उपकरणों का ही विविध रूपों में प्रयोग किया है। हिंदी में जितना ऑब्जेक्टिव या वस्तुपरक काव्य मैंने लिखा है, उतना शायद ही और किसी ने लिखा हो। ‘पल्लव’ में अंतिम रचना सन्’ 25 की मिलती है। सन् 1925 से लेकर सन् 30, तक इन पाँच वर्षों में, मेरा काव्य, जो अनेक ज्ञात अज्ञात कारणों से वस्तुपरक से धीरे-धीरे भावपरक हो गया, वह शायद स्वाभाविक ही था। इन भाव परक संगीतों का सर्वप्रथम संग्रह ‘गुंजन’ के नाम से सन् 32 में प्रकाशित हुआ। मेरी पल्लव कालीन कल्पना कोमल तथा वस्तुमूलक कविताओं का ‘गुंजन’ की रचनाओं में एकदम कायापलट देखकर मेरे पाठकों को कुछ समय तक आश्चर्यचकित, विचारमग्न अथवा प्रश्नमौन रहना पड़ा। पर मैं, जोकि अपने मानसिक विकास के अंत सूत्र से भलीभाँति परिचित हूँ, अपने काव्य के इस दिशा परिवर्तन को विस्मय की दृष्टि से नहीं देखता। आगे चलकर ऐसे और भी नए क्षितिज मेरे भीतर खुले हैं जिन्होंने मेरी काव्य-कल्पना को नवीन दिशाएँ प्रदान की है और मैं उन कारणों को अच्छी तरह जानता हूँ।

    कौन जाने, आज जो मेरे भीतर एक नया अंर्तद्वंद्व चल रहा है वह मेरी आगामी रचनाओं की दिशा को फिर से एक दूसरा मोड़ दे दे, पर यह बात अभी से ठीक तरह नहीं कही जा सकती।

    ‘गुंजन’—जैसा कि इस शब्द से ध्वनित होता है,—मेरी भावात्मक तथा चिंतन प्रधान रचनाओं का दर्पण है जिसमें मेरा आत्मान्वेषी, जिज्ञासु व्यक्तित्व प्रतिफलित हुआ है। ‘गुंजन के स्वर में मैं अपने अत्यंत समीप आकर सोचने लगता हूँ। वैसे ‘पल्लव’ के अंतर्गत अपनी ‘परिवर्तन’ शीर्षक रचना में भी मैंने विचार दर्शन दिया है, पर वे विचार मुख्यतः बाह्य जगत् से प्रेरित है। उसमें मैंने केवल जगज्जीवन के रूप को परखा है, जो निर्मम रूप से बदलता रहता है। मैं उसका विश्लेषण कर विक्षुब्ध हुआ हूँ :

    “आज बचपन का कोमल गात, जरा का पीला पात!

    चार दिन सुखद चाँदनी रात, और फिर कार अज्ञात।”

    “शून्य सो का विधुर वियोग, छडाता अधर मधुर संयोग,

    मिलन के पल केवल दो चार, विरह के कल्प पर

    “खोलता इधर जन्म लोचन, मूंदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण।’ इत्यादि

    अब भी इन सब बातों को सोचकर मन में अवसाद भर जाता है। जगज्जीवन का संश्लेषण कर मैंने परिवर्तन से सांत्वना भी ग्रहण की है, जैसा कि निम्नलिखित पंक्तियों में अभिव्यक्त हुआ है :

    “बिना दुख के है सुख निस्सार, बिना आँसू के जीवन भार।

    दीन दुर्बल है रे संसार, इसी से दया क्षमा प्यार।’

    ‘आज का दुख कल का आह्लाद, और कल का सुख आज विषाद,

    समस्या स्वप्न गूढ़ संसार, पूर्ति जिसकी उस पार”

    पर, यह केवल सांत्वना ही तो थी। सामाजिक विषमताओं और द्वंद्वो का भी ‘परिवर्तन’ में यत्र-तत्र चित्रण हुआ है।

    ‘काँपता इधर दैन्य निरुपाय, रज्जुसा, छिद्रों का कृशकाय।’

    ‘लालची गोधो-से दिन रात, नोचते रोग शोक नित गात

    ‘सकल रोप्रो से हाथ पसार, लटता इधर लोभ गृह द्वार,

    उघर वामन डग स्वेच्छाचार, नापना जगती का विस्तार।’

    ‘बजा लोहे के दंत कठोर, नचाती हिंसा जिह्वा लोल।’ इत्यादि।

    किंतु यह सब होते हुए भी मेरा ध्यान तब मन के भीतर छिपी हुई शक्ति की ओर नहीं गया था और परंपरागत भाग्यवाद की भूमिका से प्रेरणा ग्रहण कर मैंने :

    ‘हमारे निज सुख निःश्वास, तुम्हें केवल परिहास;

    तुम्हारी ही विधि पर विश्वास, हमारा चिर आश्वास’

    कहकर अपने मन को आश्वस्त किया था।

    मेरे जीवन-विकास में यह बड़ी अद्भुत बात हुई कि पल्लव काल के समाप्त होते-होते, जब ‘यहाँ मुख सरसो, शोक सुमेरु’ का धारणा के कारण मेरे भीतर जगज्जीवन के प्रति अत्यंत विषाद तथा विरक्ति का दुसह बोझ जमा हो गया था, तब जैसे उसके भार के तीक्ष्ण दबाव के कारण मेरे भीतर एक अज्ञात आनंद स्रोत फूट पड़ा, जिसने मेरा ध्यान ‘यही तो है असार संसार’ से सहसा हटाकर मन के भीतर के प्रच्छन्न आनंद-स्रोत की ओर आकर्षित कर दिया और इस अनुभूति ने जैसे ‘गुंजन’ के सा रे ही बदल दिए।

    उस आनंद स्पर्श ने पहली अभिव्यक्ति सन् 27 के एक संगीत में पाई :

    लाई हूँ फूलो का हास,

    लोगी मोल, लोगी मोल?

    तरल तुहिन वन का उल्लास?,

    लोगी मोल, लोगी मोल?,

    फैल गई मधुऋतु की ज्वाल,

    जल जल उठती वन की डाल,

    कोकिल के कुछ कोमल बोल,

    लोगी मोल, लोगी मोल?

    उमड़ पड़ा पावस परिप्रोत,

    फूट रहे नव-नव जलस्रोत,

    जीवन की ये लहरे लोल,

    लोगी मोल, लोगी मोल?” इत्यादि।

    यह तरल तुहिन वन का उल्लास, मधुऋतु की ज्वाल, कोकिल के कोमल बोल अथवा जीवन की लोल लहरें—मुझे उसी आनंद स्फुरण के रूप में मिले। सन् 30 में मैंने :

    “जग के उर्वर आँगन में

    बरसो ज्योतिर्मय जीवन,

    बरसो कुसुमो में मधु बन,

    प्राणों में अमर प्रणय धन,

    स्मिति स्वप्न अधर पलकों में,

    उर अंगो में सुख यौवन,

    बरसो सुख वन, सुषमा बन,

    मैं और मेरी रचना ‘गुंजन’

    बरसो जग जीवन के घन,

    दिशि दिशि में औ’ पल पल में,

    बरसो मसृति के सावन’...आदि

    रचना द्वारा भी उसी आनंद-घन का आवाह्न किया है। ‘गुंजन’ की रचनाओं में ऐसे अनेक संगीत हैं जो इस शुद्ध अमिश्रित आनंद की क्रीड़ा के साक्षी हैं : यथा

    “विहग विहग।

    फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज,

    कल कूजित कर उर का निकुंज

    चिर सुभग सुभग

    अथवा

    जीवन का उल्लास,

    यह सिहर सिहर,

    यह लहर लहर,

    यह फूल-फूल करता विलास”...आदि।

    इस भीतरी आनंद के स्पर्श से मुझे आत्म-संस्कार, आत्मोन्नयन, आत्मसमर्पण तथा आत्म सयमन के लिए भी प्रेरणा मिली। मेरे मन की इन वृत्तियों की द्योतक अनेक कविताएँ ‘गुंजन’ में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है, जिनमें से कुछ के उदाहरण मैं दे रहा हूँ। ‘गुंजन’ की पहली ही कविता है :

    “तप रे मधुर मधुर मन

    विश्व वेदना में तप प्रतिपल,

    जग जीवन की ज्वाला में गल,

    बन अकलुष उज्ज्वल औ’ कोमल,

    तप रे विधुर विधर मन।”

    यह मेरे मन की एक प्रकार को आध्यात्मिक व्यथा अथवा मेंटाफिजिकल एंग्विश (Metaphysical Anguish) है। इन पंक्तियों में ‘मधुर मधुर’ शब्द आनंद-स्पर्श जनित व्यथा का परिचायक है। अकलुष और उज्ज्वल बनने के बाद मैंने अपने मन से जीवन की पूर्णता अथवा समग्रता में बँधने को कहा है, जो इस प्रकार है :

    “अपने सजल स्वर्ण से पावन, रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम।

    स्थापित कर जग में अपनापन, ढल रे ढल आतुर मन।”

    आत्मोन्नयन के लिए उत्सुकता, विह्वलता अथवा व्यथा मेरे इस समय की अनेक रचनाओं के ताने-बाने में मिल गई है और इसके कारण जग-जीवन के सुख-दुखों के प्रति, जिनसे कि मैं ‘पल्लव’ और ‘परिवर्तन’ काल में विचलित हो उठता था—मेरा दृष्टिकोण ही आमूल बदल गया और वे मुझे एक-दूसरे के पूरक तथा आत्मोन्नयन के लिए आवश्यक सोपान प्रतीत होने लगे। अनेक गीतों में मैंने इस भावना को वाणी दी है; जैसे

    “मैं नहीं चाहता चिर सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख

    सुख दुख की खेल मिचौनी, खोले जीवन अपना मुख।

    सुख दुख के मधुर मिलन से, यह जीवन हो परिपूरण,

    फिर घन में प्रोझल हो शशि, फिर शशि में प्रोझल हो घन।”

    निष्क्रिय विषाद से अधिक महत्त्व मेरे मन ने सक्रिय आनंद को ही दिया है; जैसे :

    “आँसू की आँखो से मिल, भर ही आते है लोचन,

    हँसमुख ही से जीवन का पर, हो सकता अभिवादन।”

    ‘दुख इस मानव आत्मा का रे नित का मधुमय भोजन,

    दुख के तम को खा खा कर भरती प्रकाश से वह मन।”—

    अथवा “वन की सूखी डाली में सीखा कलि ने मुसकाना,

    मैं सीख पाया अब तक मुख से दुख को अपनाना।”

    इस सब के साथ ही जीवन के प्रति और जीवन के विकसित प्रतीक मानव के प्रति मेरे मन में एक नवीन आस्था पैदा हो गई। अपनी अंतर-अनुभूति को चिरस्थाई बनाकर चरितार्थ करने के लिए ‘गुंजन’ काल में मेरे मन ने कठोर साधना की और यह साधना मुझे बिल्कुल भी नहीं खली। मानव और जीवन के प्रति आस्था ने जगज्जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया :

    “काँटो से कुटिल भरी हो यह जटिल जगत की डाली,

    इसमें ही तो जीवन के पल्लव की फूटी लाली,”

    या “अपनी डाली के काँटे बेधते नहीं अपना तन

    सोने-सा उज्ज्वल बनने तपता नित प्राणो का धन।”

    आदि रचनाएँ मेरे उसी व्यापक दृष्टिकोण की परिचायक है।

    इस निरतिशय आनंद-भावना ने मुझे एक नवीन सौंदर्य-बोध भी जीवन-पदार्थ के प्रति प्रदान किया। वह सौंदर्य-बोध संक्षेप में अंत सौदर्य का ही बाह्य जगत् में प्रतिबिंब है। इस सौंदर्यानुभूति को मैंने अनेक गीतों में वाणी दी है; यथा :

    “सुंदर विश्वासो से ही बनता रे सुखमय जीवन,

    ज्यो सहज सहज साँसों से चलता उर का मृदु स्पंदन।”

    अथवा सुंदर मृदु-मृदु रज का तन, चिर सुदर सुख दुख का मन,

    सुंदर शैशव यौवन रे सुंदर-सुंदर जग जीवन।

    सुंदर से नित सुदरतर, सुदरतर से सुंदरतम,

    सुंदर जीवन का क्रम रे सुंदर-सुंदर जग जीवन। इत्यादि।

    ‘गुंजन’—काल की आनंद भावना ने मुझे जो एक प्रकार की तन्मयता प्रदान की वही ‘गुंजन’ के छंदों में एक लक्ष्ण सूक्ष्म संगीत बनकर मूर्त हुई है। ‘गुंजन’ के संगीतों की छंद-योजना अपनी एक विशेषता रखती है, जो उससे पहले या आगे मेरी रचनाओं में नहीं मिलती। ‘गुंजन’ की पहली ही कविता के पदों में जैसे वह तन्मयता रजत मुखर हो उठती है :

    वन वन उपवन

    छाया उन्मत उन्मन गुंजन

    नव वय के कलियो का गुंजन।

    रुपहले सुनहले ग्राम बौर

    नीले पीले श्रौ ताम्र भौर

    रे गध अध हो ठौर ठौर

    उड़ पाँति पाँति में चिर उन्मन

    करते मधु के वन में गुंजन।

    इस प्रकार आप देखते हैं ‘गुंजन’ का काव्य मेरी अंत साधना का संयम-शुभ्र काव्य है। वह मेरे मन की एक विशेष भावस्थिति का, मेरे जीवन-विकास के एक विशिष्ट रजत-शिखर का द्योतक है। किंतु इस शिखर पर आगे चलकर जो धूल और सौरभ-भरी आँधियाँ टूटी, जो इंद्रधनुष और बिजली-भरे बादल गरजे, जिनके कारण कि मुझे मानव-जगत् तथा जीवन का फिर से नए रूप में अध्ययन करना पड़ा, उसकी कथा कभी फिर बतला सकूँगा। तथास्तु।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 231)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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