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लेखक और राजाश्रय

lekhak aur rajashray

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

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सुमित्रानंदन पंत

लेखक और राजाश्रय

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    लेखक और राजाश्रय संबंधी समस्या पर विचार करने पर अनेक प्रश्न मन में उठते हैं, पर इस संक्षिप्त वक्तव्य में मैं मूलभूत दृष्टिकोण के प्रति ही अपना मत प्रकट करना चाहता हूँ। जैसा है या होता रहा है उसे मैं अधिक महत्त्व नहीं देता, जैसा होना चाहिए या हो सकता है उसी को मान्यता देता हूँ। इस दृष्टि से विचार करने पर मुझे लगता है कि वर्तमान काल में लेखकों तथा राज्यसत्ता दोनों के बारे में अनेक प्रकार की अतिरंजित धारणाएँ फैली हुई है और उन दोनों में एक मौलिक विरोध मान लिया गया है। लेखकों की वैयक्तिक स्वतंत्रता की धारणा वस्तुतः एक काल्पनिक धारणा है। जिस निरपेक्ष स्वतंत्रता की कल्पना सामान्यतः लेखक के लिए की जाती है उसका अस्तित्व संभव नहीं, और जिस नियंत्रण निर्देश आदि की आशंका राज्यसत्ता के साथ जुड़ जाती है उसे अनिवार्य मानना भी ठीक नहीं प्रतीत होता।

    वास्तव में हमारे देश में लेखक और राजसत्ता दोनों ही एक लंबे ह्रास और पराधीनता के बाद अब धीरे-धीरे अपने को पहचानना सीख रहे हैं तथा लोक-कल्याण अथवा मानव कल्याण के एक सुनिश्चित ध्येय की ओर अग्रसर हो रहे हैं। यदि राजसत्ता जनता के प्रति अपने कर्तव्य का यथोचित रूप से निर्वाह करने में सफल नहीं हुई है तो हमारा लेखक—वर्ग भी उससे अभी कोसों दूर है। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं कि जिस प्रकार के साहित्य का आज सृजन हो रहा है उससे हम किसी प्रकार भी जनता का हित नहीं कर सकते। क्योंकि उसमें जनता के जीवन, उनकी आशा-आकाक्षाएँ, उनके जीवन-संघर्ष का कहीं भी प्रतिफलन देखने को नहीं मिलता। हमारे बुद्धिजीवी साहित्यिक अपनी ही मध्यवर्गीय स्वस्थ-अस्वस्थ प्रवृत्तियों, वैयक्तिक रुचियों एवं रागात्मक संवेदनाओं को अपने प्रतिवैयक्तिक भाव-सौंदर्य तथा निःसत्व कला बोध में लपेटकर उसे साहित्यिक अभिव्यक्ति दे रहे हैं। उसमें सामाजिक जीवन के स्वास्थ्य, उसके उत्थान-पतन, ह्रास-विकास तथा वास्तविक समस्याओं का चित्रण नहीं के बराबर मिलता है। हम एक सफल साहित्यिक की तरह साहित्य-निर्माण के साथ लोक-मानव का निर्माण नहीं कर रहे हैं। जिस साहित्यिक धरातल से प्रेरणा ग्रहण कर आज हम साहित्य सर्जन में संलग्न है उसका हमारे जन-जीवन की वास्तविकता से दूर का भी नाता नहीं है।

    ऐसी दशा में मुझे तो यही उचित प्रतीत होता है कि हमारे बुद्धिजीवी लेखकों एवं साहित्यिकों को राजसत्ता के संपर्क में अधिकाधिक आना चाहिए और परस्पर के सहयोग से अपने राष्ट्रीय जीवन को अधिकाधिक व्यापक, स्वस्थ तथा लोक कल्याणकारी दिशा की ओर अग्रसर करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह सच है कि इस प्रकार के संबंध से प्रारभ में हमारे सौंदर्यजनित सृजन स्वप्नों को धक्का लगेगा, वे स्वच्छतापूर्वक पंख फैलाकर नहीं उड़ सकेंगे, किंतु यदि हमारे साहित्यकारों में क्षमता तथा संबल सृजन चेतना है तो वे धीरे-धीरे इस गतिरोध से उबरकर मानव तथा जनजीवन की ठोस अनुभूतियों से सपन्न होकर यथार्थ की ओर अग्रसर हो सकेंगे। इससे उनमें शक्ति, स्फूर्ति तथा प्राणों का ही संचार नहीं होगा, वे लोक-जीवन को भी अपने महत्त्वपूर्ण विचारों तथा अनुभवों से प्रभावित कर सकेंगे और जीवन की वास्तविकता के अधिक निकट सकेंगे। इसमें संदेह नहीं कि आधुनिकतम साहित्य जीवन की यथार्थ तथा आदर्श दोनों ही प्रकार की वास्तविकताओं से कटकर अत्यंत भावस्थ व्यक्तिगत तथा कूप गंभीर हो गया है। राष्ट्र-जीवन, देश-जीवन तथा मानव जीवन को प्रभावित तथा प्रेरित करने वाली व्यापकता तथा क्षमता का उसमें नितांत अभाव मिलता है। ऐसी आकाश कुसुम कल्पनाएँ तथा भावनाएँ हिंदी साहित्य में पहले कहीं नहीं पाई जाती।

    मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारे साहित्य को अगर अधिक उपयोगी तथा मानव निधि संपन्न होना है तो उसे शीघ्र ही व्यापक लोकजीवन तथा देश जीवन से घनिष्ट संपर्क स्थापित कर लेना चाहिए, जिसकी गतिविधियों की वर्तमान राजसत्ता ही नियामक है। छायावाद युग ने मानव कल्याण तथा जीवन-सौंदर्य की संभावनाओं की जो मोटी-मोटी रेखाएँ खींची है नए साहित्यकार को उनमें अधिक गहराई, विस्तार तथा विवरण भरना है जिससे उनमें अधिक व्यापकता तथा वास्तविकता सके।

    साहित्यकार का कल्याण स्वतंत्र रहने में नहीं परस्पर निर्भर रहने तथा संयुक्त रहने में देखता हूँ। लोक-जीवन का एक उद्बुद्ध छोर यदि साहित्यकार अथवा कलाकार है तो उसका दूसरा समर्थ छोर राजसत्ता है; दोनों ही परिणतियाँ लोकजीवन के विकास तथा कल्याण के लिए आवश्यक है। छायावाद समष्टि दृष्टि से जिसे विश्व जीवन कहता था आज के साहित्यकार के लिए वही विस्तार, विवरण तथा व्यष्टि समष्टिगत पूर्णता का प्रतीक लोकजीवन है। अतः नए युग-जीवन के ढाँचे में इन दोनों का परस्पर का निकट संपर्क तथा सहयोग एक अनिवार्य मान्यता-सी बन गई। भौतिक विज्ञान का इस युग में जैसा विकास हुआ है और उसने मानव के बाहरी-भीतरी जीवन को जिस प्रकार प्रभावित कर उसके लिए एक नवीन चैतन्य पूर्ण धरा-जीवन सुलभ करने की संभावना का द्वार खोल दिया है उससे जन-समाज और जनतंत्र दोनों ही का जीवन एक ही सत्य के पर्याय बन गए हैं। फलतः प्रत्येक व्यक्ति चाहें वह बुद्धिजीवी हो या श्रमजीवी इस युग में राजसत्ता का ही अंग है—और वह उसके अच्छे-बुरे प्रभावों से पलायन कर बच नहीं सकता। इसलिए इस युग के साहित्यकार के लिए यह और भी अनिवार्य हो गया है कि वह राजसत्ता के संपर्क से बचने का प्रयत्न कर उससे अपनी प्रबुद्ध बुद्धि तथा विकसित क्षमता के साथ जूझे—उसे भी झकझोरे और स्वयं भी जीवन मंथन कर अपने को बदले— यही मुझे उसकी अवश्यंभावी प्रतीत होती है। मुझे राज्य सत्ता को मात्र शक्तिमद का प्रतीक मानना भावप्रवण, संवेदनशील साहित्यिक की हीन भावना तथा रिक्त भय का ही द्योतक मालूम देता है। अतः उसे अपनी शक्ति को पहचान कर उसे जाग्रत कर उसका सदुपयोग राजसत्ता की निरंकुशता के नियंत्रण तथा लोक सत्ता की सफलता के लिए करना चाहिए। क्योंकि राजसत्ता को ही भरी पूरी बनाकर लोकसत्ता बनाना है।

    हमारी रागात्मकता में अभी मध्ययुगीन प्रभाव इतने गहरे हैं और सामंत मानव इतने धीरे-धीरे मर रहा है कि आज सहज ही अनेक प्रच्छन्न पूर्वग्रहों के कारण हमारे चेतन मन में अनेक प्रकार के वैषम्य, विरोध तथा आशंकाएँ उठकर हमारे मानस को मरोड़ती ऐठती रहती हैं और जीवन के सहज प्रवाह को ठौर-ठौर पर कुंठित कर रोकती रहती है। पर यह तो कुछ ही दशकों की व्याधि है, वर्तमान जीवन प्रवाह का अध्ययन यही प्रमाणित करता है कि भविष्य में व्यापक संपन्न लोकजीवन और परस्पर निर्भर विश्वजीवन एक विराट् राजसत्ता या प्रजासत्ता के ही रूप में चरितार्थ होगा और इस मानस मंथन के परिणाम स्वरूप बुद्धिजीवी साहित्यकार तथा कलाकार के लिए उस विराट् जीवन के यथार्थ की अनुभूति को आत्मसात् करना सहज तथा सुखप्रद हो जाएगा। वह उसी महान अस्तित्व का एक अधिक प्रबुद्ध तथा संवेदनशील अंश या जीव होगा जिसके समस्त भीतरी, अतिवैयक्तिक, एकांगी विरोध तथा विषमताएँ घुल-मिल कर महान विश्व-जीवन के बहिरंतर-संतुलन के सौंदर्य को वहन करने में समर्थ हो सकेगी।

    ऐसी विश्व-संपन्न लोक-जीवन की स्थिति में भी एक अधिक पूर्ण महत्तम चैतन्य के वाहक या गायक कलाकार के लिए अपनी ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण सदैव ही सुरक्षित स्थान बना रहेगा, जो उस दिग्-व्यवस्थित विशाल लोक-जीवन की धारा को और भी सुंदरतर, सत्यतर तथा शिवतर संभावना की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहेगा। ऐसे महत् साहित्यकार के स्वातंत्र्य की रक्षा राजसत्ता भी स्वयं अपने ही कल्याण के लिए करने में अपने को धन्य मानेगी।

    यह सच है कि हमारे देश की वर्तमान स्थिति में साहित्यकार और राजसत्ता के पारस्परिक संपर्क तथा सहयोग को बनाने तथा बढ़ाने में दोनों को हो अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, पर इस संकट स्थिति से तो परिमाण नहीं है, क्योंकि यह हमारे राष्ट्रीय तथा मानवीय जीवन के विकास की एक अवश्यंभावी निर्मम अवस्था या स्थिति है जिससे होकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। पीछे हटना तो पलायन, आत्म-विनाश तथा लोक-अमंगल का ही द्योतक है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 290)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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