Font by Mehr Nastaliq Web

मैं और मेरी कला

main aur meri kala

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

अन्य

सुमित्रानंदन पंत

मैं और मेरी कला

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    जब मैंने पहले लिखना प्रारंभ किया था, तब मेरे चारों ओर केवल प्राकृतिक परिस्थितियों तथा प्राकृतिक सौंदर्य का वातावरण ही एक ऐसी सजीव वस्तु थी जिससे मुझे प्रेरणा मिलती थी! और किसी भी परिस्थिति या वस्तु की मुझे याद नहीं, जो मेरे मन को आकर्षित कर मुझे गाने अथवा लिखने की ओर अग्रसर करती रही हो। मेरे चारों ओर की सामाजिक परिस्थितियाँ तब एक घर से निश्चल तथा निष्क्रिय थी, उनके चिर-परिचित पदार्थ में मेरे किशोर मन के लिए किसी प्रकार का आकर्षण नहीं था। फलतः मेरी प्रारंभिक रचनाएँ प्रकृति की ही लीला भूमि में लिखी गई है। पर्वत-प्रांत की प्रकृति के नित्य नवीन तथा परिवर्तनशील रूप से अनुप्राणित होकर मैंने स्वतः ही, जैसे किसी अंतर्विवशता के कारण, पक्षियों तथा मधुओं के स्वरों में स्वर मिलाकर, जिन्हें तब मैंने विहंग-बालिका तथा मधुबाला कहकर संबोधित किया है, पहले-पहल गुनगुनाना सीखा है।

    मेरी प्रारंभिक रचनाएँ ‘वीणा’ नामक संग्रह के रूप में प्रकाशित हुई है। इन रचनाओं में प्रकृति ही अनेक रूप धरकर, चपल मुखर नूपुर बजाती हुई अपने चरण बढ़ाती रही है। समस्त काव्यपट प्राकृतिक सुंदरता के धूप-छाँह से बुना हुआ है। चिड़ियाँ, भौरें, झिल्लियाँ, झरने, लहरें आदि जैसे मेरी बाल कल्पना के छायावन में मिलकर वाद्य-तरंग बजाते रहे है :

    “प्रथम रश्मि का आना रगिणि, तूने कैसे पहचाना,

    कहाँ कहाँ हे बाल विहंगिनि, पाया तूने यह गाना?

    अथवा

    “आयो सुकुमारि विहंग बाले,

    निज कोमल कलरव में भरकर, अपने कवि के गीत मनोहर,

    फैला आओ वन-वन घर-घर, नाचे तृण तरु पात।”

    आदि गीत आपको ‘वीणा’ में मिलेंगे जिनके भीतर से प्रकृति गाती है।

    “उस फैली हरियाली में––कौन अकेली खेल रही माँ,

    वह अपनी वयबाली में?”

    अथवा

    “छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया

    बाले, तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?”

    आदि उस समय की अनेक रचनाएँ तब मेरे प्रकृति-विहारी होने की साक्षी है।

    जिस प्रकार प्रकृति ने मेरे किशोर हृदय को अपने सौंदर्य से मोहित किया है, उसी प्रकार पर्वत प्रदेश को निर्वाक् अलंघ्य गरिमा तथा हिमराशि की स्वच्छ शुभ्र चेतना ने मेरे मन को आश्चर्य तथा भय से अभिभूत कर उसमें अपने रहस्यमय मौन संगीत की स्वरलिपि भी अंकित की है। पर्वत श्रेणियों का वह नीरव संदेश मेरीं प्रारंभिक रचनाओं में विराट् भावनाओं अथवा उदात्त स्वरों में अवश्य नही अभिव्यक्त हो सका है, किंतु मेरे रूप चित्रों के भीतर से एक प्रकार का अरूप सौंदर्य यत्र-तत्र अवश्य छलकता रहा है, और मेरी किशोर दृष्टि को चमत्कृत करने वाले प्राकृतिक सौंदर्य में एक गंभीर अवर्णनीय पवित्रता की भावना का भी अपने आप ही समावेश हो गया है :

    “अब अगोचर रहो सुजान,

    निशानाथ के प्रियवर सहचर, अंधकार, स्वप्नों के यान,

    तुम किसके पद की छाया हो किसका करते हो अभिमान?”

    अथवा

    “तुहिन बिंदु बनकर सुंदर, कुमुद किरण से उतर-उतर,

    मा, तेरे प्रिय पद पद्मों में मैं, अर्पण जीवन को कर दूँ।

    इस ऊषा की लाली में।”

    आदि पंक्तियों में पर्वत-प्रदेश के रहस्यमय अंधकार की गंभीरता और वहाँ के प्रभात की पावनता तथा निर्मलता एक अंतर्वातावरण की तरह अथवा सूक्ष्माकाश की तरह व्याप्त है। ‘वीणा’ की रचनाओं में मेरे अध्ययन अथवा ज्ञान की कमी को जैसे प्रकृति ने अपने रहस्य-संकेत तथा प्रेरणा-बोध से पूरा कर दिया है। उनके भीतर से एक प्राकृतिक जगत् का टहटहापन, सहज उल्लास तथा अनिर्वचनीय पवित्रता फूटकर स्वतः काव्य का उपकरण अथवा उपादान बन गई है।

    ‘वीणा’ के बाद की रचनाएँ मेरे ‘पल्लव’ नामक संग्रह में प्रकाशित हुई है। ‘पल्लव’ में मुझसे प्रकृति की गोद छिन जाती है। ‘पल्लव’ की रूप-रेखाओं में प्राकृतिक सौंदर्य तथा उसकी रंगीनी तो वर्तमान है, किंतु केवल प्रभावों के रूप में––उससे वह सान्निध्य का संदेश लुप्त हो जाता है।

    अथवा

    “कहो हे सुंदर विहंग कुमारि, कहाँ से आया यह प्रिय गान?

    सिखा दो ना, हे मधुपकुमारि, मुझे भी अपने मीठे गान।”

    आदि ‘पल्लव’ काल की रचनाओं में विहंग, मधुप, निर्झर आदि तो वर्तमान है, उनके प्रति हृदय की ममता भी ज्यों की त्यों बनी हुई है, लेकिन अब जैसे उनका साहचर्य अथवा साथ छुट जाने के कारण वे स्मृति चित्र तथा भावना के प्रतीक-भर रह गए हैं। उनके शब्दों में कला का सौंदर्य है, प्रेरणा का सजीव स्पर्श नहीं। प्रकृति के उपकरण रागवृत्ति के स्वर बन गए है, वे अकलुष ऐंद्रिय मुग्धता के वाहन अथवा वाहक नहीं रह गए हैं। ‘वीणा’ काल का प्राकृतिक सौंदर्य का सहवास ‘पल्लव’ की रचनाओं में भावना के सौंदर्य की माँग बन गया है, प्राकृतिक रहस्य की भावना ज्ञान की जिज्ञासा में परिणत हो गई है। ‘वीणा’ की रचनाओं में जो स्वाभाविकता मिलती है, वह ‘पल्लव’ में कला-संस्कार तथा अभिव्यक्ति के मार्जन में बदल गई है। बाहर का रहस्यमय पर्वत-प्रदेश आँखों के सामने से ओझल हो जाने के कारण एक भीतरी रहस्यमय प्रदेश मन की आँखों को विस्मित करने लगा है। अब भी पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश वाला पर्वत का दृश्य सामने आता है, पर उसके साथ ‘सरल शैशव की सुखद स्मृति सी’ एक मनोरम बालिका भी पास ही खड़ी दिखाई देती है। बाल कल्पना की तरह अनेक रूप धरने वाले उड़ते बादलों में हृदय का उच्छ्वास और तुहिन बिंदु-सी चंचल जल की बूँद में आँसुओ की धारा मिल गई है। प्रकृति का प्रांगण छायाप्रकाश की बीथी बन गया है, उसके भीतर से हृदय की भावना अनेक रूप धारण कर विचरण करती हुई दिखाई पड़ती है। उपलो पर बहुरंगी लास तथा भंगिमय भृकुटि-विलास दिखाने वाली निश्छल निर्झरी अब सजल आँसुओं की अचल-सी प्रतीत होती है। निश्चय ही ‘पल्लव’ की काव्य-भूमिका से ‘वीणा’ काल का पवित्र प्राकृतिक सौंदर्य ‘उड़ गया अचानक, लो, भूधर, फड़का अपार वारिद के पर’ के सदृश ही विलीन हो जाता है, और उसके स्थान पर ‘रव शेष रह गए हैं निर्झर’ शेष रह जाते है। उस पवित्रता का स्पर्श पाने के लिए हृदय जैसे छटपटा कर प्रार्थना करने लगता है—

    “विहंग बालिका का सा मृदु स्वर, अर्ध खिले वे कोमल अंग,

    क्रीड़ा कौतुहलता मन की, वह मेरी आनंद उमंग।

    ‘अहो दयामय, फिर लौटा दो मेरी पद प्रिय चंचलता,

    तरल तरंगों सी वह लीला, निर्विकार भावना लता!”

    ‘पल्लव’ की अधिकांश रचनाएँ प्रयाग में लिखी गई हैं। 1921 के असहयोग आंदोलन के साथ ही देश की बाहरी परिस्थितियों ने भी जैसे हिलना-डुलना सीखा। युग-युग से जड़ीभूत उनकी वास्तविकता में सक्रियता तथा जीवन के चिह्न प्रकट होने लगे। उनके स्पंदन, कंपन तथा जागरण के भीतर से एक नवीन वास्तविकता की रूप-रेखा मन को आकर्षित करने लगी; मेरे मन के भीतर वे संस्कार धीरे-धीरे संचित तो होने लगे, पर ‘पल्लव’ की रचनाओं में वे मुखरित नहीं हो सके, उसके स्वर उस नवीन भावना को वाणी देने के लिए पर्याप्त तथा उपयुक्त ही प्रतीत हुए। ‘पल्लव’ की सीमाएँ छायावाद की अभिव्यंजना की सीमाएँ थीं। वह पिछली वास्तविकता के निर्जीव भार से आक्रांत उस भावना की पुकार थी, जो बाहर की ओर राह पाकर ‘भीतर’ की ओर स्वप्न-सोपानो पर आरोहण करती हुई युग के अवसाद तथा विवशता को वाणी देने का प्रयत्न कर रही थी और साथ ही काल्पनिक उड़ान द्वारा नवीन वास्तविकता की अनुभूति प्राप्त करने की चेष्टा कर रही थी। ‘पल्लव’ की सर्वोत्तम तथा प्रतिनिधि रचना ‘परिवर्तन’ में विगत वास्तविकता के प्रति असंतोष तथा परिवर्तन के प्रति आग्रह की भावना विद्यमान है। साथ ही जीवन की अनित्य वास्तविकता के भीतर से नित्य सत्य को खोजने का प्रयत्न भी है, जिसके आधार पर नवीन वास्तविकता का निर्माण किया जा सके। ‘गुंजन’ काल की रचनाओं में नित्य सत्य पर जैसे मेरा दृढ़ विश्वास प्रतिष्ठित हो गया है।

    “सुंदर से नित सुंदरतर, सुंदरतर से सुंदरतम

    सुंदर जीवन का क्रम रे सुंदर-सुंदर जग जीवन।”

    आदि रचनाओं में मेरा मन परिवर्तनशील अनित्य वास्तविकता से ऊपर उठकर नित्य सत्य की विजय के गीत गाने को लालायित हो उठा है और उसके लिए आवश्यक साधना को भी अपनाने की तैयारी करने लगा है। उसे ‘चाहिए विश्व को नव जीवन’ भी अनुभव होने लगा है और वह इस आकांक्षा से व्याकुल भी रहने लगा है। ‘ज्योत्स्ना’ में मैंने इस नवीन जीवन तथा युग परिवर्तन की धारणा को एक सामाजिक रूप प्रदान करने का प्रयत्न किया है। ‘पल्लव’ कालीन जिज्ञासा तथा अवसाद के कुहासे से निखरकर ‘ज्योत्स्ना’ का जगत्, जीवन के प्रति एक नवीन विश्वास, आशा तथा उल्लास लेकर प्रकट होता है। ‘युगांत’ में मेरा वह विश्वास बाहर की दिशा में भी सक्रिय हो गया है और विकासकामी हृदय क्रांतिकामी भी हो गया है। ‘युगांत’ की क्रांति की भावना में आवेश है और है एक नवीन मनुष्यत्व के प्रति संकेत। अनित्य वास्तविकता का बोध मेरे मन में पहले परिवर्तन और फिर क्रांति का रूप धारण कर लेता है। नित्य सत्य के प्रति आकर्षण नवीन मानवता के रूप में प्रस्फुटित होने लगता है। दूसरे शब्दों में बाहरी क्रांति की आवश्यकता की पूर्ति, मेरा मन, नवीन मनुष्यत्व की भावात्मक देन द्वारा करना चाहता है।

    “द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र, हे त्रस्त ध्वस्त हे शुष्क शीर्णं”

    द्वारा जहाँ पिछली वास्तविकता को बदलने के लिए ओजपूर्ण आह्वान है, वहाँ ‘कंकाल जाल जग में फैले फिर नवल रुधिर पल्लव लाली’ में ‘पल्लव’ काल की स्वप्न चेतना द्वारा उस रिक्त स्थान को भरने के लिए आग्रह भी है। ‘गा कोकिल बरसा पावककण! नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन, ध्वंश-भ्रंश जग के जड़ बंधन के साथ ही “हो पल्लवित नवल मानवपन, रच मानव के हित नूतन मन” भी मैंने कहा है। यह क्रांति की भावना, जो अब साहित्य में प्रगतिवाद के नाम से प्रसिद्ध हो चुकी है, मेरी ‘ताज’, ‘कलरव’ आदि ‘युगांत’ कालीन रचनाओं में विशेष रूप से अभिव्यक्त हो सकी है और मानववाद की भावना ‘युगांत’ की ‘मानव’ ‘मधुस्मृति’ आदि रचनाओं में। ‘बापू के प्रति’ शीर्षक मेरी उस समय की रचना गाँधीवाद की ओर झुकाव की द्योतक है जो ‘युगवाणी’ में भूतवाद तथा अध्यात्मवाद के समन्वय का प्रारंभिक रूप धारण कर लेती है। ‘युगवाणी’ तथा ‘ग्राम्या’ में मेरी क्रांति की भावना मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित ही नहीं होती, उसे आत्मसात् करने का भी प्रयत्न करती है।

    “भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,

    जहाँ आत्म दर्शन अनादि से समासीन अम्लान”

    ‘मुझे स्वप्न दो’ ‘मन के स्वप्न’ ‘आज बनो तुम फिर नव मानव’ ‘संस्कृति का प्रश्न’ ‘सांस्कृतिक हृदय’ आदि उस समय की अनेक रचनाएँ मेरी उस सांस्कृतिक तथा समन्वयात्मक प्रवृत्ति की द्योतक है। ‘ग्राम्या’ मेरी सन् 1940 की रचना है, जब प्रगतिवाद हिंदी साहित्य में घुटनों के बल चलना सीख रहा था। आज के दिन प्रगतिवाद का एक रूप जिस प्रकार वर्गयुद्ध की भावना के साथ दृढ क़दम रखकर आगे बढ़ना चाहता है, उस दृष्टि से ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ को प्रगतिवाद की तुतलाहट ही कहना पड़ेगा। सन् 1940 के बाद का समय द्वितीय विश्वयुद्ध का वह काल रहा है जिसमें भौतिक विज्ञान तथा माँसपेशियों की संगठित शक्ति ने मानवता के हृदय पर नग्न पैशाचिक नृत्य किया है। सन् 42 के असहयोग आंदोलन में भारत को जिस पाश्विक अत्याचार तथा नृशंसता का सामना करना पड़ा, उसमें हिंसात्मक क्रांति के प्रति मेरा समस्त उत्साह अथवा मोह विलीन हो गया। मेरे हृदय में यह बात गंभीर रूप से प्रति हो गई कि नवीन सामाजिक संगठन राजनीतिक-आर्थिक आधार पर नहीं, सांस्कृतिक आधार पर होना चाहिए। यह धारणा सर्वप्रथम सन् 1942 में मेरी ‘लोकायन’ की योजना में और आगे चलकर ‘स्वर्णकिरण’ ‘स्वर्णलि’ की रचनाओं में अभिव्यक्त हुई है। नवीन सांस्कृतिक संगठन की रूप रेखा तथा नवीन मान्यताओं का आधार क्या हो, इस संबंध में मेरे मन में ऊहापोह चल ही रहा था कि इसी समय मैं श्री अरविंद के जीवन-दर्शन के संपर्क में गया और मेरी ‘ज्योत्स्ना’ काल की चेतना एक नवीन युग प्रभात की व्यापक चेतना में प्रस्फुटित होने लगी, जिसको मैंने प्रतीकात्मक रूप से स्वर्ण-चेतना कहा है। और मेरा विश्वास धीरे-धीरे और भी दृढ़ हो गया कि नवीन सांस्कृतिक आरोहण इसी चेतना के आलोक में संभव हो सकता है, जो मनुष्य की वर्तमान मानसिक चेतना को अतिक्रम कर उसे एक अधिक ऊर्ध्व, गंभीर तथा व्यापक धरातल पर उठा देगी। इस प्रकार आने वाली क्रांति केवल रोटी की क्रांति, समान अधिकारों की क्रांति ही होकर जीवन के प्रति नवीन दृष्टिकोण की क्रांति, मानसिक मान्यताओं की क्रांति तथा सामाजिक अथच नैतिक आदर्शों की भी क्रांति होगी। दूसरे शब्दों मे भावी क्रांति राजनीतिक-आर्थिक क्रांति तक ही सीमित रहकर आध्यात्मिक क्रांति भो होगी, क्योंकि वस्तु-जगत् के प्रति हमारे ज्ञान का स्तर हमारी आध्यात्मिक धारणा के सूक्ष्म स्तर से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है और वर्तमान युग की विशृंखलता को नवीन मानवीय सामंजस्य देने के लिए मनुष्य की अन्न-प्राण-मन-संबंधी चेतनाओं का बहिरंतर रूपांतर होना आवश्यक तथा अवश्यंभावी है, जिसे मैंने ‘स्वर्णकिरण’ में इस प्रकार कहा है :

    “सस्मित होगा धरती का मुख, जीवन के गृह प्रांगण शोभन,

    जगती की कुत्सित कुरूपता सुषमित होगी, कुमुमित दिशिक्षण!

    विस्तृत होगा जन मन का पथ, शेष जठर का कटु सघर्षण,

    संस्कृति के सोपान पर अमर सतत बढ़ेंगे मनुज के चरण!”

    भौतिक तथा आध्यात्मिक संचरणों के मध्य समन्वय की मेरी भावना धीरे-धीरे विकसित होकर अधिक वास्तविक होती गई है और आज प्रतिगामी शक्तियों की अराजकता के युग में प्रगतिवादी दृष्टिकोण के प्रति मेरे मन की निष्ठा अधिकाधिक बढ़ती जा रही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 146)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY